Friday, July 25, 2008

अलखतै बिखौती मेरि दुर्गा हरै गे: कुमाऊंनी लोकगीत गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज़ में

उत्तराखंड के अल्मोड़ा ज़िले के छोटे से गांव चांदीकोट में जन्मे गोपाल बाबू गोस्वामी का परिवार बेहद गरीब था. बचपन से ही गाने के शौकीन गोपाल बाबू के घरवालों को उनकी यह आदत पसंद नहीं था क्योंकि रोटी ज़्यादा बड़ा मसला था. घरेलू नौकर के रूप में अपना करियर शुरू करने के बाद गोपाल बाबू ने ट्रक ड्राइवरी की. उसके बाद कई तरह के धंधे करने के बाद उन्हें जादू का तमाशा दिखाने का काम रास आ गया. पहाड़ के दूरस्थ गांवों में लगने वाले कौतिक - मेलों में इस तरह के जादू तमाशे दिखाते वक्त गोपाल बाबू गीत गाकर ग्राहकों को रिझाया करते थे.

एक बार अल्मोड़ा के विख्यात नन्दादेवी मेले में इसी तरह का करतब दिखा रहे गोपाल बाबू पर कुमाऊंनी संगीत के पारखी स्व. ब्रजेन्द्रलाल साह की नज़र पड़ी और उन्होंने नैनीताल में रहने वाले अपने शिष्य (अब प्रख्यात लोकगायक) गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' के पास भेजा कि इस लड़के को 'देख लें'. गिर्दा बताते हैं कि ऊंची पिच में गाने वाले गोपाल बाबू की आवाज़ की मिठास उन्हें पसंद आई और उनकी संस्तुति पर सांग एंड ड्रामा डिवीज़न की नैनीताल शाखा में बड़े पद पर कार्यरत ब्रजेन्द्रलाल साह जी ने गोपाल बाबू को बतौर कलाकार सरकारी नौकरी पर रख लिया.

यहां से शुरू हुआ गोपाल बाबू की प्रसिद्धि का सफ़र जो ब्रेन ट्यूमर से हुई उनकी आकस्मिक मौत तक उन्हें कुमाऊं का लोकप्रिय गायक बना गया था. जनवरी के महीने में हल्द्वानी में होने वाले उत्तरायणी मेले में निकलने वाले जुलूस में मैने खुद हज़ारों की भीड़ को उनके पीछे पीछे उनके सुर में सुर मिलाते देखा है. बांसुरी और हुड़के की मीठी जुगलबन्दी पर गोपालबाबू के गाए "कैले बाजै मुरूली", "घुरु घुरु उज्याव है गो", "घुघूती ना बासा" और "रुपसा रमोती" जैसे गाने आज भी खूब चाव से सुने जाते हैं और कुछेक के तो अब रीमिक्स तक निकलने लगे हैं. यहां इस बात को जोड़ना अप्रासंगिक नहीं होगा कि गोपाल बाबू कुमाऊंनी लोकसंगीत के पहले सुपरस्टार का दर्ज़ा रखते हैं.

आज प्रस्तुत है गोपाल बाबू का गाया एक लोकप्रिय कुमाऊंनी गीत: "अलबेरै बिखौती मेरि दुर्गा हरै गे". द्वाराहाट में लगने वाले बिखौती मेले में एक आदमी अपनी पत्नी के अचानक कहीं गुम हो जाने पर किस किस तरह की परेशानियों से रू-ब-रू होता है, उसी का वर्णन इस गीत में है. गीत शुरू करने से पहले गोपाल बाबू गीत की कथावस्तु का थोड़ा बहुत खुलासा करते ही हैं:



(शुरू के पांच-सात सेकेन्ड ऑडियो शायद कुछ न बोले. उस के लिए क्षमायाचना. गोपाल बाबू के परिचय के लिए इरफ़ान की टूटी बिखरी का आभार.)

5 comments:

कामोद Kaamod said...

वाह जी वाह, पुरानी यादें ताज़ा कर दी..
बड़िया जानकारी..

शोभा said...

अति सुन्दर लिखा है।

Geet Chaturvedi said...

वाह अशोक जी, गोपाल बाबू के पुराने प्रशंसक हैं अपन. मज़ा आ गया. 'आम की डारी मां घुघूती न बासा', 'कैले बाजै मुरली' और उनकी आवाज़ में 'बेड़ू पाको' तो अद्भुत हैं. अगर आपके पास 'स्‍वर्गतारा' हो, तो ज़रूर सुनाइए. न हो, तो कहीं से कबाड़ लाइए.

Unknown said...

bhai geet to main jaroo sunoonga, halanki mujhe kumaoni nahin aati. lekin is kam ke liye apko dhanyavad main pahle hi de dena chahta hun.
haldwani ki ek gali mein rahte huye kabhi kabhar itne surile gane aur bhajan mujhe sunne ko mile hain ki mujhe lagta hain ki koyi camera sampann aur shaur vala admi kyon inlogon ko phalak par lane ka kam nahin karta.
hamare shahar ke aur bhi log hain jinke dum par shahar chalta hai lekin unki khabren akhbaron aur sahitya mein dekhne ko nahin milti hain. vaise bhi jab globalisation ke daur mein uupar ke samaj aur lok donon jagah punji kabja kar chuki ho, virodh par bhi kundli mar chuki ho, is tarah ka prayas aur log to shayad hi kar sakenge. akademik kursiyon ke sahare khade janta ke sahityakaron aur rangkarmiyon, budhdhijiviyon ke liye to yeh aur bhi mushkil hai.
vipin

siddheshwar singh said...

बहुत बढ़िया बाबूजी!