Tuesday, March 4, 2008

विष्णु खरे की 'चुनौती'

बेहद विरल प्रजाति के कवि हैं विष्णु जी। पत्रकारिता, लेखन, यात्रा और अनुवाद का अपार अनुभव है उनके पास। अपनी पैनी निगाह से वे बेहद सामान्य लगने वाली चीज़ों - घटनाओं के भीतर से वे अकल्पनीय को बाहर निकाल लाते हैं। एक ज़बरदस्त मर्दाना कवि और शानदार व्यक्ति और महान गुरु पापा विष्णु की एक कविता प्रस्तुत है।

चुनौती

इस क़स्बानुमा शहर की इस सड़क पर
सुबह घूमने जाने वाले मध्यवर्गीय सवर्ण पुरुषों में
हरिओम पुकारने की प्रथा है


यदि यह लगभग स्वगत
और भगवान का नाम लेने की एकान्त विनम्रता से ही कहा जाता
तब भी एक बात थी
क्योंकि तब ऐसे घूमने वाले
जो सुबह हरिओम नहीं कहना चाहते
शान्ति से अपने रास्ते पर जा रहे होते


लेकिन ये हरिओम पुकारने वाले
उसे ऐसी आवाज़ में कहते हैं
जैसे कहीं कोई हादसा वारदात या हमला हो गया हो
उसमें एक भय एक हौल पैदा करने वाली चुनौती रहती है
दूसरों को देख वे उसे अतिरिक्त ज़ोर से उच्चारते हैं
उन्हें इस तरह जांचते हैं कि उसका उसी तरह उत्तर नहीं दोगे
तो विरोधी अश्रद्धालु नास्तिक और राष्ट्रद्रोही तक समझे जाओगे
इस तरह बाध्य किये जाने पर
अक्सर लोग अस्फुट स्वर में या उन्हीं की तरह ज़ोर से
हरिओम कह देते हैं
शायद मज़ाक़ में भी ऐसा कह देते हों


हरिओम कहलवाने वाले उसे एक ऐसे स्वर में कहते हैं
जो पहचाना-सा लगता है


एक सुबह उठकर
कोठी जाने वाले इस ज़िला मुख्यालय मार्ग पर
मैं प्रयोग करना चाहता हूं
कि हरिओम के प्रत्युत्तर में सुपरिचित जैहिन्द कहूं
या महात्मा गांधी की जय या नेहरू ज़िन्दाबाद
या जय भीम अथवा लेनिन अमर रहें
- कोई इनमें से जानता भी होगा भीम या लेनिन को? -
या अपने इस उकसावे को उसके चरम पर ले जाकर
अस्सलाम अलैकुम या अल्लाहु अकबर बोल दूं
तो क्या सहास मतभेद से लेकर
दंगे तक की कोई स्थिति पैदा हो जाएगी इतनी सुबह
कि इतने में किसी सुदूर मस्जिद का लाउडस्पीकर कुछ खरखराता है
और शुरू होती है फ़ज्र की अज़ान
और मैं कुछ चौंक कर पहचानता हूं
कि यह जो मध्यवर्गीय सवर्ण हरिओम बोला जाता है
वह नमाज़ के वज़न पर है बरक्स


शायद यह सिद्ध करने का अभ्यास हो रहा है
कि मुसलमानों से कहीं पहले उठता है हिन्दू ब्राह्म मुहूर्त के आसपास
फिर वह जो हरिओम पुकारता है उसी के स्वर अज़ान में छिपे हुए हैं
जैसे मस्जिद के नीचे मन्दिर
जैसे काबे के नीचे शिवलिंग

गूंजती है अज़ान
दो-तीन और मस्जिदों के अदृश्य लाउडस्पीकर
उसे एक लहराती हुई प्रतिध्वनि बना देते हैं
मुल्क में कहां-कहां पढ़ी जा रही होगी नमाज़ इस वक़्त
कितने लाख कितने करोड़ जानू झुके होंगे सिजदे में
कितने हाथ मांग रहे होंगे दुआ कितने मूक दिलों में उठ रही होगी सदा
अल्लाह के अकबर होने की लेकिन
क्या हर गांव-क़स्बे-शहर में उसके मुका़बिले इतने कम उत्साहियों द्वारा
हरिओम जैसा कुछ गुंजाया जाता होगा

सन्नाटा छा जाता है कुछ देर के लिए कोठी रोड पर अज़ान के बाद
होशियार जानवर हैं कुत्ते वे उस पर नहीं भौंकते
फिर जो हरिओम के नारे लगते हैं छिटपुट
उनमें और ज़्यादा कोशिश रहती है मुअज़्ज़िनों जैसी
लेकिन उसमें एक होड़ एक खीझ एक हताशा-सी लगती है
जो एक ज़बरदस्ती की ज़िद्दी अस्वाभाविक पावनतावादी चेष्टा को
एक समान सामूहिक जीवन्त आस्था से बांटती है
वैसे भी अब सूरज चढ़ आया है और उनके लौटने का वक़्त है

लेकिन अभी से ही उनमें जो रंज़ीदगी और थकान सुनता हूं
उस से डर पैदा होता है
कि कहीं वे हरिओम कहने को अनिवार्य न बनवा डालें इस सड़क पर
और फिर इस शहर में
और अन्त में इस मुल्क में

(परिकल्पना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'लालटेन जलाना' से साभार)

6 comments:

भोजवानी said...

कबीर सा रा रा रा रा रा रा रा रारारारारारारारा
जोगी जी रा रा रा रा रा रा रा रा रा रा री

Unknown said...

सही बात लिखी जी - ऐसा डर तो है, हम बहुतों में - बाकी भोजवानी जी लिख ही गए हैं ऊपर - जैहिंद

ghughutibasuti said...

यह भी भय रहता है
कि पिताजी की पूजा
कहीं दिखावा ना कह दी जाए
कि सजदे में उठे हाथ ही
कहीं पाक ना कहलाएँ
कि पुजारी के माथे पर
लगा चंदन टीका
तामझाम ना कहलाए
कि गले में लटकता क्रॉस ही कहीं
धर्म ना कहलाए
कि अपना धर्म मानना
कहीं अधर्म ना कहलाए
कि दूजे के धर्म को
पावन मानना ही कहीं
धर्म निर्पेक्षता ना कहलाए
कि मंदिर में बजाना घंटी
ना बनाता हो मुझे कुंठित
कि जा गिरजे में बैठना
ना बनाता हो मुझे उन्नत !

घुघूती बासूती

Arun Aditya said...

खरे साहब की खरी कविता।

siddheshwar singh said...

बहुत ही खरा और भरा

शिरीष कुमार मौर्य said...

हमेशा की तरह एक बार फिर विष्णु खरे जी की मेधा को हमारा सलाम। वे उन कवियों में हैं जिनसे हमें रोशनी मिलती है।