आज सोचने पर लगता है कि अगर उन्होंने लिखने को आजीविका नहीं बनाया होता तो शायद कहानी कुछ और होती. अब होता यह था कि वह नाराज़ होते या खुश होते लेकिन दोनों में ही कारण ऐसे होते जो सिवाय उनके किसी की समझ में नहीं आते. पूरी दुनिया उन्हें षड्यंत्रकारी लगने लगी थी. लोग, यहाँ तक कि उनके दोस्त भी उनकी अपेक्षाओं के फ्रेम में फिट नहीं हो पा रहे थे. लेकिन यह भी था कि मेरे प्रति उनका प्रेम पहले जैसा ही था.
(मित्रो, बीते दो दिनों से कम्प्यूटर महाराज की त्यौरियां चढ़ी हुई थीं. अब जाकर थोड़ा सामान्य हुए हैं. आग्रह है कि शरद जोशी के बारे में वेणुगोपाल के पिछली कड़ी में दिए संस्मरणों की निरंतरता में ही इस कड़ी को पढ़ा जाए)
...उसके बाद भोपाल मैं सन ७२ में गया. चार साल बाद. हैदराबाद से उखड़कर भोपाल में ही जमने का जुगाड़ करने के दौरान शरद जी के अलग-अलग आयामों से आमने-सामने हुआ. पिछले चार सालों में नदियों में बहुत पानी बह चुका था. शरद जी भगवत रावत से नाराज़ होकर बोलचाल बंद कर चुके थे. जब यह सब हुआ था, तो सोम भोपाल में नहीं थे, वह पशु चिकित्सा में पीएचडी करने बाहर गए हुए थे. जब लौटकर जाना तो उन्होंने भगवत रावत और शरद जी से अलग-अलग बात की और पाया कि गलती शरद जी की ही है तो उन्होंने भगवत रावत का साथ दिया और शरद जी से सम्बन्ध तोड़ लिया.
नाराजी की वजह मुझे शरद जी ने ही बतायी तो मैं चकित रह गया. क्या ऐसी मामूली वजहों से भी दोस्ती या कोई सम्बन्ध टूट सकता है? यह मेरी कल्पना से बाहर की बात थी. भगवत शरद जी से किताबें पढ़ने के लिए ले जाया करते थे. लौटाने में कभी-कभी देर-दार हो जाया करती थी और शायद एकाध किताब लौटाना भगवत भूल गए तो शरद जी जी ने 'ऐसे घटिया आदमी से रिश्ता नहीं रखा जा सकता' कहा और इरफाना जी के सामने ही भगवत को तरह-तरह की बातें सुनाईं और आगे से कोई सम्बन्ध नहीं रखने की घोषणा कर दी.
भगवत को कई दिनों तक भरोसा ही नहीं हुआ कि शरद जी से रिश्ता सचमुच ही ख़त्म हो गया है क्योंकि उनके दिल में शरद जी के प्रति आदर था, यहाँ तक कि भगवत उनसे डरते भी थे. एक बार तो मैंने भी देखा. उन दिनों मैं मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी में सम्पादन का काम करता था तो भगवत मुझसे मिलने आए. जब जाने लगे तो किसी ने सूचना दी कि नीचे शरद जी आए हैं और बैठे हुए हैं तो भगवत रुक गए, पूछने पर बोले- 'उनके सामने पड़ने की हिम्मत नहीं होती. फटती है.'
मुझे इतना तो साफ लग ही रहा था कि सन ६८ के शरद जी अब नहीं रहे, बहुत बदल गए हैं. कटुता का अनुपात बढ़ गया है और जब तब संतुलन भी सध नहीं पा रहा है.
आज सोचने पर लगता है कि अगर उन्होंने लिखने को आजीविका नहीं बनाया होता तो शायद कहानी कुछ और होती. अब होता यह था कि वह नाराज़ होते या खुश होते लेकिन दोनों में ही कारण ऐसे होते जो सिवाय उनके किसी की समझ में नहीं आते. पूरी दुनिया उन्हें षड्यंत्रकारी लगने लगी थी. लोग, यहाँ तक कि उनके दोस्त भी उनकी अपेक्षाओं के फ्रेम में फिट नहीं हो पा रहे थे. लेकिन यह भी था कि मेरे प्रति उनका प्रेम पहले जैसा ही था.
उन दिनों मैं राजेश जोशी के कमरे में डेरा जमाये हुए था. एक बार संयोग ऐसा हुआ कि राजेश कहीं बाहर गया हुआ था और लौटने में उसे कुछ दिनों की देरी हो गयी.
मेरी आकाशी वृत्ति के चलते जेब अक्सर खाली ही रहा करती थी. यह हालत हो गयी थी कि खाने-पीने तक का जुगाड़ नहीं हो पा रहा था. संकोची स्वभाव ऐसा कि किससे क्या कहूं! इस तरह तीन दिन हो गए. भूख के मारे बुरा हाल. सड़कों पर भटकता रहता कि ऐसा संयोग हो कि कोई दोस्त मिल जाय और अपनी ओर से चाय-नाश्ता पूछ ले. कोई नहीं मिला. भटकते-भटके रेलवे स्टेशन से बस स्टैंड आया. वहाँ मनोहर आशी की दूकान थी. कोई ज्यादा नजदीकी तो नहीं थी उनसे लेकिन वह गर्मजोशी से मिलते थे और- 'क्या पियेंगे, ठंडा या गरम' पूछकर मना करने के बावजूद कुछ न कुछ जरूर मंगवा लिया करते.
उस दिन वह दूकान पर नहीं थे. लौटा तो रास्ते में मनोहर डेयरी आयी. मैं सम्मोहित-सा उसमें घुस गया. एक प्लेट अजमेरी कलाकंद से शुरुआत की और मीठा तथा नमकीन जी भर के खाया. सन ७३ में जब पेट भरने के लिए २-३ रुपये काफी होते थे, तब मैंने पन्द्रह रुपये तक का बिल कर डाला. सोचा कि जब कहूंगा कि मेरे पास पैसे नहीं हैं तो हद से हद ये क्या करेंगे? इतना ही न कि ५-७ दिन बरतन साफ करवा लेंगे. आवारागर्दी के दिनों के चलते मुझे यह सब पता था. लस्सी का एक बड़ा गिलास पिया और आने वाले वक्त के लिए ख़ुद को तैयार करने लगा. तभी देखा कि शरद जी अपने किसी परिचित के साथ भीतर प्रवेश कर रहे हैं. मुझे बैठे देखकर उन्होंने इशारे से कुशल-क्षेम और चाय के लिए पूछा. मैंने भी इशारे-इशारे में ही उन्हें बतलाया कि मैं खा-पी चुका हूँ और इतना तृप्त हूँ कि अब कोई गुंजाइश नहीं.
चाय पीकर जब वह जाने के लिए उठे तो उन्होंने कहा- 'वेणुगोपाल, तुम्हारी चाय के पैसे हम दे रहे हैं.'
'सिर्फ चाय ही नहीं है शरद जी, मैंने खाया-पिया भी है.'
मेरे बोलने में या मेरी आवाज़ में कुछ ऐसा ज़रूर था कि शरद जी ने काउंटर पर मेरा बिल पूछा और मेरी ओर देककर मुस्कुराए. बोले- 'तुम्हारे बिल का पेमेंट हम कर रहे हैं.' मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या बोलूँ. कुछ न कुछ बोलने के लिए उठा ही था कि शरद जी मेरे पास आए. मेरे कंधे पर हाथ रखकर इतना भर कहा- 'होता है, ऐसा भी होता है कई बार' मुस्कुराए और चले गए.
फिर उन्होंने इस बात का जिक्र मेरे जानते कभी किसी से नहीं किया. मुझसे भी नहीं.
सन ७२ में अशोक वाजपेयी का तबादला भोपाल हुआ. अम्बिकापुर, सीधी आदि जिलों में जिलाधीश रहने के बाद वह सचिवालय में आ गए. ज्ञानभाई (ज्ञानरंजन) ने मुझे पत्र लिखा कि 'अशोक से जरूर मिलो. वह तुम्हारे लिए जरूर कुछ न कुछ करेगा. ऐसा मत करना कि उसे अफसर समझकर मिलो ही नहीं.'
इन दिनों मेरी दिमागी हालत ऐसी थी कि मिनिस्टर और आईएएस अफसर के नाम से मेरा जी मितलाता था. शायद ज्ञानभाई ने अशोक को भी लिखा क्योंकि जब मैं नहीं मिला और अशोक को भोपाल आए कई दिन हो गए तो एक दिन शरद जी आए ओर बोले- 'अशोक ने कहा है कि वेणुगोपाल जहाँ भी हो, उसे पकड़कर लाइए.' शरद जी के सामने मना कर सकने की कोई गुंजाइश न पाकर मैं उनके साथ गया और मैंने पाया कि रास्ते भर वह अशोक के ऐसे गुणगान कर रहे हैं कि मैं उसे सिर्फ अफसर ही न समझूं- 'आईएएस है तो क्या हुआ? है तो अपना ही कवि.'
(अगली कड़ी में जारी...)
'पहल' से साभार.
2 comments:
काश मैं इरफाना होता तो शरद और भगवत दोनों को कहता कि तुम सुगंधित मूर्ख हो। जिस इतराहटी खीज से भरी द्रुत टिप्पणी का मजा लिया जाना चाहिए था उसे खामखां विलंबित कर अहमद जान थिरकवा बनने के चक्कर में पड़े हुए हो.
शानदार चल रहा है सिलसिला!
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