अशोक भाई, कबाड़खाने की जरूरत है। बने रहिए। कोई चीज शाश्वत नहीं है। जब खत्म होने का वक्त आएगा, देखा जाएगा। लेकिन भाषाई शुद्धता के किसी बेनाम उपासक की टिप्पणी की वजह से अगर आप कबाड़खाना बंद करेंगे तो लोग आगे आपसे जुड़ने से डरेंगे। ऐसी संवेदनशीलता किस काम की, जो व्यक्ति के क्षणभंगुर बना दें। दरअसल संवेदनशील लोग आज की दुनिया में मिसफिट हैं। या फिर ये दुनिया संवेदनशील लोगों के लिए मिसफिट है।
निवेदन है कि आप पुनर्विचार करें। विवाद तो कई हैं, होते रहते हैं, होने भी चाहिए। ट्रांजिशन के दौर से गुजरता देश, समाज, संस्कृति, भाषा, परिवार ये सब कुछ तो विवादों में है। हिंदी में नुक्ते के इस्तेमाल को लेकर कितनी कड़वी बहसें हो चुकी है। हिंदी में अरबी फारसी और तुर्की के शब्द भी विवादों में रहे हैं। यूरोपीय भाषा के शब्दों को लेकर भी अलग अलग विचार हैं। भाषा में लोक और अभिजन की बहस है। भाषा में गाली क्यों न हो, के मजबूत तर्क हैं और क्यों हो के भी उतने ही जोरदार तर्क हैं।
और फिर अंतिम सत्य तो अमूर्त है न अशोक भाई, तो अपने अपने सच को लेकर क्यों न बने रहे दुनिया के इस खेल में। कबाड़खाना बना रहे, इसमें मेरा स्वार्थ है। कुछ चीजें जो यहां मिलती हैं, वो अन्यत्र नहीं मिलती। -दिलीप मंडल
12 comments:
मैं दिलीप के हर वाक्य का अनुमोदन करता हूँ.
अशोक, कृपया कबाडखाने से अपना बोरिया बिस्तरा न उठायें!!
मुझे भरोसा है कि बना रहेगा कबाड़खाना और अशोक पांडे अपना फैसला वापस लेंगे.
अशोक पांडे वापस आएं
कबाड़खाना, हिन्दी चिट्ठों के बीच दुर्लभ मोती की तरह है, जिसको खोना कोई नहीं चाहता। उस अनाम भाषा-वीर की बात पर इतना सेंटीमेंटल हो जाना ठीक नहीं।
आशा है, आप हम सबके निवेदन को ध्यान में रखकर ही उचित फैसला लेंगे।
आपके ही गुरु कवि वीरेन डंगवालजी की एक कविता की एक पंक्ति का एक आशय यह है कि इतने सीधे या चिरकुट ना बन जाना जैसे सर्कस का हाथी। आप भी इतने संवेदनशील ना बन जाना, जैसे छुईमुई।
पब्लिक स्पेस पे आये हैं, तो सबको कुछ कहने की स्वतंत्रता है। पर यूं किसी अनामवीर की टिप्पणियों से आहत होंगे, तो कैसे चलेगा।
कबाड़खाना बंद ना करें, ऐसा मेरा भी अनुरोध है।
दिलीप मंडल जी व आपको रुकने को कहने वाले सभी मित्रों से सहमति । रुक जाओ अशोकज्यू !
घुघूती बासूती
जिनसे घनघोर असहमति है वो भी बने रहें। आलोचना और निंदा करने के उनके अधिकार का पूरा आदर और सम्मान है और अशोक जी आप तो कतई न जाएं।
दिलीप जी की बातों से पूरी सहमति है। जिसने विन्सेंट वैन गॉग की जीवनी का अनुवाद किया हो, वो इतनी-सी बात से घबराकर वापस नहीं लौट सकता। अशोक जी, लस्ट फॉर लाइफ की एक-एक पंक्ति को याद कीजिए और लौटने जाने का ख्याल भी अब याद न आने पाए।
ashok chal gussa thuk.
kaam par laut.
dinesh semwal
भाई इतने संवेदनशील क्यों होते हो? यह एक साजिश है. 'अगर अच्छी दुनिया न बना सको तो उसे उसे उजाड़ दो' यह चंद लोगों की रणनीति होती है.
मैं कौन हूँ? विघ्न संतोषी? या जमालो जो आग लगा कर दूर खड़ी तमाशा देखती है? मैं बवंडर खड़ा करने और फिर उसका मज़ा लेने वाला कोई फितूरी या सनकी आदमी हूँ या फिर ऐसा सिरफिरा जिसे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचने मैं आनंद आता हो?
अपनी बात आगे कहूं इससे पहले कबाद्खाने के सभी मित्रों से, और विशेष तौर से अशोक पांडे से बिना शर्त माफ़ी मांगता हूँ. इसलिए क्योंकि मैंने हैप्पी बर्थ डे वाली पोस्ट पर प्रतिक्रिया इस मकसद से नही दी थी की ब्लॉग ही बंद कर दिया जाए. अगर इस ब्लॉग से इतनी ही खुंदक होती तो मैं टिपण्णी नही करता. लिखा इसलिए क्योंकि मुझे लगता था की यह पढे लिखे लोगों का ब्लॉग है. मुझे लगता था की इस जगह पर स्वस्थ बहस शुरू की जा सकती है. यहाँ हिन्दी भाषा को कत्ल किए जाने की कोशिश पर कुछ सार्थक कहा, लिखा जा सकता है. अफ़सोस इस बात का है की मैंने जो कहा उसके मर्म को पकड़ने की बजाय दिलीप मंडल हरामी शब्द मैं ही उलझ गए और दूसरों को भी उलझा दिया.
अचरज अशोक पण्डे के ऐलान पर ज़्यादा हुआ, जिन्होंने अपने पहले उत्तर मैं कुछ सदाशयता दिखायी लेकिन फिर पूरा असहयोग आन्दोलन ही वापिस लेने कर घोषणा कर दी. चौरी चौरा के बाद गांधी की तर्ज पर.
तमाम पाठकों मैं सिर्फ़ एक सज्जन हैं जिन्होंने मेरी बात को सम्पूर्णता मैं समझने की कुछ कोशिश की. जे पी नगर बंगलोर के जी विश्वनाथन ने लिखा है: एक जिज्ञासा अब पूरी होना बाकी है। कौन है यह दिलचस्प टिप्पणीकार जिसे अंग्रे़ज़ी के शब्द पसन्द नहीं लेकिन अंग्रेज़ी लिपि से परहेज़ नहीं और अरबी शब्द पसन्द है और क्यों गुमनाम रहना पसन्द करते हैं? आशा करता हूँ कि दिलीप मंडलजी के sting operation से पहले ही यह सामने आएँगे और अपना परिचय देंगे।
विश्वनाथन जी और सभी साथियों के सामने कहना चाहता हूँ कि न तो मुझे अंग्रेज़ी से घृणा है और न ही अंग्रेज़ी बोलने वालों से. मैं तो उस कोढ़ कि और आपका ध्यान खींचना चाहता था जो इन दिनों हिन्दी भाषा कि उँगलियाँ / हड्डियाँ गलाता जा रहा है. हिन्दी अखबार पढ़ते होंगे आप ! प्राइम मिनिस्टर ने एक hurriedly called press conference मैं announce kiya .... school के सामने पिंक कलर की बिल्डिंग मैं murder हुआ... शादी से पहले सेक्स पर young people की राय .. .. और ऐसे ही तमाम उदाहरण मैं दे सकता हूँ. प्रभु जोशी ने इस मुद्दे पर काफी लिखा है. (उदय प्रकाश का ब्लॉग देखें).
लेकिन हमारे हिन्दी समाज की ही तरह हिन्दी ब्लॉगर भी एक दूसरे के दाद खुजाने के इतने आदी हो गए हैं की दाद पर दवा लगाने वाला उन्हें दुश्मन लगने लगता है. और फिर सब एक दूसरे के बचाव मैं इकट्ठे हो जाते हैं और दाद खुजाने के काम में जुट जाते हैं. ये समस्या हिन्दी समाज की है, सिर्फ़ मेरी या आपकी नही.
अरे भाई, मुद्दे पर तो आओ !! मैंने ऐसा क्या लिख दिया था जिससे मंडल बाबू मेरी भाषा के आधार पर मेरा मुखोटा ही नोचने लगे थे और मुकेश ने रम पीने की सलाह दे डाली. मैंने लाख भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया हो (में नही मानता की मैंने किया) लेकिन कोई बहस तो आगे चलाओ.
दफन करो मुझे.
इतना कह चुकने के बाद मैं फिर उसी सवाल पर आता हूँ की मैं कौन हूँ?
क्या मैं चौरी चौरा का वो आंदोलनकारी हूँ जिसने थाने को फूँक डाला था और बेचारे महात्मा गांधी को पूरा का पूरा असहयोग आन्दोलन वापिस लेना पड़ा था?
जिस तरह अशोक भाई आपने ब्लॉग बंद करने का एलान कर दिया है उससे तो मुझे यही लग रहा है की मैं इन्ही मैं से कोई हूँ और आप सब महात्मा. माफ़ी इसलिए भी मांगी है. महात्माओं से माफ़ी मांगने में हर्ज़ भी क्या है ! क्या राय है?
(क्या इसे प्रतिक्रिया की बजाये पोस्ट की तरह छाप पाएंगे आप?)
प्रिय एनोनिमस की राय को पोस्ट की तरह छापें. ये उतने बुरे तो नहीं है जितने आप उन को समझ रहे हैं. ये तो विचारक-प्रचारक आदि हैं.
कबाडखाने के घोषणापत्र में विचार को भी कबाड की श्रेणी प्राप्त है. उम्मीद है कि तब वे स्वाधीनता संग्राम के पेंशन भोगियों में अपना नाम लिखाने के लिये नाम ज़ाहिर करेंगे. अभी तो वे थाना फूँक कर अनाम रहना चाहते है.
एक सुधार करें अनाम महाशय,
मुकेश नहीं मनीश. मनीश कोई अंग्रेज़ी नाम नहीं कि जिसके बदले आप हिंदी मुकेश लिखना पसंद करें.
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