रवीन्द्र व्यास उम्दा चित्रकार हैं और इन्दौर में रहते हैं. उनकी कुछ कृतियों को आप लोग कबाड़ख़ाने में हाल ही के दिनों में देख चुके हैं. इधर उन्होंने हरा कोना नाम से अपना एक ब्लॉग भी शुरू किया है. हमारे आग्रह पर रवीन्द्र जी ने कबाड़ियों की टोली में जुड़ने हेतु सहमति दे दी, जिस के लिए हम सारे कबाड़ी उनका आभार भी व्यक्त करते हैं और ख़ैरमकदम भी.
टेलीफ़ोन पर उनसे हुई बातचीत के दौरान मुझे लगातार उनके हरे रंगों की छटाएं दूर दराज़ की यादों तक पहुंचा दे रही थीं. मैंने उनसे वायदा किया था कि मैं उनके सम्मान अपने सबसे पसन्दीदा गीतों में एक को यहां कबाड़ख़ाने पर पेश करूंगा. गाना बहुत सुना-सुनाया है लेकिन इसके बोल और रफ़ी साहब की अदायगी अद्भुत है. छोटे मुंह बड़े बोल लेकिन मुझे यह कहने की भी इच्छा हो रही है कि वरिष्ठ हिन्दी कवि आदरणीय श्री विष्णु खरे (जिनका शास्त्रीय संगीत और फ़िल्मी गीतों का अपार ज्ञान स्पृहणीय है) इस बात की तसदीक करेंगे कि उन्होंने एक बार मेरे ज़िद्दी इसरार पर यह गाना मुझे टेलीफ़ोन पर संभवतः फ़्रैंकफ़र्ट से सुनाया था.
सुनिए रवीन्द्र भाई के साथ आप सारे भी:
(*कुछ अपरिहार्य कारणों से रवीन्द्र जी का यहां परम्परागत स्वागत तनिक देर से हो पाया. उसके लिए वे क्षमा करेंगे)
4 comments:
स्वागत है रवीन्द्रभाई का.....
और ये जो गीत सुनाया अपने बोलों की वजह से तो पसंद है ही, शायद ट्रम्पेट की जबर्दस्त टेर की वजह से भी मेरे प्रिय गीतों में है।
स्वागत है .इनकी चित्रकारी की मैं तो पहले ही फेन हो चुकी हूँ ..
स्वागत है रवीन्द्र भाई का!!
अशोक दद्दा
अभी तक रवीन्द्र भाई और मेरा शहर एक था.
अब....
आपने गौत्र एक कर दिया
कबाड़ी.
भारी चाल चली दादा !
यहाँ शहर में तो नहीं मिल पाते मैं और रवीन्द्र भाई....अब यहाँ मिला करेंगे...खुशामदीद.
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