( कल से जी कुछ उचटा-सा है. जब कभी भी ऐसा होता है खूब पढता हूं ,खासकर कविता की किताबें.कल और आज जो कुछ भी पढा उसी में से कुछ चुनिंदा यहां पेश करने की इजाजत चाह्ता हूं)
" यह बिल्कुल सच है कि मैं फिर कभी कविता और चित्रों के फेर से निकल नहीं पाया. और कहनियां भी. ये सब मेरे अकेलेपन और असुरक्षा के एकमात्र शरण्य बन जायेंगे ऐसा मैंने उन दिनों बिल्कुल नहीं सोचा था. बाद में मैनें कहीं पढा,शायद इतालवी कव इयूजीन मोंताले ने कहा था कि कवि असुरक्षा का जादूगर होता है.वह अपने जय को पराजय और पराजय में बदलने के एक अंतहीन काम में जीवन भर लगा रहता है. वह बहुत अशक्त होता है लेकिन अपने दुखों और निर्वासन की गुफा में कैद उसकी आंखें किसी अपराजेय सम्राट् की तरह आकाश की ओर हमेशा लगी रहती हैं. मेरी अपनी कविता की पंक्ति है कि रात के अकेलेपन में कवि का शरीर चंद्रमा की तरह चमकता है.
कविता ही नहीं किसी भी कला की सृजनात्मकता के गहन पलों में समूचा युग और संसार कवि के स्नायु में किसी द्रव की तरह बहता है.
और जिसका शरीर रात में चंद्रमा की तरह नहीं चमकता ,जो एक अपराजेय सम्राट् की तरहा काश को नहीं ताकता ,काल और संसार जिसकी शिराओं में द्रव की तरह नहीं प्रवाहित ,उसे मैं कभी भी कवि नही मान पाता.चाहे वह कितना भी बड़ा संपादक ,पत्रकार ,राज्नीतिक नेता या अफसर क्यों न हो.
कविता की सत्ता तमाम बाहरी सत्ताओं का विरोध करती है. वह बहुत गहरे अर्थ और प्राचीन अर्थों में नैतिक होती है."
(भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त कविताओं के संग्रह 'उर्वर प्रदेश' में उदय प्रकाश के वक्तव्य का एक अंश)
इच्छा
मुझे हवा चाहिये
जिसमें आजाद होकर मैं सांस ले सकूं
और जिसे गुंजा सकूं
अपने शब्दों से
मुझे घर चहिये
जिसके लोग मुझे प्यार करें
और जहां मैं नाराज हो सकूं
मनाये जाने के लिये
मुझे नीला आसमान चहिये
जिसके नीचे
मैं हरियाली की तरह फैल सकूं
और चूम सकूं उस लड़की को
अपने होठों की पूरी ऊष्मा के साथ -
मुझे खुले हाथ और सधी हुई उंगलियां चाहिये
जिनसे मैं उकेर सकूं
इतिहास की सुन्दरतम कलाकृति
और बजा सकूं
संगीत का सबसे जटिल राग
इन सबके अलावा
मुझे चाहिये एक नश्वर देह
जिसे मैं अपने पापों से गन्दा कर सकूं
और जिसके खत्म होने तक
मैं आदमी की तरह जी सकूं
(यह कविता मेरे अजीज दोस्त अशोक पान्डे के संग्रह 'देखता हूं सपने' से ली गई है,बिना किसी आभार के. साथ ही इस हिदायत के साथ कि भइए उठ अपनी खटारा साइकिल उठा,तराजू -बाट दुरुस्त कर और फेरा लगा.बाबू जी! कबाड़खाने में कोई सोना-चांदी तो ना गेरेगा.आएगा तो लोया ,पिलाट्टिक और रद्दी पेप्पोर ही.हम तो इसी में से काम का 'माल'छांट कर अपनी दुकान चलायेंगे. देख तो आजू-बाजू क्या हो रिया है और तू खुन्नस खा के सो रिया है. चल काम पे लग नहीं तो पिटैगा और 'पीसे' भी ना मिलैंगे....टेंशन काय को लेने का....नराई,प्यार और पुच्च....)
2 comments:
हाँ बिल्कुल सही. "नराई,प्यार और पुच्च...."
to yaar ramdev ji ki class join karo , svasthya banao aur karo poori apne ji ki.
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