Saturday, August 2, 2008
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा
नज़ीर अकबराबादी साहब (१७४०-१८३०) उर्दू में नज़्म लिखने वाले पहले कवि माने जाते हैं. समाज की हर छोटी-बड़ी ख़ूबी नज़ीर साहब के यहां कविता में तब्दील हो गई. पूरी एक पीढ़ी के तथाकथित साहित्यालोचकों ने नज़ीर साहब को आम जनता की शायरी करने के कारण उपेक्षित किया - ककड़ी, जलेबी और तिल के लड्डू जैसी तुच्छ वस्तुओं पर लिखी गई कविताओं को ये सज्जन कविता मानने से इन्कार करते रहे. वे उनमें सब्लाइम एलीमेन्ट जैसी कोई चीज़ तलाशते रहे जबकि यह मौला शख़्स सब्लिमिटी की सारी हदें कब की पार चुका था. बाद में नज़ीर साहब के जीनियस को पहचाना गया और आज वे उर्दू साहित्य के शिखर पर विराजमान चन्द नामों के साथ बाइज़्ज़त गिने जाते हैं.
जीवन भर नज़ीर आगरे के ताजगंज मोहल्ले में रहे 'लल्लू जगधर का मेला' की टेक में वे कहते भी हैं: "टुक देख रोशनी को अब ताजगंज अन्दर". तमाम मेलों, त्यौहारों, सब्ज़ियों, जीवन-दर्शन, प्रार्थनाओं, पशु-पक्षियों, देवी-देवताओं पर लिखी नज़ीर अकबराबादी की लम्बी नज़्में एक महात्मा कवि से हमारा परिचय कराती हैं - उनके यहां कृष्ण कन्हैया और गणेश जी की स्तुति होती है तो बाबा नानक और हज़रत सलीम चिश्ती की भी, होली, दीवाली, ईद और राखी पर उनकी कलम चली है. "सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा" जैसी महान सूफ़ियाना पंक्तियों से उनका सूफ़ी साहित्य बेहद समृद्ध है.
नज़ीर साहब ने आस पास पाए जाने वाले कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों पर कई अविस्मरणीय रचनाएं की हैं. मुझे तो इस कोटि की उनकी रचनाएं पढ़कर लगातार ऐसा लगता रहा है कि लोग अब जाकर 'बर्डवॉचिंग' को एक गम्भीर विषय मानने लगे हैं जबकि आज से क़रीब तीन सौ साल पहले जो काम नज़ीर साहब कर गए हैं, उस के आगे बड़े-बड़े सालिम अली पानी भरते नज़र आते हैं. मेरी बात का यक़ीन न हो तो उनकी रचनाओं में आने वाले बेशुमार कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और फूलों के नामों की सूची भर बना के देखिये.
नज़ीर साहब पर कुछ भी अधिक लिख पाने की मेरी औकात नहीं है. स्कूल के दिनों से डायरी में हर साल दर्ज़ होने वाली यह अद्भुत रचना आप के सामने प्रस्तुत करते हुए मेरा मन इस उस्ताद शायर के प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ है:
कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा
था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा
था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर
कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा
झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल
मुक़्क़ीश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा
एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें
एक तरफ़ को थीं, पीरओ-जवानों की कतारें
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा
कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर
हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है क़लन्दर
हां छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगले के अन्दर
जिस दिन से ख़ुदा ने ये दिया, रीछ का बच्चा"
मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया
जो सबकी निगाहों में खुबा रीछ का बच्चा
फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"
हर चार तरफ़ सेती कहीं पीरो जवां "वाह"
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा
इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"
जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा
जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा
यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"
कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"
यह सहर किया तुमने तो नागाह "अहा हा"
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछ का बच्चा
जिस दिन से नज़ीर अपने तो दिलशाद यही हैं
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं
सब कहते हैं वह साहिब-ए-ईजाद यही हैं
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा
(नीचे लगी तस्वीर में नज़ीर साहब की कब्र अपने सफ़ेद रंग और आकार के कारण अलग पहचानी जा सकती है. पिछले साल आगरा भ्रमण के दौरान हम कुछ मित्र खोजते-बीनते ताजगंज पहुंचे थे. उसी मित्र मंडली में एक कार्ल होफ़बावर ने मेरे लिए यह तस्वीर खींची थी.)
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नज़ीर अकबराबादी
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10 comments:
मित्र,
आज की सुबह मेरे लिए बेहद कीमती बन पड़ी है.नज़ीर अकबराबादी और उनकी मजार के दर्शन जो गये.
सलाम!!
बहुत बढ़िया. उत्तम पोस्ट अशोक भाई.
"मियां वाह मियां"
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा
nazir ko maine m.a.men padha tha aur sab thaat pada rh jayega pr to mugdh tha.ab yh.is trah ki chijen barabar den.
this has been my all time favourite poem ashok bhai and i have read it aloud many times while sitting alone, but u r the first person in my circle who has appreciated this gem of a poem.
Lets go to some jungle to catch a glimpse of a real Reech ka bachcha 'cos Menka jiji has almost made the poor Reechwala unemployed or lets have a drive on Dilli-Muttra-Agraw road where some dhaba owners still patronise the poor reechwala ,though clandestinely! Hail reech ka bachcha and reechwala!
वाह !
बहुत खूब है कबाड़खाने का बायस्कोप
कभी सूअर तो कभी रीछ का बच्चा !
किसे नहीं भायेगी
नज़ीर की ये दुनिया
खोल के ढक्कन , गड़ाए आंख
देखा करे हैं हम
और सुना करे हैं अशोक पांडे की कमेंटरी
वाह जी वाह,
अल्लाह से नियाज़ है ये हाथ जोड़कर
चलती रहे इनकी भी खूब कलंदरी !!
खुब पढाई लंबी कविता, दिया खुब क्या गच्चा
वाह वाह नजीर भाइ वाह नजीर के रीछ का बच्चा
मन भायी--
बहुत शानदार है नज़ीर साहब का रीछ का बच्चा. धन्यवाद.
मजा आ गया भाई |
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