मुझे घरेलू काम से हैदराबाद जाना था रीता को लेकर. चलने से पहले फ़ोन पर मैंने मंगलेश से वेणुगोपाल का फ़ोन नम्बर मांगा. मंगलेश का एस एम एस अगले दिन मिला हैदराबाद में ही - वेनूज़ नम्बर +९१९८४९५५०४८७ और इस तरह ४ नवम्बर २००६ की देर शाम पुराने हैदराबाद के किशनबाग चौराहे पर इन्डिया होटल के सामने सड़क पार एक दुबके हुए से मन्दिर के छोटे से मुख्य द्वार पर खड़े वेणुगोपाल से मेरी वह तीसरी मुलाकात हुई. बत्तियां जल चुकी थीं. महानगर के पुराने मोहल्ले की बोसीदा बत्तियां और एक ज़माने में हिन्दी कविता को झकझोर कर विक्षिप्त अराजकता की राह से विचार, सेनिटी और मनुष्यता की तरफ़ घसीटकर लाने की जद्दोजहद करने वाले समूह का कार्यकर्ता वह कवि, अपनी बांह के नीचे बैसाखी दबाए खड़ा था. सांवले चेहरे पर वही चौड़ी-दोस्ताना मुस्कान थी और लम्बी प्रतीक्षा की खीझ.हल्की बढ़ी खूंटी सफ़ेद दाढ़ी. और लम्बे समय बाद मुलाकात की उत्कंठा. और इस सब से भी ऊपर एक बात थी उस चेहरे पर - इस समग्र तथा आसन्न दृश्यावली और संवाद की नाटकीयता से पहले से ही अभिभूत होने का एक भाव. गोया पर्दा बस खिंचा ही जाता है और देखो एक विलक्षण नाटक शुरू होने को है.
वह शाम भी जैसे बीते हुए जमाने की एक श्वेत-श्याम, बेतरतीब और दारुण फ़िल्म थी जिसकी सघनता और भाव-बहुल सांद्रता अत्यंत विचलित करने वाली थी। और फ़िल्म भी अंधेरे, अवसाद, गरीबी, प्रेम, मैत्री, हताशा, छटपटाहट, क्रोध, गीली मिट्टी-कीचड़ और मंदिर के फूलों की उस विलक्षण गंध को कहां बता सकती है। वह एक कच्चा कमरा था, शायद सातेक फ़ुट ऊंचा। दीवार से सटकर वेणुगोपाल का जांघ तक का पैर रखा था (‘पूना में बना. ज़्यादा पहनने पर दर्द होता है’- उसने बताया था।) खाट पर किताबें थीं और कुछ अलमारी में भी। और एक काई लगी सुराही थी। चालीस वाट की रोशनी में हम तीन लोग बैठे थे। मैंने उसके उन दिनों छप रहे संस्मरणों की तारीफ़ की तो वह एक दोस्त की तरह पुलकित हुआ और फिर लगातार बातें करने लगा। अपनी सतत बेरोजगारी के बारे में। अपनी बिना पूर्व चेतावनी गैंगरीन से कटी हुई टांग और उसमें बाद तक होने वाली भीषण परिकल्पित पीड़ा - ‘फ़ैन्टम पेन’ के बारे में। अपने उस पुश्तैनी हनुमान मंदिर के बारे में जहां वह पहली पत्नी और बेटी के साथ रह रहा था। दूसरी पत्नी कवयित्री वीरा और उससे हुई प्रतिभावान नर्तकी पुत्री के बारे में - जो शहर के दूसरे हिस्से में रहते थे। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र पर अपनी पीएचडी के बारे में। उन अखबारों के मूर्ख संपादकों के बारे में, जिनमें उसने रह-रहकर छिटपुट काम किया। उन दगाबाज ताकतवर लोगों के बारे में जिन्होंने योगयता के बावजूद और वायदे करके भी उसे नियमित नौकरी के लिए हिंदी विभागों में प्रवेश नहीं करने दिया। अपने मूल निवास के बारे में जो शायद महाराष्ट्र में कहीं था - कोंकण में.
बातों के बीच में एक बार उसकी सुदर्शन और शर्मीली युवा पहली बेटी दबे-पांव चाय के तीन गिलास रख गई। दरवाजे के कच्चे गलियारे के उधर, उस छोटे मंदिर के परे एक और स्त्रीमूर्ति बीच-बीच में सर झुकाए दीखती थी - कुछ न करती, या करती या बस जानबूझकर हिलती-डुलती। उस चाय में किसी अद्भुत मसाले का रहस्यमय स्वाद था जिसमें गुजरी हुई सदियां भरी थीं। बमुश्किल घंटा भर साथ रहे होंगे हम - सन ७८ के बाद पहली बार। सन अठहत्तर में वह एक दिन के लिए, कहीं से होता हुआ इलाहाबाद आया था और हम साइकिल पर डबल सवारी हांफते हुए लूकरगंज से सात किलोमीटर विश्वविद्यालय के स्टेट बैंक तक गए थे -पचास रुपये निकालने। तब हम युवा थे। हमारे फेफड़ों और दिलो-दिमाग में ज़्यादा दम था। पर इस बार का वह घंटा एक जीवनाख्यान था जिसमें सब कुछ उलट-पुलट हो चुका था। यह वेणु भी कोई और ही था। अलबत्ता एक बदहवास जिजीविषा से पूर्ववत भरा।
000
फिर वेणु हमें छोड़ने सड़क तक आया। उस्मानिया विश्वविद्यालय में आधुनिक हिंदी कविता पर शोध कर रही एक लड़की, जिसे वह अपनी छात्रा बता रहा था - को भी इस दौरान उसने बुला लिया था। उसी ने हमारे लिए औटो ठहरा दिया। हसीगुडा जहां हम रुके थे वहां से कम से कम एक घंटे की दूरी पर रहा होगा, लेकिन हम पूरे रास्ते चुप रहे। रीता जो बत्तीस बरस से मेरी पत्नी है और हर तरह की ऊंच-नीच इस बीच देख चुकी है, तो बिल्कुल हतवाक थी। हमें विदा करते हुए बैसाखी पर एक तरफ़ झुका वेणु उस अजीब से उजाले में अपनी चौड़ी मुस्कुराहट के साथ अपना हाथ हमारी तरफ़ हिला रहा था। गोया एक नाटक का वह अंतिम दृश्य था। एक सपाटे से उसी की एक कविता की स्मृति औटो के भीतर की स्तब्धता और शोर में मुझे हो आई। उसके मरने के बाद फिर मैंने तलाशा, वह कविता ठीक-ठीक यों है :
कभी
अपने नवजात पंखों को देखता हूं
कभी आकाश को
उड़ते हुए
लेकिन ऋणी
मैं फिर भी ज¸मीन का हूं
जहां तब भी था जब पंखहीन था
तब भी रहूंगा
जब पंख झर जाएंगे।
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वेणु गोपाल को पहली बार मैंने जनवरी सत्तर के पहले हफ़्ते में पटना में हुए नवलेखन सम्मेलन में देखा था, जहां मैं इलाहाबाद के रचनाकारों के साथ लटककर जा पहुंचा था। सम्मेलन के मंच पर आकर रेणु जी ने जयप्रकाश नारायण का कोई संदेश पढ़ा था जिसमें पटना के नजदीक ही बसे पुनपुन, मसौढ़ी और विक्रमगंज में उन्हीं दिनों घटित हुई नक्सली हिंसा का निषेध करते हुए शायद नए लेखकों के लिए कुछ नसीहतें भी थीं। बातें तो अब याद नहीं, बस बिना फ़्रेम के सुनहली कमानी वाले चश्मे में रेणु जी की कमनीय मोहिनी छवि, और इसी के साथ तथा समानांतर ओवरसाइज़्ड सलेटी ओवरकोट में गणमान्य लेखक समुदाय के बीच चौड़े चेहरे पर व्यंग्यगर्भी मुस्कान लिए चहलकदमी करता एक किंचित दबे कद का वह शख़्स याद है। आलोक धन्वा ने लगभग फुसफुसाते हुए अत्यन्त आदर से तब बताया था : ‘ये वेणु गोपाल है, हिंदी का सर्वश्रेष्ठ क्रांतिकारी कवि ‘साथी’। श्रीकाकुलम इलाके से आया है। विप्लवी रचयितालु संघम का मेम्बर है।’ हालांकि आलोक से भी मेरी यह पहली ही मुलाकात थी पर मैं उसकी ‘जनता का आदमी’ शीर्षक प्रख्यात कविता के कुछ अंश, रचयिता के किंचित और भी रोमांचक क्रांतिकारी परिचय के साथ इलाहाबाद में ही अजय सिंह के मुख से सुन चुका था। यानी इस पहली मुलाकात से पहले ही एक दोस्ती आलोक से बन चुकी थी। (जो आज तक कायम है।) लिहाजा वेणु गोपाल के लिए उसके इस सम्मान को देखते हुए मैंने भी भोले-भाले बच्चे की श्रद्धा के साथ मन ही मन उसे हाथ जोड़े। कविताएं तो मैंने उसकी बाद में पढ़ीं। पहले बस छिटपुट। बाजाप्ता तो ७८ और इसके बाद में ही, जब उसका पहला संग्रह ‘वे हाथ होते हैं’ संभावना प्रकाशन से आया। फिर ‘देखना भी चाहूं’ में। तभी ठीक-ठाक जान पाया कि एक विकट स्थापत्य वाला यह कवि दरअसल नरम और मुलायम मनुष्यता, उसके कठोर संघर्ष, और सजीले भविष्य का प्रगल्भ और अटूट प्रवक्ता है। वह अपनी जनता की हड्डियां चबा रहे लुटेरों के असली चरित्र की - बजरिए कविता- चमड़ी उधेड़कर सबके सामने रख देने वाला कवि है। उस दौर के किसान संघर्षों ने शहरी मध्यम वर्ग के सीनों में पीड़ित जनता के लिए जो विवेकवान सहानुभूति और जन संघर्षों के लिए जो प्रचंड क्रोध पैदा किया था, उस सबका कवि है वेणु। कभी-कभी थोड़ा लश्टम-पश्टम भी। मगर हमारी पीढ़ी के तमाम कवियों को अपनी कविता की शुरुआती राहें टटोलने और अपना वैचारिक ढांचा दुरुस्त करने-रखने में वेणु गोपाल की कविता से काफ़ी रोशनी मिली है।
वह एक साथ वैश्विक और साथ ही बेहद स्थानिक भी, कवि है जो शायद एक अच्छे कवि को होना चाहिए। ‘चट्टानों का जलगीत’ और ‘पत्थरों में गोताखोरी’ श्रृंखला की कविताएं, कुछ मुक्तिबोधी भूगोल में मनुष्य के संघर्ष का बखान करती हैं जबकि ‘प्रौक्सी’ और ‘देखना भी चाहूं’ शीर्षक लंबी कविताएं ‘स्वतंत्र ’ भारत के उस राजनीतिक पाखंड का, जिसने हर वस्तु-भाव और विचार का डुप्लीकेट तैयार कर दिया है:
देखना भी चाहूं
तो क्या देखूं
कि प्रसन्नता नहीं है प्रसन्न
उदासी नहीं है उदास
और दुख भी नहीं है दुखी
दरअसल हर छलावे को बड़ी बारीकी से देख लेता है वेणु, और फ़ौरन अकड़ जाता है। या क्षुब्ध और उदास हो जाता है। सत्तर-अस्सी के उन दशकों में, जो हिंदी कविता के भी अनन्य दशक हैं - वेणु ने, कहना चाहिए-खूब रंग जमाया।
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नवंबर २००६ में वेणु से हैदराबाद में हुई वह मुलाकात हमारी आखिरी मुलाकात थी। जल्द ही फिर मिलने का वायदा कर हम अलग हुए। बीच में यदा कदा फ़ोन पर बात हो जाती थी-उसकी वही करख़्त आवाज, जो अपनी भीषण अस्वस्थता का ऐलान भी एक विचित्र निर्लिप्तता, हंसी और नाटकीय उम्मीद से यों करती थी कि एक हौला सा उठता था : ‘अरे दोस्त देखना, मैं काफ़ी काम करूंगा। वापस आऊंगा मैं।’
और अभी दो सितंबर दो हजार आठ को सुबह मंगलेश ने फ़ोन पर बताया कि वेणु गोपाल का निधन हो गया है - विष्णु नागर का एसएमएस आया है। इस वक्त जब मैं यह लिख रहा हूं सितंबर की तीन तारीख की रात को, तो बाएं हाथ में मोबाइल पर वेणु का नंबर भी ढूंढ़ रहा हूं। और वह लीजिए, अंगूठा दबाकर मैंने उसे डिलीट भी कर दिया। भीषण कैरियरिज़्म, स्वार्थ, अवसरवाद और अहंकार से बजबजाती हिंदी कविता की कृतघ्न समकालीन दुनिया तो अपनी तरफ़ से उसे कभी का डिलीट कर चुकी थी। विचारदारिद्र्य, चापलूसी और प्रगति तथा नवताद्रोह के अक्षय कोष हिंदी विभागों की तो खैर बात ही क्या करनी।
मगर इन सबकी परवाह क्यों की जाए प्यारे वेणु! मारक उपेक्षा के बावजूद हिंदी कविता के इतिहास से तुम्हारा नाम मिटाने की हैसियत किसकी है? अलबत्ता तुम इस वक्त और उन लोगों को पहले ही पहचान चुके थेः
आ गया था ऐसा वक्त
कि भूमिगत होना पड़ा अंधेरे को
नहीं मिली कोई सुरक्षित जगह
उजाले से ज़्यादा
छिप गया वह
उजाले में कुछ यूं
कि शक तक नहीं हो सकता किसी को
कि अंधेरा छिपा है उजाले में
जबकि
फ़िलहाल
चारों ओर उजाला ही उजाला है।
तुम तो निखालिस प्रकाश थे साथी! और यह भूमिगत रहने का समय नहीं है।
(दिवंगत कवि-मित्र वेणुगोपाल पर यह संस्मरण 'आज समाज' के लिए मेरे अनन्य मित्र मनोहर नायक के इसरार पर लिखा गया. त्वरित तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाने हेतु साथी योगेश्वर सुयाल का धन्यवाद!)
15 comments:
यही तो आप का जादू है डा. डैंग। आदमी को कवि की संलग्नता और सर्जन की सी तटस्थता से देखना। एक ही समय।
लंबे अरसे बाद आपका लिखा कुछ पढ़ा। खुशामदीद।
वीरेद दा!
भीतर अब कुछ भी साबुत नहीं!
वेणुगोपाल पर बहुत संस्मरण पढ़े, पर ये आपका लेखा तो तोड़ देने वाला है- अवसाद और खीझ में ले जाने वाला।
खोने का मतलब बहुत देर से समझ आता है।
पर आता जरूर है।
मेरी याद।
`इतने नादाँ भी नहीं थे जां से जाने वाले` यही रास्ता चुना था, उन्होंने. भीतर कुछ हिल गया है पढ़कर और इस रहगुजर को देखकर दिल-दिमाग कुछ श्रधा और कुछ प्रेरणा के साथ मजबूत भी हुआ.
वीरेनदा, सबसे पहले तो धन्यवाद, नेपथ्य से निकल कर सामने आने के लिए। दूसरा मेरे जैसे लोगों को, जिनके लिए हिंदी साहित्य आसानी से समझ आने वाले कुछ किस्से-कहानी, कविता या संस्समरणों तक ही सीमित है, एक बढिया कवि और कवि कर्म से परिचित कराने का। हालांकि यह शर्मनाक है लेकिन सच यह है कि वेणुगोपाल से मेरा परिचय कबाङखाना के माध्यम से उनकी मौत के बाद ही हुआ। उन्हे हार्दिक श्रद्धांजलि देने के अलावा और क्या कहूं।
जैहिन्द डाक्साब!
वीरेनदा आपकी कविताएं तो बहुत जानी-पहचानी हैं. गद्य आपका शायद दूसरी बार पढ़ा - एक आपका साहित्य अकादमी वाला वक्तव्य पढ़ा था कुछ समय पहले. आशा है आप कबाड़ख़ाने पर लगातार आते रहेंगे.
नमस्कार.
सलाम
वेणु गोपाल के व्यक्तित्व और कृतित्व को सतत् ताज़ा रखने के लिए आपका और कबाड़खाने का शुक्रिया!
तुम्हारा ब्लॉग इसलिये खेला आज सुबह कि शायद नन्दादेवी मेले को याद कर रहे होगे। वहा¡ वेणुगोपाल पर वीरेन दा की पोस्ट देखी। वेणु की एक झलक कौंèाी, जब वे छ: सात साल पहले नैनीताल आये थे। फिर न जाने क्यों इच्छा हुई कि नेनीताल समाचार का यह `सौल कठौल´ तुम्हें भेज दिया जाये
कश्मीर मा¡गोगे चीर देंगे
गलती तो हो ही गई थी
हफ्तों के बाद खिली èाूप के बावजूद मैं कुढ़ा हुआ था। लम्बी बरसात की सीलन मेरे शरीर में ही नहीं, दिमाग में भी घुस चुकी थी।
``अंकल, मिठाई लीजिये,´´ उसकी आवाज ने ही मेरी तंद्रा भंग की। वह एक नवयुवक था और उसके हाथ में मिठाई का लिफाफा था।
``मिठाई! ण्ण्ण्ण्किस बात की ?´´ मैंने याद करने की कोशिश कीण्ण्ण्ण् आज तो मंगल भी नहीं था। कभी-कभी बजरंगबली के चाहने वाले इसी तरह प्रसाद खिला देते हैंण्ण्ण्ण्ण् अजनबी होते हुए भी।
``आपको मालूम नहीं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन मिल गई है। सरकार को झुकना पड़ा। आज विजय दिवस मनाया जा रहा है।´´
``हा¡ण्ण्ण्ण्ण्और कश्मीर हाथ से निकल गया हैण्ण्ण्ण्ण्।´´ बेसाख्ता मेरे मु¡ह से निकला। मुझे सिर्फ चुप रह कर मिठाई ले लेनी चाहिये थीण्ण्ण्ण्ण्ण्मगर अब चारा क्या था ?
``क्या मतलब ?´´ नौजवान चौंका। उसकी आ¡खों में गुस्सा झा¡कने लगा।ण्ण्ण्ण् मुझे लगा कि इस नवयुवक को कहीं देखा हैण्ण्ण्ण्ण्कहा¡ण्ण्ण्ण्एकाएक याद नहीं आया।
``अखबार नहीं पढ़ते क्या ? करते क्या हो तुम ?´´
``पोलिटिकल साइंस में रिसर्च कर रहा हू¡। लेकिन आपको इससे क्या लेना-देना ? कश्मीर के बारे में क्या कह रहे थे आप ?´´
``वही तो पूछ रहा हू¡। अखबार नहीं पढ़ते क्या ?´´
``पढ़ता क्यों नहीं।´´
``अमर उजाला और जागरण पढ़ते होगे।´´
``तो और क्या पढ़ू¡ ?´´ वह गुर्राया। अब याद आयाण्ण्ण्ण्ण्ण् उस दिन जब अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन को लेकर विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा का चक्काजाम हो रहा था, यह युवक भी नारे लगा रहा था, `जिस हिन्दू का खून न खौला खून नहीं वह पानी है´। दिमाग की कुढ़न एकाएक गुस्से में बदल गई।
``वही तो! ढंग की चीज पढ़ने वाले होते तो मालूम होता कि जैसे-जैसे जम्मू में अमरनाथ की जमीन का आन्दोलन तेज हुआण्ण्ण्ण्ण्ण्कश्मीर में भी आजादी की लड़ाई तेज हो गई। कश्मीर हिन्दुस्तान के हाथ से निकल रहा है। मालूम है तुम्हें ? मालूम होता तो मिठाई बा¡टने की नहीं सूझती। मेरी तरह तुम भी मातम मना रहे होते।´´
``ऐसा कैसे हो सकता है ? कश्मीर हमसे अलग कैसे हो सकता है ?´´
``हा¡, मैंने भी तुम्हारे नारे सुने हैं `दूèा मा¡गोगे खीर देंगे, कश्मीर मा¡गोगे चीर देंगे´। लेकिन नारे लगाने से असलियत नहीं छिपती। उत्तराखंड आन्दोलन की याद है तुम्हें ?´´
``हा¡, थोड़ी-थोड़ी।´´
``तब तो यह भी याद होगा कि पहाड़ के छोटे-छोटे कस्बों में कितने बड़े-बड़े जलूस निकलते थे उन दिनोंण्ण्ण्ण्ण्ण्हजारों के जलूस। लेकिन कश्मीर में उससे भी बड़े जलूस निकल रहे हैं आजकल। तीन-तीन लाख लोगों के जलूस। गा¡वों से लोग आते हैं गािड़यों में ठसाठस भर कर। पुलिस और फौज बेबस है। गिने-चुने लोग होते तो कुछ को आतंकवादी बता कर एनकाउण्टर कर देती। बाकी लोग डर कर घरों में छिप जाते। लेकिन लाखों की भीड़, जिसमें औरतें भी हों और बच्चे भीण्ण्ण्ण्ण् क्या कर सकती है पुलिस ?´´
``क्यों नहीं कर सकती ?´´
``उत्तराखंड आन्दोलन में क्या कर सकी पुलिस ? इसलिये नहीं कर सकती क्योंकि यह पूरी तरह अहिंसक आन्दोलन है। 15 अगस्त के बाद पूरे श्रीनगर में पाकिस्तान के झंडे लग गये हैंंण्ण्ण्ण्हर घर में ण्ण्ण्ण्ण्हर दुकान में। लाल चौक परण्ण्ण्ण्डल गेटण्ण्ण्ण्बूलेवार्ड और टीण्आरण्सीण् पर। पेड़ों पर और खम्भों पर। कश्मीर में मौजूद पा¡च लाख पुलिस और फौज को उतने झंडे ही उतारने में हफ्तों लग जायेंगे। जब भावनायें इतनी ऊपर चली गई हों तो सिर्फ बन्दूक के बल पर कब तक रोका जा सकता है कश्मीर को आजाद होने से। और यह सब तुम जैसे लोगों के कारण हुआण्ण्ण्ण् तुम्हारे और तुम्हारे नेताओं के कारणण्ण्ण्ण् जो èार्म के नाम पर उन्माद पैदा कर वोटों का जुगाड़ करते हैं। कभी गुजरात में हिन्दुओं को मारते हैंण्ण्ण्ण्कभी उड़ीसा में इसाइयों को। कभी मुम्बई से उत्तर भारतीयों को खदेड़ते हैं।´´
कहते ही लगा कि यह बहुत ज्यादा हो गयाण्ण्ण्ण्ण्ण् इसका नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा।
``बुड्ढे तू देश का दुश्मन है, देख लू¡गा तुझे,´´ वह चिल्लाया और इèार-उèार कुछ तलाश करने लगा।
मुझे लग गया कि अपने साथियों को ढू¡ढ रहा हैण्ण्ण्अब वह उन्हें मोबाइल से बात कर बुलायेगा। यह गनीमत थी कि ऐसे लोगण्ण्ण्ण्ण्दंगाई किस्म केण्ण्ण्ण्ण् भीड़ बना कर ही हमला करते हैंण्ण्ण्ण्ण्ण्अकेले में बेहद डरपोक और कायर होते हैं। मैं बहुत तेजी से वहा¡ से खिसक लिया।
अब भी डरा हुआ हू¡ कि वह युवक कहीं मिल जायेगा तो मेरा क्या हश्र होगा। सिर्फ इन्तजार ही कर सकता हू¡ कि वह भूल जायेण्ण्ण्ण्ण्उसका गुस्सा उतर जाये। पुलिस से मदद मा¡गना तो फिजूल है। पुलिस तो उसके और उसके साथियों की ही हौसलाअफजाई करेगी।
bus pharta he rah gaya. kafi nayee jankari mili. Dangwal jee bahut shukria.
राजीव जी की यह टिप्पणि एक अलग पोस्ट के रूप में कबाङखाना में दी जानी चाहिए।
अलविदा वेणुगोपाल, अलविदा! वीरेन डंगवाल के स्वर में हम भी स्वर मिलाते हैं.
अलविदा वेणुगोपाल, अलविदा! वीरेन डंगवाल के स्वर में हम भी स्वर मिलाते हैं.
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