कहां गया ज्ञान? सूचनाओं में खो गया। कहां गया विवेक? ज्ञान ने उसे खा लिया। माओ त्से तुंग ने चीनी कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एक गंडा बांधा था- जनता से सीखो। गांधी ने राज संभालने जा रहे कांग्रेसियों को एक जादुई ताबीज दी थी- कोई भी फैसला लेते वक्त देश के सबसे गरीब आदमी को याद करो। ऐसे सूत्रवाक्य भुलाने में लोगों को बमुश्किल दस साल लगते हैं। खुद इन्हें देने वाले भी इन्हें उतनी ही आसानी से भूल जाते हैं। माओ के बारे में यह बात बिल्कुल साफ है। गांधी अपने सूत्रवाक्य के बाद ज्यादा दिन जिंदा ही नहीं रहे, लिहाजा दुविधा की धुंध में उनके बारे में जो चाहे कह लें।
सूचनाओं की भरमार है, ज्ञान और अज्ञान के बीच फर्क बड़ी तेजी से मिट रहा है। विवेक क्या होता है, इस बारे में जानकारी शायद कहीं किसी शब्दकोष में ही मिले तो मिले। अतीतग्रस्त पूरबी मानस बड़ी जल्दी अपनी पुरानी धुरी पर लौट आता है। चीन और भारत की कुल ढाई अरब आबादी के लिए विराट बदलावों के साठ साल बीत चुके हैं। सही और गलत के बीच तमीज करने के, फैसले लेने के मानदंड अब क्या होंगे, कोई नहीं जानता।
अपने यहां चारु मजूमदार ने जनता से सीखो नारे को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लिया था। शायद खुद माओ त्से तुंग से भी ज्यादा गंभीरता से। इस नारे के असर में विप्लवी नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी को सचमुच जनता से सीखने का प्रयास करते देखा गया था। मैं खुद ऐसे कई लोगों से मिला हूं जिन्होंने महानगरों की अभिजात पृष्ठभूमि से आकर गरीब किसान का पूरा जीवन सीखा। बोली-बानी, कामकाज, कपड़ा-लत्ता, मौसमों से लेकर इलाज तक के बारे में समूची देसी समझ अर्जित की। काश, उनका यह विवेक देश के लिए बड़े फैसले लेते वक्त किसी काम आ पाता।
वह नहीं आया। न शायद कभी आएगा। लेकिन एक धुंधली सी बात उसने जरूर उठाई कि स्थापित धारणाओं से इतर ज्ञान और विवेक के कुछ अलग मायने भी होते हैं। एक बार हम लोगों में बात हो रही थी कि सीपीआईएमएल-लिबरेशन जैसी क्रांतिकारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में भी दलित प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है? देश की कम्युनिस्ट धाराओं में यह सवाल पहले भी उठा है और इसका जवाब यही रहा है कि शीर्ष नेतृत्व के लिए जिस व्यापक ज्ञान की आवश्यकता है, वह दुर्भाग्यवश समाज के कुलीन तबकों को ही हासिल हो पाता है। कमोबेश यह वही तर्क है, जिसे आरक्षण के विरोध में और मेरिट के पक्ष में देश के तमाम विद्वज्जन दिया करते हैं।
लेकिन हमारी उस दिन की बहस से एक भिन्न नतीजा निकला था। एक साथी ने कहा कि 'चारु दा जब जनता से सीखो कहते हैं तो उनका मतलब क्या होता है? क्या सीखो? सीखने के लिए जो कुछ होगा वह कोई ज्ञान ही तो होगा- जिसे हम ज्ञान कहते हैं, उससे भिन्न किसी और तरह का ज्ञान। उसे सिर्फ एक औपचारिकता क्यों माना जाना चाहिए? क्या उस ज्ञान का पर्याप्त प्रतिनिधित्व पार्टी की शीर्ष इकाइयों में हो पाता है?' वह आज भी नहीं हो पा रहा है, लेकिन बात तो दिमाग में है।
जब हम भारत में ज्ञान सरणियों के रूप में परंपरा और पश्चिम का चर्बित-चर्वण ही हावी होने की बात कहते हैं तो क्या सिर्फ अपने सिनिसिज्म का परिचय दे रहे होते हैं? अगर नहीं, तो सूचना और ज्ञान की आडंबरपूर्ण परिभाषाओं से निपटने के लिए हमें अपने विवेक की कसौटियां नए सिरे से तय करनी चाहिए। गांधी, माओ और चारु की टीपें इस काम में शायद हमारे ज्यादा काम न आएं, लेकिन 'गतानुगतिके लोके' जैसे धुंधलके वाले माहौल में सच्चे अर्थों में एक आलोचनात्मक विवेक का खाका खड़ा करने में इनसे हमें कुछ मदद जरूर मिलेगी।
1 comment:
Kal se hi intzaar kar raha hoon, ki koi to aayega aur Chandu ki baat se apni baat jodega. Lekin comments ab tak 0 hi dikha raha hai.
Ham kaisi baaton se prabhavit aur udwelit hote hein? Kaun si baaten hamen jad pathhar sa bana deti hein?
Gyan aur vivek par likhi gayee Chandu ki baat hamen kured kyon nahi payee? Kyon kisi ne pratikriya nahi bheji? Kyon ye post kisi bahas ki shuruaat nahi kar saki?
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