Thursday, July 24, 2008

अदम गोंडवी की ग़ज़लें



हिंदी ग़ज़ल की सबसे शुरूआती बानगी कबीर के `हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या´ में मिलती है। आधुनिक काल में यह निराला से शुरू होकर त्रिलोचन, शमशेर और दुष्यंत तक आती है। इसके बाद आते हैं ग़ज़ल को एक बिलकुल नया जनवादी मुहावरा देने वाले अदम गोंडवी, हालांकि बरसों से वे खामोश हैं, पर याद बहुत आते हैं। कोई बीस साल पहले उनका संकलन सुरेश सलिल जी ने `धरती की सतह पर´ नाम से छापा था, जिसमें `चमारों की गली´ शीर्षक प्रसिद्ध नज़्म और मंगलेश डबराल की लिखी महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह संकलन अब अप्राप्य है। ये दो ग़ज़लें और अदम जी की तस्वीर उत्तराखंड की पत्रिका `मेजर टर्निंग प्वाइंट´ से साभार

एक

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

दो

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

8 comments:

siddheshwar singh said...

प्यारे भाई,
अदम गोंडवी की दो गज़लें और उनका परिचय आपने प्रस्तुत किया .बहुत अच्छा.मुझे लगता है ब्लाग्स पर उनके बारे में जरूर लिखा जाय जिन्होंने 'कविताई' के जरिए हमें रोशनी दी है.अदम गोंडवी के साहित्य के बारे में क्या कहा जाय! रोशनी से भरपूर!

अदम जी के साहित्य से मेरा पहला परिचय 'कथादेश' (पुराना वाला 'कथादेश')के माधयम से हुआ था जिसमें ग्राम-पोस्ट:आटा परसपुर, जिला गोंडा(उ.प्र.) के रामनाथ सिह 'अदम' और अम्रिता प्रीतम की बातचीत छपी थी. एक बार मासिक पत्रिका'गंगा'में कमलेश्वर जी ने संपादकीय पेज पर उनकी चार -पांच गजले प्रकाशित कर लिखा था कि ये गज़लें ही इस अंक का संपादकीय हैं.अदम जी का एक संग्रह और आया था-'गर्म रोटी की महक' जो मनकापुर गोंडा के किसी प्रकाशक ने छापा था और २००१ में उसकी समीक्षा 'इंडिया टुडे' में यह मालवीय ने लिखी थी.'चमारों की गली' नज़्म आपके पास है क्या भाई? उसकी कुछ पंक्तियां याद आ रही है-

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी,
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी.

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा,
मैं इसे कहता हूं सरजू पार की मोनालिसा.

बहुत बढ़िया पोस्ट शिरीष! बल्ले-बल्ले!

महेन said...

शिरिष भाई,
अदम जी को पढ़ने का ज़्यादा सौभाग्य नहीं मिला। ग़ज़ल का यह रूप बेहद सार्थक है। अब यह भी बताएँ कि इनको और कहाँ पढ़ा जा सकता है, नहीं तो कुछ और पोस्ट हो जाए अदम जी पर।
शुभम।

Udan Tashtari said...

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

--अदम जी का परिचय और ग़ज़ल पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

शिरीष कुमार मौर्य said...

जवाहिर चा और दोस्तो ! धरती की सतह पर - मेरे पिता के पास है,जो अब म0प्र0 में रहते हैं और मैंने उन्हें अनुरोध किया है कि डाक से मुझे एक प्रति भेज दें। मिलते ही अदम की जी बाकी कविताएं आपको कबाड़खाने पर दिखाई देंगी।

बालकिशन said...

बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे पसंदीदा शायर की गजले पेश करने के लिए.

Ek ziddi dhun said...

le mashalen chal pade hain...

मयंक said...

आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

मेरे पास ये पूरी नज़्म है.....कभी मौका मिला तो पढ़वाऊंगा

गिरिजेश.. said...

इलाहाबाद में सांस्कृतिक गतिविधियों के बीच हमने अदम साहब की नज़्म - चमारों की गली- का नाट्य रूपांतरण और मंचन किया था। नाटक का नाम था सरजूपार की मोनालिसा। निर्देशक थे भाई अभिषेक पांडेय जो फिलहाल मुंबई में यशराज फिल्म्स से जुड़े हैं। मैंने इस नाटक में संगीत दिया था। हमारे प्रिय मित्र शिवेंद्र सिंह इस नज़्म के इतने दीवाने हैं कि सरजूपार की मोनालिसा नाम से ब्लॉग बना लिया है। वहां ये पूरी कविता पड़ी है।
लिंक दे रहा हूं-

http://sarjuparkimonalisa.blogspot.com/2008/09/blog-post_19.html


http://sarjuparkimonalisa.blogspot.com/2008/09/10.html

- गिरिजेश.