Sunday, July 13, 2008

असद ज़ैदी के बहाने दो बातें और

बात सन अस्सी के दशक के आखिरी सालों की है. कॉलेज-कैंटीन में साहित्य-कला वगैरह पर बातें-बहसें करना नया शौक़ बना था. 'हंस' दुबारा छपनी शुरू हुई थी और उन शुरुआती सालों के 'हंस' के अंक वाक़ई संग्रहणीय हुआ करते थे. 'पहल', 'अलाव', 'संदर्श', 'परिवेश' और जाने कौन कौन सी पत्रिकाओं ने नैनीताल में डाक से आना शुरू कर दिया था.

शायद 'हंस' में ही छपी थी 'दुर्गा टॉकीज़' शीर्षक कविता. सही-सही याद नहीं पड़ता. मैं एकदम से सन्न रह गया था उसे पढ़कर. 'यानी कविता में यह सब भी किया जा सकता है!' - यह मेरी पहली प्रतिक्रिया थी उसके बाद.

बचपन की आदत है - जो पसन्द आए उसे चाहे जैसे भी हो, पूरी तरह खोजना. किसी फ़रिश्ते की तरह तब जीवन में वीरेन डंगवाल जी का आना हुआ. उन्होंने मुझे असद ज़ैदी की किताब 'बहनें और अन्य कविताएं' की प्रति कहीं से लाकर दी.

कविता-पोस्टर बनाने का चस्का लगा था सन १९९० के आसपास. हज़ारों पोस्टर बनाए. शायद असद जी की हर कविता का पोस्टर कम से कम एक बार तो बनाया ही होगा.

बहुत सालों तक यही एक संग्रह मेरे पास था. मालूम करने पर पता चलता था कि ज़ैदी साहब ने और कोई किताब अभी नहीं छपाई है.

इस साल के पुस्तक मेले में जो पहली किताब मैंने ख़रीदी वह थी 'सामान की तलाश'. असद ज़ैदी का यह संग्रह आने वाले समय में अपनी साहसपूर्ण अभिव्यक्ति, विषयों की विविधता और नई काव्य-भाषा के लिए मील का पत्थर बनने वाला है. २९ मार्च और २६ जून इस संग्रह से दो कविताएं कबाड़ख़ाना आपके सामने रख ही चुका है.

कल एक ब्लॉग पर असद जी की कविताओं के साथ जो कुछ सुलूक हुआ उस से मेरा दिल बेतरह क्षुब्ध है.

असद ज़ैदी अगर साम्प्रदायिक कवि हैं तो हज़रत बाबा अमीर ख़ुसरो, कबीरदास, तुलसीदास, निराला, बुल्लेशाह, मुक्तिबोध, वीरेन डंगवाल, विष्णु खरे, रघुवीर सहाय, नागार्जुन ... सारे के सारे परम साम्प्रदायिक कवि हैं.

असद जी का दोष उनके नाम में है. मुसलिये हैं ना! कटुए हैं! पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते?

असद जी की कविताओं पर कीचड़ फेंकने वाले महानुभावों की मृत संवेदनाओं की स्मृति में दो मिनट का मौन और दो ही कविताएं अपने इस प्रिय कवि की:


सुबह की दुआ

जीवित रहे मेरी रज़ाई जिसने मुझे पाला है
जीवित रहे सुबह जो मेरी ख़ुशी है

और रहें फिर संसार में वे जिन्हें रहना है.

मौखिक इतिहास

कुछ होना था सत्तर के दशक में जो नहीं हुआ
अस्सी के दशक में चलने लगीं उल्टी - सीधी हवाएं
और नब्बे के दशक में जो नहीं होना था हो ही गया

इस तरह सदी के ख़त्म होने से पहले ही
रुख़सत हो चली एक पूरी सदी

अब यह सब अध्ययन की वस्तु है

और चूंकि हम बीसवीं सदी के कुछ प्रतिनिधि नमूने हैं
तो गैलैक्सी चैनल की मौखिक इतिहास परियोजना के तहत
एक प्रश्नावली और एक माइक लेकर आ रहे हैं
इक्कीसवीं सदी के ये शोधकर्ता जिन्हें
इक्कीसवीं का अलिफ़ और सदी का ये पता नहीं

ये हमसे क्या पूछ सकेंगे
इन्हें हम क्या समझा सकेंगे!

सिवा इसके कि मैं साफ़ हज़ामत बनाकर
ज़रा तनकर कुर्सी पर बैठूं
और मेरी बीवी भी इस मौक़े पर
बालों में कंघी कर ले.

('दुर्गा टॉकीज़' बहुत जल्दी पढ़िये इसी ब्लॉग पर.)

असद ज़ैदी को कबाड़ख़ाने पर यहां भी पढ़ें:

१८५७: सामान की तलाश
जो देखा नहीं जाता

12 comments:

अनुनाद सिंह said...
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Avinash Das said...

अब अनुनाद सिंह जैसे मानसिक विकलांग लोगों के कमेंट की वजह से क्‍या आप अपनी पूरी पोस्‍ट हटा देंगे अशोक जी? क्‍या उनके कमेंट की वजह से असद सांप्रदायिक हो जाएंगे? ऐसे हमलों का हम क्‍या करें? हमने साफ़ मन से दोनों तरह के विचार, जो अख़बारों में प्रकाशित हुए, उन्‍हें रखते हुए, उनकी उन कविताओं को शाया कीं, जिनके बहाने उन पर निशाना बनाया जा रहा है। अब आप आदेश दें, मैं क्‍या करूं?

Prabhakar Pandey said...

सुंदर रचना। सादर पठनीय। साधुवाद।

अनुनाद सिंह said...

अशोक जी, मेरी भी एक सलाह है। आप पोस्ट लिखने के बाद अविनाश को तुरन्त सूचना दे दिया कीजिये। वह पहली ही टिप्पणी में लिख देगा कि इस पोस्ट पर सबको क्या टिप्पणी करनी है। इससे लोगों का समय बचेगा; समुचित टिप्पणी लिखने के लिये लोगों को दिमाग पर जोर नहीं लगाना पड़ेगा; और सबसे बड़ी बात है कि 'धर्मनिरपेक्षता' हर कीमत पर बनी रहेगी।

नीरज गोस्वामी said...

ऐसी विलक्षण रचनाओं के रचियेता पर आरोप लगाना समझदारी पूर्ण काम नहीं है...ऐसा नहीं होना चाहिए...वैचारिक स्वतंत्रता की बात समझ में आती है लेकिन किसी पर सीधे सीधे इल्जाम लगाना सही नहीं
नीरज

अजित वडनेरकर said...

अद्भुत,विलक्षण कविताएं हैं।
आरोप वारोप पर तो कुछ नहीं कहना है। ये विषय कुछ कहने लायक नहीं होते ।
अफ़सोस यही है कि ज़ैदी साहब की कविताएं कभी समग्रता में नहीं पढ़ सका । अशोकजी, ये जिम्मा आपका कि आप हमें खजाने तक पहुंचा दें।
शुक्रिया एक बार फिर कविताओं के लिए ।
अच्छी पोस्ट ।

अजित वडनेरकर said...
This comment has been removed by the author.
विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अशोक भाई, बात कविता, धर्मनिरपेक्षता या भारत और उसकी संस्कृति की है ही नहीं. असद जैदी जैसे बड़े कवि को किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है. मर्ज कुछ और है.
दरअसल मानव देह के हत्यारे मानव के सद्विचार की हत्या का बीड़ा उठाये हुए हैं. 'किसी को मुंह न खोलने दो'- सूत्र वाक्य है इनका. कविता से क्या लेना-देना? ये लोग किसी सार्वजनिक बहस मंच पर जाते हैं तो किसी को बोलने का मौका नहीं देते, और ख़ुद क्या बोलते हैं, यह पूरा देश जानता है. इनके मुंह खोलते ही नफ़रत झरती है.

असद जैदी ने अपनी बात कविता में कही है, उसे समझने के लिए संवेदना चाहिए. लेकिन जो लोग धर्म, जाति, उपनाम पढ़कर ही उबकाई लेते हों उनसे हम क्या उम्मीद करें? ब्लॉग में तो फौरी इलाज यह है कि moderator सक्रिय कर लिया जाए. लेकिन समाज में कौन सा moderator काम आयेगा?

अनुनाद सिंह said...

विजयशंकर चतुर्वेदी जी,

अनजाने में आपने अपने ही पाले में गोल दाग दिया। आपकी ही बात को मैं कहना चाहता था। जैदी जैसे 'बड़े' कवि को भी यह बात समझा दीजिये कि 'तुलसीदासों' , 'बंकिमों', 'भारतेन्दुओं', 'रामचन्द्रों' आदि को किसी के सर्टिफ़िकेट की जरूरत नहीं है।

साथ में ये भी बता दीजिये कि 'विजय शंकर' ने जिसको 'सर्टिफ़िकेट' दे दिया वह फ़ाइनल है - उसके आगे किसी को कुछ कहने का अधिकार नहीं है।


हाँ, एक बात और! पहले तो मार्क्सवाद संवेदना को एक सिरे से खारिज करता था। उसका कहना था कि तर्क ही सब कुछ है। क्या अब तर्क के प्रहार से बचने के लिये 'संवेदना' के ढ़ाल का सहारा लिया जा रहा है?

जाति और धर्म के बारे में एक बात मैं नोट करता हूँ कि जाति और धर्म के विवाद जितना कम्युनिस्ट कठमुल्ले करते हैं, दूसरा उसका शतांश भी नहीं कर सकता। इस मामले में भारतीय कम्युनिस्ट सबसे प्रतिगामी जमात है।

anurag vats said...

bhrhaal, wyast tha...baat nhin ho paai...asadji ki kavitaon pr khada hua witanda kaisa hai yh aap-hm samajh sakte hain...kl sham unse main phli baar mila...vyomesh ko puraskrit krne ke awsar pr...whin kavi-lekhkon huzoom bhi tha...un sabke beech asad ki aur unki kavita ki kadr jaankar mn ka malaal jata rha...ashokji, main maanta hun ki achhi rachnaon ke samne oche log aapse-aap khul jate hain...asadji kuch khinn zaroor the phir bhi unhone wade ke mutabik sabad ko na sirf apni nai kavitayen bhej rhe hain, blki mere baalhatth pr waktawy bhi likhna sweekaar liya hai...

Satish Saxena said...

कम से कम साहित्य तथा प्रकाशन क्षेत्र में कार्य करने बाले लोगों में, संकीर्ण विचारधारा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए ! मुझे आश्चर्य है की जब प्रतिष्ठित विद्वान् भी असंयत भाषा का उपयोग करने लगते हैं ! यह कौन सी विद्वता है और हम क्या दे रहे हैं, अपने पढने वालों को ?
अगर हम सब मिलकर अपनी रचनाओं में १० % स्थान भी अगर, सर्व धर्म सद्भाव पर लिखें , तो इस देश में हमारे मुस्लिम भाई कभी अपने आपको हमसे कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे, और हमारी पढ़ी लिखी भावी पीढी शायद हमारी इन मूर्खताओं को माफ़ कर सके ! दोनों भाइयों ने इस मिटटी में जन्म लिया, और इस देश पर दोनों का बराबर हक है !
हमें असद जैदी और इमरान सरीखे भारत पुत्रो के अपमान पर शर्मिन्दा होना चाहिए !

Priyankar said...

क्या लिखूं . आपने सब कुछ तो लिख दिया है . जो एक कवि की बेचैनी नहीं समझ सकता,वह अभागा कुछ नहीं समझ सकता . वह सिर्फ़ अभिधा की सतह पर तितली की तरह मंडरा कर रह जाएगा .