गु़लाम अली और आशा भोंसले की जुगलबन्दी में बीसेक साल पहले आया अलबम 'मेराज-ए-ग़ज़ल' मेरे सर्वप्रिय संगीत-संग्रहों में एक है.
ख़ास तौर पर नासिर काज़मी की यह उदासीभरी मीठी ग़ज़ल :
गए दिनों का सुराग़ लेकर, किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो
न अब वो यादों का चढ़ता दरिया, न फ़ुरसतों की उदास बरखा
यूं ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था, भर गया वो
वो हिज्र की रात का सितारा, वो हमनफ़स हमसुख़न हमारा
सदा रहे उसका नाम प्यारा, सुना है कल रात मर गया वो
वो रात का बेनवा मुसाफ़िर, वो तेरा शायर, वो तेरा नासिर
तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो
7 comments:
न अब वो यादों का चढ़ता दरिया, न फ़ुरसतों की उदास बरखा
यूं ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था, भर गया वो
bahut sundar...pahali baar suni ye gazal
बहुत सुंदर गज़ल है भाई. सुनाते रहिए आगे भी.
बहुत सुंदर गज़ल है भाई. सुनाते रहिए आगे भी.
मेराज ए ग़ज़ल अपना पसंदीदा अलबम है ।
रेडियोवाणी पर भी इस एलबम से कुछ च्ढ़ाया गया है
मज़ा आ गया भाई ।
बेह्तरीन एलबम,बेहतरीन आवाज़ें जितनी बार सुना जाये /उतना ही लुत्फ़--dhanyavaad
फै़ज़ की रचना में नुक्ते का प्रयोग करें तो अच्छा लगेगा। अवगाहन को अवगहन लिखें, तो और अच्छा।
एक शेर छूट गया है:
बस एक मोती-सी छब दिखाकर, बस एक मीठी-सी धुन सुनाकर,
सितारा-ऐ-शाम बन के आया, बरंग-ऐ-ख्वाबे-सहर गया वो.
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