Tuesday, April 1, 2008

मूर्खता के मजे और बुद्धिमानी की तकलीफें

आज सुबह एक सहकर्मी ने 'फूल' बनाया- अप्रेल फूल।बहुत हल्की -सी शरारत थी उनकी लेकिन बड़ा भारी मजा आ गया और मन हल्का हो गया.अब मैं मूर्ख दिवस के इतिहास-भूगोल-अर्थशास्त्र आदि-आदि की चर्चा करके अपने- आपके मजे को खराब नहीं करना चाहता.यह तो सर्वसुलभ जानकारी है कि कब ,कहां ,कैसे इस अंतरराष्ट्रीय पर्व की शुरूआत हुई और कैसे,किन तरीकों से इसके विविध आयाम विकसित हुए हैं.अब तो हालत यह है जो मूर्ख नहीं है वह कुछ नहीं है, नथिंग.एक अनंत और आह्लाद्कारी मूर्खता के उद्यम में सन्नद्ध इस संसार में मूर्खता कितनी दुर्लभ हो गई हैं, यह हर तरफ के हाहाकार में साफ दिखाई दे रहा है. नहीं तो आज के इस 'पावन पर्व 'पर मूर्खता के महासागर में डूबते-उतराते कितना समय ,श्रम और धन बह रहा है वह किसी से छिपा नहीं है. मूर्खता के मजे के भी क्या मजे हैं हुजूर्,खासकर तब जब आप ब-खुशी मूर्ख बनाए जा रहे हों ,सुबह से शाम तक समारोहपूर्वक.

बचपन में हमलोग मूर्खों की कहानियां पढ़ते- सुनते थे।उनमें से कुछ के शीर्षक भी यागद हैं जैसे 'चत्वारि मूर्खाः','मूर्ख मगरमच्छ'आदि.मूर्खता और मूर्ख के पर्याय समझे जाने वाले शब्दों से जैसे-जैसे परिचय बढ़ता गया वैसे-वैसे लोगबाग अपन को अकलमंद और बुद्धिमान मानते चले गए.पढ़ाई-लिखाई के वक्त लगातार चार साल तक अपने होस्टल में मईं महामूर्ख चुना जाता रहा जिसकी परिणति यह हुई कि लोगों ने मूर्ख मानना ही छोड़ दिया.इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी दुर्घटना यह हुई कि मूर्खता का आनंद दिनोंदिन दूर होता गया.अब तो अपना पेशा भी ऐसा है कि जनता और कुछ माने या न माने विद्वान जरूर मानती है.बड़ा अजीब-सा लगता यह शब्द सुनकर,लगता है कहीं कुछ खो गया है.वह अपना खोया हुआ सामान आज सुबाह-सुबह मिल गया.खुशी हुई कि अब भी छेड़े जाने की संभावना शेष नहीं हुई है,अब भी अपने आसपास जीवन बचा हुआ है-चतुराईहीन जीवन-सुसंस्कृत के बरक्स प्रकृत जीवन,खांटी,शुद्ध.

जब जबकि गहरा रही है रात।थम गया है शोर.खाना-पीना,रोट्टी-शोट्टी के बाद कुछ लिखने-पढ़ने उपक्रम करते हुए वाचमैन की सीटी और सोंटी घसीटने आवाज ही कानों में आ रही है तब एक मूर्ख दिवस के समारोह की थकान उतारने के लिए नींद का शरण्य ही एक अकेला रास्ता दिखाई दे रहा है.यह भी याद आ रहा है भक्त कवियों ने स्वयं को अगर 'मूरख' कहा है तो यह कम बड़ी बात नहीं है क्योंकि विद्वान बने रहना कठिन काम है लेकिन मूर्ख बने रहना और भी कठिन.जान बूझकर मूर्ख बनना गूंगे का गुड़ है.मैंने आज यह गुड़ खाया और उसकी मिठास के बारे में आपको भी कुछ-कुछ बताया.

क्या आज आपने भी यह गुड़ खाया? कित्ता? चुटकी या डली? आप चाय में चीनी कितनी लेते हैं? गुड़,गुड़ है चीनी नहीं,चीनी छोड़ो गूड़ खाओ।अभी भी वक्त है 'मूरख दिवस' मनाओ-हैपी मूर्ख दिवस! अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की बहुपठित-बहुचर्चित काव्य पंक्तियों के साथ आज की इस चर्चा की इति-

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा जीवन जिया भी तो क्या जिया?

7 comments:

Unknown said...

वाह - मेरा भी नाम जोकर [ :-)]

Ashok Pande said...

अप्रैल फ़ूल के नाम पर लिखे गए ज़्यादातर कूड़ा और बेहद शौकिया किस्म के लेख-आलेखों की भीड़ के बीच एक बढिया संजीदा रचना. बहुत अच्छे!

Vineeta Yashswi said...

अच्छा लेख है

दीपा पाठक said...

मूर्ख बनने बनाने के बीच मासूमियत खोजना सचमुच ताजगी भरा है।

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया है जी ...

Unknown said...

वीरेन जी की ये बढ़िया कविता पढ़कर `दुष्चक्र में सृष्टा' संग्रह की ही एक और कविता याद आ रही है, हालांकि उसके जस के तस शब्द याद नहीं आ रहे हैं. उसमें भालू से शहद के लिए उसका प्यार मांगते हैं और शायद सियार से कहते हैं की मुझे बख्शे रहना अपनी चालाकी से..

siddheshwar singh said...

आप लोगों ने और अन्य कई लोगों ने इस पोस्ट को पसंद किया ,सो धन्यवाद -आभार .भाई धीरेश जी ,वीरेन जी की वह कविता'फ़रमाइशें' है ,बेहद छोटी लेकिन बेहद मारक.जल्द ही लगा दूंगा -अपनी दुकान पर !