Tuesday, February 19, 2008

आ जाओ प्यारेः नए कबाड़ी तरुण का स्वागत और पुराने कबाड़ी सुंदर का 'गृहविज्ञान'

अब साहब परम्परा है तो है।नए कबाड़ी के स्वागत की परपरा क्यों तोड़ी जाए।

कबाड़खाने में नए कबाड़ी तरुण का स्वागत है.वह अपनी हाजिरी पहले ही लगा चुके हैं और बहुत उम्दा माल भी गेर चुके हैं.यह तो अपने कबाड़खाने के नए मेंबर की विनम्रता है कि वह खुद को 'प्रशिक्षार्थी कबाड़ी'कह रिया है नहीं तो यह जग जहिर है अपना भाई ब्लागिस्तान का पुराना माहिर है.

सात समंदर पर रहने वाले तरुण 'कबाड़खाना' समेत नौ ब्लागों से जुड़े है।सिनेमा, संगीत,फोटोग्राफी,घुमक्कड़ी और लिखत-पढत उनके शौक हैं. इसलिए पूरी उम्मीद है उनके अनुभव और आस्वाद का भरपूर लाभ 'कबाड़खाना' को मिलेगा और कोई नया गुल खिलेगा.

भाई तरुण पहले से ठिया जमाए सारे कबाड़ियों की ओर से आपका स्वागत! आपके ही उम्दा कबाड़ से एक पंक्ति आपके लिए-'तरूण' प्‍यार के गीत सुनाओ, सभी हमारे मीत।

सुंदर चंद ठाकुर की कविता 'गृहविज्ञान'

वे कौन सी तब्दीलियां थीं परंपराओं में
कैसी थीं वे जरूरतें
सभ्यता के पास कोई पुख्ता जवाब नहीं

गृहविज्ञान आखिर पाठ्यक्रम में क्यों शामिल हुआ।

ऐसा कौन सा था घर का विज्ञान
जिसे घर से बाहर सीखना था लड़कियों को
उन्हें अपनी मांओं के पीछे-पीछे ही जाना था
अपने पिताओं या उन जैसों की सेवा करनी थी
आंगन में तुलसी का फिर वही पुराना पौधा उगाना था
उन्हीं मंगल बृहस्पतिशुक्र और शनिवारों के व्रत रखने थे
उसी तरह उन्हें पालने थे बच्चे
और बुढापा भी उनका लगभग वैसा ही गुजरना था।


सत्रह -अठारह साल की चंचल लड़कियां
गृहविज्ञान की कक्षाओं में व्यंजन पकाती हैं
बुनाई-कढ़ाई के नए-नए डिजाइन सीखती हैं
जैसे उन्हें यकीन हो
उनके जीवन में वक्त की एक नीली नदी उतरेगी
उनका सीखा सबकुछ कभी काम आएगा बाद में.
वे तितलियों के रंग के बनायेंगी फ्रॉक
तितलियं वे फ्रॉक पहन उड़ जायेंगी
वे अपने रणबांकुरों के लिए बुनेंगी स्वेटर दस्ताने
रणबांकुरे अनजाने शहरों में घोंसले जमायेंगे
वे गंध और स्वाद से महकेंगी
आग और धुआं उनका रंग सोख लेंगे
कहीं होंगे शयगद उनकी रुचि के बैठकखाने
रंगीन परदों और दिजाइनदार मेजपोशों से सजे हुए
कितनी थका टूटन और उदासी होगी वहां।


सराहनाओं के निर्जन टापू पर
वे निर्वासित कर दी जायेंगी
यथार्थ के दलदल में डूब जाएगा उनका गृहविज्ञान।


(हमारे समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों में से एक सुंदर चंद ठाकुर की यह कविता 'पहल'के अंक ६३ से साभार!साथ में बेहद प्यार से यह उलाहना भी कि 'अबोला' तोड़ो और कबाड़खाने में कुछ नया जोड़ो सुंदर बाबू!)

2 comments:

ghughutibasuti said...

जब गृहविग्यान एक विषय की तरह पढ़ा जाता है तो शायद उसमें वही सब होता है जो यह कविता कह रही है । परन्तु जब यह एक विषय न रहकर पूरी डिग्री का नाम हो जाता है तो खाना पकाना और बुनाई कढ़ाई सिलाई इसका एक बहुत छोटा भाग होता है । १० % भाग भी नहीं । जितने विय इसके अन्तर्गत पढ़े जाते थे (आज की नहीं जानती) वह एक पूर्ण व्यक्तित्व बनाने की कोशिश सी होती थी । कम से कम jack of all trades बनाती ही थी । उसके बाद क्या किया जाए यह अपनी रुचि,परिस्थियों आदि पर निर्भर था ।
घुघूती बासूती

Tarun said...

swagat karne ke liye bahut bahut dhanyvaad.

agar aisa hai to Grih vigyan aadmiyon ko jyada parana chaiye...