यक़ीन मानिये, परसों रात से नहीं सोया हूं. अन्ना अख़्मातोवा के अनुवाद किये थे कुछ साल पहले. फिर पता नहीं किसी प्रकाशक से बनी बात आधी रही और मैंने इस पाण्डुलिपि को अपने नितान्त व्यक्तिगत तहख़ाने में सहेज दिया था. मारीना स्वेतायेवा की एक कविता यहां क्या लगाई, अन्ना की उस विस्मृत पाण्डुलिपि को सश्रम खोजने के बाद बस सारा जीवन उसी के गिर्द घूम रहा है.
ज़्यादती न हो, इस लिहाज़ से मैंने तय किया है कि आज उसकी तीन कविताएं अलग-पलग पोस्ट्स में लगाऊंगा नियमित अन्तराल पर.
फ़िलहाल!
लगे हाथों, बोरिस पास्तरनाक की कई कविताओं के बिसराये हुए अनछपे अनुवाद भी कबाड़ में मिल गए हैं. साहब लोग बुरा न मानना अगर अगले कुछ दिन मैं रूस की महाकविता में डूबा आपको वही पेश करता रहूं.
मेरी डेस्क पर रात
अन्ना अख़्मातोवा
मेरी डेस्क पर रात.
काग़ज़ सफ़ेद है.
शहर की रात की गर्मी में
कोई भी चीज़ उड़ती नहीं.
मैं उसकी एक सिगरेट पीती हूं
मैं आख़्रिरी रूसी वोदका ख़त्म करती हूं
मैं खिड़की से बाहर देखने की जेहमत नहीं उठाती
मुझे मालूम है मुझे क्या दिखाई देगा
वह भी जाग गया है
और वह मेरा नाम नहीं लेगा
कैसी ताक़त है इस आदमी के भीतर
मेरा प्यार पाने के लिए कुछ भी नहीं करता
3 comments:
कमाल की कविता है यह....इतनी कमाल कि मैं शब्द नहीं ढूंढ पाई इसके बारे में कुछ कहने के लिए।
वाह! क्या कविता है?
प्यार की चाह ऐसी?
ओह ! गज़ब ... ये तो आप को कुछ भी कहने से मना कर रही है .... क्या बात है !!!
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