Tuesday, July 22, 2008

नाज़िम हिकमत की आवाज़ में 'अखरोट का पेड़'

बीसवीं सदी की विश्वकविता में तुर्की के नाज़िम हिकमत कबाड़ख़ाने के नियमित पाठकों के लिए नया नाम नहीं है. वीरेन डंगवाल द्वारा किए गए उनके कई ऐतिहासिक महत्व के अनुवाद यहां प्रकाशित किये जा चुके हैं. नाज़िम की एक कविता 'अखरोट का पेड़' प्रस्तुत है पहले स्वयं नाज़िम हिकमत की आवाज़ में तुर्की भाषा में, बाद में इसका वीरेन डंगवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद. इसे जेल में लिखा गया था. अपनी दूसरी पत्नी को सम्बोधित यह कविता नाज़िम ने १९५५ में इस्ताम्बूल रेडियो के लिए रिकॉर्ड करवाई थी:



अखरोट का पेड़

मैं एक अखरोट का पेड हूँ गुल्हान पार्क में
न तुम ये बात जानती हो न पुलिस !

मैं एक अखरोट का पेड हूँ गुल्हान पार्क में
मेरी पत्तियां चपल हैं, चपल जैसे पानी में मछलियाँ
मेरी पत्तियां निखालिस हैं, निखालिस जैसे एक रेशमी रूमाल
उठा लो, पोंछो मेरी गुलाब अपनी आंखों में आंसू एक सौ हज़ार

मेरी पत्तियां मेरे हाथ हैं, मेरे हैं एक सौ हज़ार
मैं तुम्हें छूता हूँ एक सौ हज़ार हाथों से, मैं छूता हूँ इस्ताम्बुल को
मेरी पत्तियां मेरी आंखें हैं, मैं देखता हूँ अचरज से
मैं देखता हूँ तुम्हें एक सौ हज़ार आंखों से, मैं देखता हूँ इस्ताम्बुल को

एक हज़ार दिलों की तरह धड़को - धड़को मेरी पत्तियो

मैं एक अखरोट का पेड हूँ गुल्हान पार्क में
न तुम ये बात जानती हो न पुलिस !

*नाज़िम के बारे में जानने के लिए इन पोस्टों को देखें:

९-१० रात्रि की कविताएं: भाग १
जीना एक संगीन मामला है तुम्हें प्यार करने की तरह
आज नाज़िम हिकमत की स्त्री को लगना चाहिये सुन्दर - एक बाग़ी झण्डे की तरह
हमें यों जीना चाहिये जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं

5 comments:

Dr. Chandra Kumar Jain said...

हजार दिलों की मानिंद धड़कती कविता
अनगिन दिलों की बात कह रही है.
कविता में ऐसा मानवीकरण
सच दुर्लभ है.अनुवाद प्रभावशाली है.
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आभार
डा.चन्द्रकुमार जैन

मुनीश ( munish ) said...

Haal mein Gulu ji ki ek kavya dopahari attend ki . vo Nazim ke bade fan hain.

शिरीष कुमार मौर्य said...

बाप रे !
क्या अहसास !
उस आवाज को सुन पाने का जिसकी कविता के रोमांच में हम बड़े हुए !
शब्द नहीं हैं मेरे पास,
बस दिल में गूंजती ही जाती है
ये एक आवाज !

इरफ़ान said...

भाई मैंने नाज़िम हिकमत की आवाज़ पहली बार सुनी...और आह्लादित हूँ.आपकी यह पेशकश मेरे लिये यादगार बन गई है.आपका बहुत-बहुत आभार मित्र.

महेन said...

आवाज़ का तो पता नहीं मगर कविता का यह रूप? बरसों पहले शिंबोर्स्का और उससे भी पहले जर्मन सीखते हुए ब्रेख्त को पढ़कर ऐसे ही चौंका था। वीरेन जी ने बहुत ही अच्छा अनुवाद किया जान पड़ता है। जितनी कविताएं आपने पोस्ट की थीं नाज़िम की, सब पढ़ लीं। और कविताओं का इंतज़ार रहेगा।
शुभम।