Monday, June 23, 2008

ज़ुल्फ़ बिखरा के निकले वो घर से

अपने अलबम 'गुलदस्ता' से पहली बार आम श्रोताओं का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने वाले अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन भाइयों ने १९५९ में कुल पांच रुपये के मेहनताने पर आकाशवाणी, जयपुर से अपने कैरियर का आग़ाज़ किया था. उस्ताद अफ़ज़ल हुसैन के इन दो सुयोग्य पुत्रों ने लगातार अपना रियाज़ जारी रखने के साथ साथ अपने संगीत में नये-नये प्रयोग भी किये हैं.

शुरू में अपनी ग़ज़लों के बहुत सीमित संख्याओं वाले अलबम रिलीज़ किये उन्होंने. इधर के क़रीब दो दशकों में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ लगातार ऊपर चढ़ता गया है. वे अब तक करीब साठ ग़ज़ल संग्रह दे चुके हैं.

इन्हीं बन्धुओं की आवाज़ों में पेश है उनके अलबम 'राहत' से बेकल उत्साही की एक ग़ज़ल.

रफ़ीकों और उस्तादों का मानना है कि बरसातों का मौसम इसे सुनने का सबसे उपयुक्त समय है:

6 comments:

siddheshwar singh said...

जय हो बाबू जी की.बनी रहे दुकान!

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

अशोक भाई, आपने क्या उम्दा चीज़ सुनवाई है! मज़ा आ गया. अभी कोई आठ दस दिन पहले हुसैन बन्धुओं ने उनके अपने शहर जयपुर में एक महफिल सजाई थी. तब मुझे लगा कि वे जितने अच्छे कलाकार हैं उतने ही अच्छे इंसान भी हैं. लोग फरमाइश करते गये और वे गाते रहे. कोई नखरा नहीं, कोई महानता का बोझ नहीं. मैं सुन उन्हें रहा था और याद अपने ही समय के एक मशहूर गज़ल गायक के नखरों और अहंकार को कर रहा था. वे मुझे कभी भी श्रोताओं के प्रति शालेन नहीं लगे. नाम उनका बडा है, लेकिन गाते हैं तोप लगता है जैसे घास काट रहे हैं. हुसैन बन्धुओं को सुना तो लगा जैसे वे डूब कर, पूरे मन से गा रहे हैं. आपकी टिप्पणी के बहने यह सब याद आ गया.

शिरीष कुमार मौर्य said...

बढ़िया ! नैनीताली बरसात में तो और भी मौजूं !

Tarun said...

ye dono bhai mere fav. me se hain, is albun ki sabhi gazal bahut bariya hain, yugal awaj hone se (dono ke gaane se) ek alag hi maja aata hai.

Dhanyvaad dajyu

Neeraj Rohilla said...

बहुत खूब अशोकजी, शायद इसी को सुनकर बरसात हो जाये हमारे शहर में :-)

अहमद हुसैन भाईयों को इससे पहले कभी नहीं सुना, अब इनके बारे में और खोजबीन करते हैं ।

बहुत आभार,

कंचन सिंह चौहान said...

gana ham nahisun paye hai..lekin hame inke geet achchhe bahut lagte hai