Thursday, July 17, 2008

जहां से भी देखो

साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित श्री लीलाधर जगूड़ी जी हिन्दी कविता के पाठकों के लिये कोई नया नाम नहीं हैं. कबाड़ख़ाने में आप लोग उन्हें एकाधिक बार पढ़ चुके हैं. उनकी एक बहुत छोटी, ताज़ा, अप्रकाशित कविता पढ़िये:

अपने से बाहर

घाटी में था तो
शिखर सुन्दर दिखता था
शिखर पर पहुंचा
तो बहुत सुन्दर दिख रही घाटी.

अपने से बाहर जहां से भी देखो
दूसरा ही सुन्दर दिखता है.

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इस ब्लॉग पर जगूड़ी जी की अन्य कविताओं के लिंक:

प्रेम, गिलहरी और गाय
तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर अपने अन्दर से बाहर आ जाओ
ऊंचाई है कि
नंदीग्राम और तसलीमा पर लीलाधर जगूड़ी की एक छोटी कविता

4 comments:

अंगूठा छाप said...

जैसे सामने वाले का
ब्लाग अक्सर अच्छा लगता है...




इतने बड़े कवि की इतनी छोटी (मगर सुंदर) कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद स्वीकारें!

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

छोटी सी लेकिन बहुत सुन्दर कविता , अपने से बाहर सब सुन्दर दिखता है।

Priyankar said...

आकार में छोटी किंतु संदेश और प्रभाव में बड़ी कविता .

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

point of view! chinatan!! chirantan!!!