Tuesday, September 2, 2008

वेणु गोपाल की दो कविताएं

खतरे
खतरे पारदर्शी होते हैं।
खूबसूरत।
अपने पार भविष्य दिखाते हुए।

जैसे छोटे से गुदाज बदन वाली बच्ची
किसी जंगली जानवर का मुखौटा लगाए
धम्म से आ कूदे हमारे आगे
और हम डरें नहीं। बल्कि देख लें
उसके बचपन के पार
एक जवान खुशी

और गोद में उठा लें उसे।

ऐसे ही कुछ होते हैं खतरे।
अगर डरें तो खतरे और अगर
नहीं तो भविष्य दिखाते
रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े।

और सुबह है
हम सूरज के भरोसे मारे गए
और
सूरज
घड़ी के।
जो बंद इसलिए पड़ी है
कि हम चाबी लगाना भूल गए थे
और
सुबह है
कि हो ही नहीं पा रही है।

5 comments:

दीपा पाठक said...

वेणु गोपाल जी के लिए हार्दिक श्रद्धांजलि। उनकी सुंदर रचनाएं पढवाने के लिए धन्यवाद। रविंद्र जी कबाङखाने में तहे दिल से स्वागत। आपकी आमद से कबाङखाना और समृद्ध हुआ है।

Ek ziddi dhun said...

kal habeeb Tanveer ke janmdin ke bahane unse dilli mein baatcheet rakhee gayee thee, use blog par post karne computer par aaya tha. kabadkhana khola, pata chala venugopal naheen rahe. ab turant kuchh likhne ki sthiti nahee.n.

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर कविताएँ।

ravindra vyas said...

शुक्रिया दीपाजी और द्विवेदीजी।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

वेणु जी महत्त्व पूर्ण कवि हैं,
अपने समय को पूरी ईमानदारी से रच गए हैं.
यहाँ प्रस्तुत दोनों कविताएँ इसकी गवाह हैं.
ख़तरों के पार ख़ुशी देख पाने वाली आँखें
कविता में वेणु-पन का उदाहरण है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन