Friday, May 2, 2008

हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं


बल्गारिया में एक फ़ैक्ट्री के मज़दूरों के समक्ष काव्यपाठ करते नाज़िम हिकमत

नाज़िम हिकमत की ९-१० रात्रि की कविताएं श्रृंखला आप पढ़ चुके हैं। आज पढ़िये तुर्की के इस महान कवि की एक बड़ी कविता 'जीने के बारे में'। १९४८ में यह कविता लिखते समय भी नाज़िम जेल में थे.

जीने के बारे में

एक

जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको जीना चाहिये बड़ी संजीदगी के साथ
मसलन किसी गिलहरी की तरह -
मेरा मतलब है जीवन से सुदूर और ऊपर की किसी
चीज़ की तलाश किये बग़ैर,
मेरा मतलब है ज़िन्दा रहना आपका मुकम्मिल काम होना चाहिये.
जीना कोई हंसी खेल नहीं
आपको इसे गंभीरता से लेना चाहिये,
ऐसी और इस हद तक
कि, मिसाल के तौर पर, आपके हाथ बंधे आपकी पीठ पर,
आपकी पीठ दीवाल पर,
या फिर किसी प्रयोगशाला में
अपने सफ़ेद कोट और हिफ़ाज़ती चश्मों में
आप मर सकें लोगों के लिये -
उन लोगों तक के लिये जिनके चेहरे भी आपने कभी नहीं देखे,
गो कि जानते हैं आप
कि जीवन सबसे ज़्यादा वास्तविक, सबसे सुन्दर चीज़ है.
मेरा मतलब है, आपको इतनी संजीदगी से लेना चाहिये जीवन को
कि, उदाहरण के लिये, सत्तर की उम्र में भी आप रोपें जैतून का पौधा -
और यह नहीं कि अपने बच्चों के लिये, बल्कि इसलिये कि
हालांकि आप मृत्यु से डरते हैं
पर उस पर विश्वास नहीं करते
क्योंकि जीवन, मेरा मतलब है, ज़्यादा वज़नदार चीज़ है.

दो

मान लीजिये हम बहुत बीमार हैं - ऑपरेशन की ज़रूरत है -
जिसका मतलब है कि हो सकता है हम उठ भी न सकें
उस सफ़ेद मेज़ से
गो कि यह असंभव है अफ़सोस महसूस न करना
थोड़ा जल्दी चले जाने के बारे में
हम फिर भी हंसेंगे चुटकुले सुनते हुए,
हम देखेंगे खिड़की के बाहर कि बारिश तो नहीं हो रही,
या चिन्ताकुल प्रतीक्षा करेंगे
ताज़ा समाचार प्रसारण की ...
मान लीजिये हम मोर्चे पर हैं -
लड़ने लायक किसी चीज़ के लिये.
वहां पहले ही हमले में, उसी दिन
हम औंधे गिर सकते हैं मुंह के बल, मुर्दा.
हम जानते होंगे इसे एक अजीब गुस्से के साथ,
फिर भी हम सोचते - सोचते हलकान कर लेंगे ख़ुद को
उस युद्ध के नतीज़े की बाबत जो बरसों चल सकता है.
मान लीजिये हम जेल में हैं
और पचास की उम्र की लपेट में,
और लगाइये कि अभी अठ्ठारह बरस बाक़ी हैं
लौह फ़ाटकों के खुलने में.
हम फिर भी जियेंगे बाहर की दुनिया के साथ,
इसके लोगों, पशुओं, संघर्षों और हवा के -
मेरा मतलब कि दीवारों के पार की दुनिया के साथ
मेरा मतलब, कैसे भी कहीं भी हों हम
हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.

तीन

यह धरती ठण्डी हो जायेगी एक दिन
सितारों में एक सितारा
ऊपर से सबसे नन्हा
नीले मख़मल पर एक सुनहली ज़र्रा -
मेरा मतलब है - यही -हमारी महान पृथ्वी
यह पृथ्वी ठण्डी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ़ की सिल्ली की तरह नहीं
मुर्दा बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोखले अखरोट की तरह यह लुढ़कती होगी,
घनघोर काले शून्य में ...
अभी इसी वक़्त आपको इसका दुःख मनाना चाहिये
-अभी, इसी वक़्त ज़रूरी है आपके लिये
यह अफ़सोस महसूस करना -
क्योंकि दुनिया को इतना ही प्यार करना ज़रूरी है
अगर आपको कहना है "मैं जिया".

सारे अनुवाद: वीरेन डंगवाल (१९९४), 'पहल' पुस्तिका से साभार.

नाज़िम की कुछ कविताएं यहां भी देखें :

http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_4781.html

http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_28.html

http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_27.html

4 comments:

अजित वडनेरकर said...

नाज़िम हिकमत ज़िंदाबाद

Third Eye said...

अशोक पांडे जी,
पता नहीं आपको इस बात का एहसास है या नहीं कि साइबर स्पेस में आप एक ऐसा खजाना जमा करते जा रहे हैं जो आज से अड़तीस करोड़ प्रकाश वर्ष बाद हमारे समय के बारे में सच बयान करेगा. तब किसी न किसी आकाशगंगा में कहीं एक तारा टिमटिमाया करेगा जो हमें बताएगा कि हम जिए.

siddheshwar singh said...

नाज़िम हिकमत ज़िंदाबाद
अशोक पांडे जी की जय हो

Ek ziddi dhun said...

सिद्धेश्वरजी बाबा की जय भी तो बोलिये वीरेन डंगवाल की। इसे बार-बार तलाशकर पढ़ना पड़ता है। कबाड़खाने की जया।