ऐसा ही क्यों होता है-
कि हिन्दी का कवि।
बहता या डूबता तो
अपनी कविता में है
लेकिन उसकी लाश
अक्सर दिल्ली में मिलती है.....
यह पंक्तियां चर्चित क्रान्तिकारी कवि वेणुगोपाल की हैं जिनका आज निधन हो गया. २२ अक्टूबर १९४२ को करीमनगर, आन्ध्र प्रदेश में जन्मे वेणुगोपाल का जीवन आवारगी, अध्यापन, राजनीति, जेल, बेरोज़गारी, फ़्रीलान्सिंग इत्यादि का अजब दस्तावेज़ है. उनका पहला संग्रह 'वे हाथ होते हैं' १९७२ में छपा था. जीवन का ज़्यादातर हिस्सा उन्होंने हैदराबाद में बिताया.
कबाड़ख़ाना उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देता है. उनकी एक कविता प्रस्तुत है. इन्दौर से भाई रवीन्द्र व्यास वेणुगोपाल जी पर एक लम्बा आलेख लिख रहे हैं:
कहो तो
कहो तो
"इन्द्रधनुष"
ख़ून-पसीने को बिना पोंछे -
दांई ओर भूख से मरते लोगों का
मटमैले आसमान-सा विराट चेहरा
बांई ओर लड़ाई की ललछौंही लपेट में
दमकते दस-बीस साथी
उभर के आएगा ठीक तभी
सन्नाटे की सतह भेदकर
तुम्हारा उच्चारण
कहो तो
कैसे भी हो, कहो तो
"इन्द्रधनुष!"
इस तरह हम देखेंगे
तुम्हारी वाचिक हलचलों के आगे
सात रंगों को पराजित होते हुए
एक दुर्लभ मोन्ताज को मुकम्मिल करेगी
तूफ़ान की खण्डहर पीठ
जो दिखाई दे रही है
सुदूर
जाती हुई
कह सकोगे
ऐसे में
"इन्द्रधनुष"
अज्ञात संभावनाओं की गोद में
उत्सुक गुलाबी इन्तज़ार है
तुम्हारे मौन-भंग की
उम्मीद में ठहरा हुआ
अब तो
कह भी दो
कि दर्शकों की बेसब्री
बढ़ती जा रही है
वे उठ कर चले जाएं
इस से पहले ही
कह डालो
"इन्द्रधनुष!"
- चाहे जैसे भी हो
बाद में
अगर हो भी जाओगे
गुमसुम
तो गूंजें-प्रतिगूंजें होंगीं
ज़र्रे-ज़र्रे को
इन्द्रधनुष की
उद्घोषणा बनाती हुई.
2 comments:
बच्ची के गुदाज बदन के ट्रांस में यौवन की खतरनाक खुशी को देख पाना। साहस। इस समाज में यह साहस से भी आगे की कोई चीज है। और यह दिल्ली की नाम और नामा के पेस्टीसाइड से जहरीली नदी में हर दुचित्ते लिपिक कवि की लाश का पाया जाना...। ठीक है वेणु जाओ क्या। गए।
बाद में
अगर हो भी जाओगे
गुमसुम
तो गूंजें-प्रतिगूंजें होंगीं
ज़र्रे-ज़र्रे को
इन्द्रधनुष की
उद्घोषणा बनाती हुई.
वेणु जी की आवाज़ भी
गूंजती रहेगी.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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