Thursday, August 14, 2008
कुमाऊंनी रसोई से कुछ ज़ायकेदार रहस्य
इन दिनों पहाड़ झमाझम बारिश में भीग रहे हैं। हर तरह के पेड़-पौधे अपने सबसे सुंदर हरे रंग को ओढे हुए हैं। बादल आसमान से उतर कर खिड़कियों के रास्ते घर में घुसे आ रहे हैं। आप छोटे-छोटे खिड़की-दरवाजों वाले एक पुराने लेकिन आरामदायक घर के अंदर बैठे छत की पटाल (स्लेट) पर लगातार पड़ रही बूंदों की टापुर-टुपुर का आनंद ले रहे हों तो इस भीगे-भीगे से मौसम में खाने का ख्याल आना स्वाभाविक ही है। खाने की शौकीन होने के कारण मेरे लिए अच्छा मौसम भी एक बढ़िया बहाना है कुछ खाने का या कम से कम खाने को याद करने का। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है की पहाड़ी खाना इतना विविधतापूर्ण, स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के बावजूद पहाड़ से बाहर लोकप्रिय होने में कामयाब क्यों नहीं रहा ? शायद रंगरूप और नामों का खांटी भदेस होना इसकी एक वजह रही हो।
बहरहाल, आजकल खेतों में अरबी, सेम (बीन्स), शिमला मिर्च, मूली, हरी मिर्च, बैंगन, करेला, तोरी, लौकी, कद्दू, खीरे, टमाटर, राजमा लगा हुआ है। अरबी मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है। अरबी को स्थानीय भाषा में पिनालू कहा जाता है और मुझे नहीं लगता कि पहाड़ के अलावा कहीं और इसका इतना विविधतापूर्ण इस्तेमाल होता होगा। इसका मुख्य हिस्सा जड़ यानि अरबी तो खाई ही जाती है, इसकी बिल्कुल कमसिन नन्हीं रोल में मुड़ी पत्तियों को तोड़ कर, काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें गाब या गाबा कहा जाता है। अरबी के के तनों को काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें नौल कहते हैं। नौल और गाबे की सब्ज़ियों का लुत्फ सर्दियों में उठाया जाता है जब ठंड की वजह से खेतों में सब्ज़ियां बहुत कम होती हैं। इनकी तरी वाली सब्ज़ी चावल के साथ खाई जाती है।
मूली को आमतौर पर सलाद के रूप में खाया जाता है लेकिन कुमाऊंनी खाने में (मोटी जड़ वाली मटियाले रंग की पहाड़ी मूली) यह इतनी गहरी रची-बसी है कि बरसात और जाड़ों में खाई जाने वाली लगभग सारी सब्ज़ियों चाहे वह राई या लाई की पत्तियां हों या आजकल खेत में हो रही ऊपर लिखी हुई कोई भी सब्ज़ी के साथ मिला कर पकाई जाती है। मूली के साथ इन सब्ज़ियों का मेल बहुत अजीब सा सुनाई देता है न? लेकिन यकींन मानिए खाने में ये लाजवाब होती है। दरअसल पहाड़ी मूली मैदानी इलाकों में उगने वाली सफेद, सुतवां, नाजुक सी दिखने वाली रसीली मूलियों से न केवल रंगरूप में बल्कि स्वाद में भी बिल्कुल अलग होती हैं। सिर्फ मूली को सिलबट्टे में हल्का सा कुटकुटा कर मेथीदाने से छौंक कर बना कर देखिए, इसे थचुआ मूली कहते है, न कायल हो जाएं स्वाद के तो कहिएगा। मूली को दही के साथ भी बनाया जाता है।
पहाड़ी जीवन-शैली की तरह ही यहां का खाना भी सादा और आडंबररहित होता है। यही इसकी खासियत भी है। किसी भी सब्ज़ी को किसी के साथ भी मिला कर बनाया जा सकता है, पिछले हफ्ते मैं नैनीताल गई थी, रात को उमा चाची ने मुंगौड़ी - आलू की रसेदार सब्ज़ी के साथ बीन्स, शिमला मिर्च और मूली की मिली-जुली सब्ज़ी खिलाई, आनंद आ गया। सब्ज़ियों का यह तालमेल केवल एक पहाड़ी घर में ही बनाया जा सकता है। कुछ सब्ज़ियां मेरे ख्याल से केवल पहाड़ में ही होती हैं जैसे गीठी (कहीं-कहीं इसे गेठी कहते हैं) और तीमूल। बेल में लगने वाले गीठी भूरे रंग की आलूनुमा सब्ज़ी होती है जिसे एक खास तरीके से पकाया जाता है। तीमूल को पहले राख के पानी के साथ उबाल लेते हैं और उसके बाद उसे किसी भी अन्य सब्ज़ी की तरह छौंक कर सूखी या तरीवाली सब्ज़ी बना लेते हैं, बहुत ही स्वादिष्ट बनती है। एक और सब्ज़ी होती है पहाड़ में जो खूब बनाई-खाई जाती है वो है गडेरी, मैदानी इलाकों के लोग उसे शायद कचालू के नाम से पहचानेंगे। भांग के बीजों को पीस कर उसके पानी को गडेरी के साथ पकाया जाए तो इसका स्वाद कुछ खास ही होता है।
लोकप्रिय पहाड़ी खानों में भट्ट (काला सोयाबीन) की चुड़कानी, जंबू, गन्दरायणी और धुंगार जैसे मसालों से छौंके आलू के गुटके, कापा (बेसन या चावल का आटा भून कर बनाया गया पालक का साग), दालें पीस कर बनाई गई बेड़ुआ रोटी इत्यादि शामिल हैं। पहाड़ी व्यंजनों में डुबकों का अपना खास मुकाम है। यह भट्ट, चना और गहत की दाल से बनते है, डुबके बनाने के लिए दाल को रात भर भिगा कर सुबह पीस लेना होता है और फिर इसे खास तरह का तड़का लगा कर हल्की आंच में काफी देर तक पकाया जाता है। इसके अलावा उड़द की दाल को पीस कर चैंस बनाई जाती है।
पहाड़ी खाने में चटनी की खास जगह है, चाहे वह शादी ब्याह में बनने वाली मीठी चटनी सौंठ हो या भांग के बीजों (इनमें नशा नहीं होता, गांजा भांग की पत्तियों से बनाया जाता है) को भून कर पीस कर बनाई गई चटपटी चटनी। इन दिनों पेड़ों पर दाड़िम (छोटा, खट्टा अनार) लगा हुआ है, धनिया और पुदीना के पत्तों के साथ इसकी बहुत स्वादिष्ट चटनी बनती है। पहाड़ों में बड़ा नींबू जिसे मैदानी इलाकों में गलगल भी कहा जाता है बहुतायत से होता है। सर्दियों की कुनकुनी धूप में नींबू सान कर खाना एक अद्भभुत अनुभव होता है। इसके लिए नींबू को छील कर इसकी फांकों के छोटे-छोटे टुकड़े कर लेते हैं, साथ में मूली को धो-छील कर लंबे पतले टुकड़ों में काट कर नींबू के साथ ही मिला लेते हैं। भांग के बीजों को तवे पर भून कर सिलबट्टे पर हरी मिर्च और हरी धनिया पत्ती, नमक के साथ पीस लेते हैं। अब इस पीसे हुए भांग के नमक को नींबू और मूली में मिला लेते हैं। अब एक कटोरा दही को इसमें मिला लेते हैं। स्वाद के मुताबिक थोड़ी सी चीनी अब इसमें मिला लीजिए और सब चीजों को अच्छी तरह से मिला लीजिए। इसके लाजवाब स्वाद के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं खुद जायका ले कर देखें।
इन दिनों यहां खीरे हो रहे हैं, पहाड़ में खीरे को ककड़ी कहा जाता है और यह आमतौर पर मिलने वाले खीरे से आकार में दो-तीन गुना बड़ा होता है। जब खीरे नरम होते है तो उन्हें हरे नमक यानी धनिया, हरी मिर्च और नमक के पीसे मिश्रण के साथ खाया जाता है। खीरे जब पक जाते हैं तो उनका स्वाद हल्का सा खट्टा हो जाता है अब यह बड़ियां बनाने के लिए बिल्कुल तैयार है। इसे कद्दूकस करके रात भर भिगाई गई उड़द की दाल की पीठी में हल्की सी हल्दी, हींग इत्यादि मिला कर छोटी-छोटी पकौड़ियों की शक्ल में सुखा लिया जाता है। बाद में आप इसे मनचाहे तरीके से बना सकते हैं।
मुझे खाने का शौक है और खास तौर पर पहाड़ी खाना बहुत ही ज्यादा पसंद है उसमें भी सबसे ज्यादा पसंद है रस-भात। रस दरअसल बहुत सारी खड़ी दालों से बनता है। इसके लिए पहाड़ी राजमा, सूंठ (पहाड़ में होने वाली सोयाबीन की एक किस्म), काला और सफेद भट्ट, उड़द, छोटा काला चना, गहत इत्यादि दालों को अच्छी तरह से धो कर रात में ही भिगा दिया जाता है। सुबह उसी पानी में मसाले डाल कर चूल्हे की हल्की आंच में काफी देर तक उसे पकाया जाता है जब सारी दालें पक जाती हैं तो पानी को निथार कर अलग कर लिया जाता है। दालों का यही पानी रस कहलाता है जिसे शुद्ध घी में हल्की सी हींग, जम्बू और धूंगार के पहाड़ी मसालों का तड़का लगा कर गरमा-गरम चावलों के साथ खाया जाता है।
फिलहाल इतना ही, फिर किसी और दिन करेंगे चर्चा कुछ और पहाड़ी व्यंजनों की। बाहर बारिश तेज़ हो गई है।
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17 comments:
रस-भात ज़िन्दाबाद!
बढ़िया लिखा है दीपा.
बहुत अच्छा लगा अपने मनपसन्द भोजन के बारे में इतने विस्तार से पढ़ना. आप का धन्यवाद.
ये गलत बात है हम विरोध दर्ज करा रहे है , बनाना कौन बतायेगा ? पूरी विधि बताईये ताकी हम भी इनका मजा उठा सके
हम अरुण से सहमत हैं, मेरे लिए इनमें से अधिकतर व्यंजन नए हैं (पहाड़ बहुत जाते हैं पर साथ में होते हाईजीन के मारे लोग जो स्थानीय नहीं वही पनीर उनीर में इंट्रेस्टेड होते हैं) इसलिए हर व्यंजन पर रुका जाए विस्तार से बताया जाए तथा हो सके तो हर व्यंजन की तस्वीर भी चेपी जाए।
टिप्पणियों के लिए हार्दिक धन्यवाद। दरअसल यह लेख कुमाउंनी खाने से परिचय कराने के लिए था। अब जब आप लोग दिलचस्पी दिखा रहे हैं तो निश्चित तौर पर आपको बनाने की विधि भी जरूर बताई जाएगी। लेकिन इन व्यंजनों का मजा लेने का सबसे आसान तरीका यह है कि किसी कुमांऊनी परिवार से मित्रता कर लें। पहाङी भट्ट भांग मडुआ अब भी पोटली-पुंतरी में बंध कर महानगरों में रहने वाले हमारे कुमाउंनी बंधुओं के घरों तक थोङा-बहुत तो अब भी पहुंचता ही है।
मुंह पानी पोस्ट -साभार - मनीष [- रस भात में लोहे की कढ़ाई का भी तो स्थान है - कि नहीं ?]
SAAN is something really exotic, a mindblowing experience for which i shall 4ever be thankful to Ashok bhai ! Im not a foodie by nature ,but i still long for another serving of matchless masala Saan. I have been slightly partial to Rajasthani stuff ,but i must confess Kumaon regiment packs a real power punch!
vidhi batayiye pls...vahan tak pahunchna asaan nahi...aap hum tak le aayiye--
सताओ और सताओ-एक भूखे आदमी को..!! सब कर रहे हैं आप भी करो.
muh me paani aa reha hai, sana neebu khaaye muddat beet gayi.
bhat ki churkaani ke liye humara ye link de sakti hain.
http://www.readers-cafe.net/uttaranchal/2008/01/29/pahari-cuisine-bhatt-ki-churkani/
aapne to man khus kar diya kya aapko apne blogroll me shamil kar sakti hun?
aap ka artical padha ke maja aaya lakin man main khane ki icha bhi jagi kunki pahadi khane ka swad hi kuch our hai. aap ne khane ki baat to ki ab aap use banane ki baat bhi kahe na gujarat main aisa khana kum milta hai lkin muje muli ke paretha bhut acha lag tai hai
टिप्पणियों के लिए एक बार फिर धन्यवाद। आपने कुमाऊंनी खाना बनाने की विधि तो पूछी है लेकिन मुश्किल यह है कि ज्यादातर चीजें आपको कुमाऊं से बाहर मिलेंगी ही नहीं, फिर भी मैं अगली फुरसत मिलते ही कुछ व्यंजनों की विधि जरूर लिखूंगी। जोशिम जी आपने बिल्कुल ठीक कहा है पहाङी खाने में लोहे की कढाई का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। लवली जी आपने ब्लॉगरोल में शामिल करने की बात की है तो मेरा जवाब है कि नेकी और पूछ-पूछ।
aapne ghar ki yaad dilaa di...
5 saal ho gaye hain bengaali khana khaate khaate...
abi khana khaya hai par fir se bhook lag gayi or ab khana b khatam ho gaya hai... pata nahi raat bhar neend kaise aayegi..
par aapne ek bahut jaruri cheej miss kar di bhaang ki chatni or kaddu ki chatni jo shivratri main banti hai or jisme tabiyat se bhaang daali jaati hai...
par fir bhi mujhe aaj raat neend nahi aane waali..
Deepa ji aapne to pahad ki yaad taaza kar di...wakai padadi khana bahut badiya hai..lekin aajkal ki nai peedi jo pahad se door shaharo me reh rahi hai wo to in sab vyanjan ke naam bhi nahi janati aur na hi unhe isme koi dilchaspi hai kuch time baad lagta hai ye sab vyanjan banne wale aur khane wale nahi reh jayenge.
Mujhe to bahut dukh hota hai..kyonki mujhe apne pahad aur pahad se judi har cheej se bahut pyaar hai..
aapka ye blog padkar bahut hi achha laga...
ye baat nahi hai ki pahadi khana kewal pahad tak he seemit hai.
mahangaron mein rahne wale kaee gharon mein aaj bhi inka jyaka aur sugandh rachi basi hai.aur es paarmpara ko nayee pidhi bhi bade pyar aur utsah se seekh rahi hai.
apne kewal khane ki he baat kee.meethe ka jikr karna to aap bhool hi gayeen. singal.sei,fini vagerah bhi to pahad ki aatma hain.
bahut swadisht rasbhat ji.
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