बनारस के सुशील पंडित बस पत्रकार ही नहीं थे जो एक बार माथे पर प्रेस की चिप्पी लग जाने के बाद काठ से तटस्थ और पत्राकार हो जाते हैं। इमरजेंसी में लाठियां खाईं, छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के नेता रहे, सभासदी का चुनाव लड़ा, ललित-कला अकादमी में रहे, जैसे बने, वैसे गरीब-गुरबा की मदद में खड़े होते थे। बीएचयू की विजुअल आर्टस फैकल्टी से प्रशिक्षित बस पेन्टर ही नहीं थे, जनता के मुद्दों पर पोस्टरों को ढाल की तरह सजाकर सड़क पर भी खड़े हो जाते थे। फोटोग्राफर ही नहीं थे कि बस आंख से काम लें, उनके हाथ-पैर राजनीतिक-सामाजिक सरोकारों के साथ चलते थे।.....अब भी जब कि जनता सिर्फ सबजेक्ट है जिसे मारकेटिंग की कीमियागिरी से पाठक-दर्शक में बदलकर माल बेचना है, सुशील पंडित खुद को इसी जनता का हिस्सा मानते रहे और उसे अपने से अलहदा विषय-वस्तु स्वीकार करने को कभी तैयार नहीं हुए।.........बहुत लोगों के लिए तो वे बस स्कूटर पर जाता हुआ, पान घुलाए एक दाढ़ीधारी कौतुक थे जिसकी चार आंखें थी। वह अपना चश्मा अगर कुछ पढ़ने की बेहद मजबूरी न हो तो सिर पर ही अटकाए रखते थे।
जानते तो हम एक दूसरे को काफी पहले से थे। सन २००१ में हिंदुस्तान का बनारस संस्करण निकला, तभी एक दशक का बड़ा होना भूलकर हमेशा के लिए वे मेरे सुशील पंडित हो गए। उनके पास प्रछन्न शरारत से खिली बेहद आकर्षक मुस्कान थी और कितने ही शब्द थे जो किसी शब्दकोष में नहीं मिल सकते। लूड़ीस (बंटाधार), सुड़ुकबाम (आतुर, दिखावेबाज आदमी), झंडू (व्यर्थ), गरदनिया पासपोर्ट (धक्का देकर भगाना), वेदान्ती (जिसके मुंह में दांत न हों) और लगायत तो बहुत टोकने के बाद भी उनकी खबरों में घुस ही आता था।....लंदन से लगायत लोलार्ककुंड तक आदमी की फितरत एक है। किसी खबर पर खुश होते तो कहते, बा राजा कहां रहला अब तक? (वाह राजा कहां छिपे थे अब तक)। जिंदादिली के बीच एक परत उदासी छलक आती कभी, यार पूरा जमनवां साला नानपोलिटिकल हुआ जा रहा है, अखबारों में मामूली लोगों के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है। क्या होगा?
कई दोस्त अब तक चिढ़ाते हैं- शाम के साढ़े नौ के आसपास न्यूज रूम के कोने से एक बुलंद आवाज उठती थी का- गुरू....। एक आवाज मेरी होती थी.. हां गुरू। डाक एडीशन छूटते न छूटते, का गुरू और हां गुरू दोनों गायब। वहां से सीधे मद्रास हाउस की विशाल छत पर जिस पर बने इकलौते कमरे में मेरा डेरा हुआ करता था। देर रात गए सुशील पंडित का सधा अलाप.... तुम तो हुई गए गुलरी के फुलवा बलम...नीचे गलियों के घुमाव में भटकने लगता। कभी-कभार घर लौटता कोई डेस्क का सहयोगी हांक लगाता....तो गूलर यहां खिल रही है और दोनों फूलों की खोज प्रेस में हो रही थी। खाने के बाद कुछ मीठा खोजती जीभ की यात्रा शुरू होती। कभी गोदौलिया पर रबड़ी-मलाई, कभी सोनारपुरा में मगदल-चूड़ा, कभी चौक, बुलानाला पर दिन का बचा लौंगलता ही सही। उन दिनों उनके समउमरिया लोगों की बातचीत का प्रिय विषय डायबिटीज के परहेज हो चुका था। उनसे बतकही का मुझे चस्का लग चुका था। जीवन का संदर्भ विशाल था और सारी बौद्धिक चतुराई को ध्वस्त करती ईमानदारी थी। हम अपनी किसान मांओं की बात करते, कभी बचपन की कोई याद, आंदोलनों का चतुर लोगों के द्वारा सोख लिया जाना, काबिल लोगों का हर जगह से जानवरों की तरह हांका जाना......अपने मन के धूसर कोनों की थाह लेते और परनिन्दा का चरखा तो हम कातते ही थे।सुशील त्रिपाठी की दिनमान में छपी एक न्यूज स्टोरी
पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म - दे काल मी चमार- का एक
दृश्य। निर्देशक- लोकसेन लालवानी (१९८०)
पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म - दे काल मी चमार- का एक
दृश्य। निर्देशक- लोकसेन लालवानी (१९८०)
याद आता है कि भादों की एक रात जब बादल तेजी से बनते-बिगड़ते भाग रहे थे, हम आलसियों ने इस कल्पना में रोमांचित होते बिताई थी कि अगर कोई स्टिल कैमरा लगा दिया जाए जो थोड़ी-थोड़ी देर बाद बादलों की फोटो लेता रहे और फिर सुबह उन आकृतियों पर सुचिंतित ढंग से कैप्शन लगाकर एक जरा भव्य सी फोटो प्रदर्शनी लगाई जाए। बादल भागते रहे और हम उन पर कैप्शन लगाते रहे। हाथी, बाथटब में बदलता फिर कोई विशाल पलंग पर सोया आदमी अचानक पक्षी में बदल जाता, औरत नदी में बदल कर किसी पहाड़ी से फिसलने लगती....।
सुशील पंडित की दुनियावी चिंताएं भी कम नहीं था लेकिन विरले ही उनका जिक्र वे आने देते थे। लम्बे अरसे बेरोजगार रहे अस्तु कमच्छा, क्रांतिपल्ली वाले मकान की अधिकांश किस्तें बाकी थी, थोड़े दिनों में कुंवर को हायर एजुकेशन के अच्छे कोर्स में डालना था, पल्लवी का भी स्कूल जाना शुरू हो चुका था, पंडित (उनकी पत्नी) के पीठ दर्द ने उन्हें मामूली कामकाज के लिए भी लाचार कर दिया था। कच्ची गृहस्थी थी। बहुत तनाव हो जाता तो चुप लगा जाते। चलते-चलते अचानक एक छोटी कैप्सटन की डिब्बी और खरीद लेते......हे गुरू तू झाम देखा हम्मै चाभी दा हम चलत हई सूतै. (गुरू रिपोर्टिंग का बवाल तुम देखो, मुझे कमरे की चाभी दो सोने जा रहा हूं. )
सारे छद्म, सारे खेल समझते हुए भी कितने कौतुकी। एक बार दक्षिण अफ्रीका की संवैधानिक कोर्ट के जज जस्टिस याकूब और उनकी इंडियन-मुल्लाटो पत्नी को कुछ एनजीओ वाले लेकर सोनभद्र की कनहर नदी पर तीस-पैंतीस साल से बनते बांध के विस्थापितों की सभा में ले गए। पैंतीस साल में बांध बनाने की मशीनें जंग खा चुकी थीं, परियोजना की लागत दो सौ गुना बढ़ चुकी थी। परियोजना फिर शुरू होने को थी लेकिन मुआवजा वही पुराना दिया जा रहा था। एक आम या महुआ के पेड़ का रेट था साठ पैसे और जमीन भी कौड़ी भाव। आदिवासियों की पंचायत में किसी औरत की पुरानी साड़ी के टुकड़े से बंधे माइक के सामने जस्टिस और बीएचयू के प्रोफेसर दीपक मलिक ने बड़ा जोरदार भाषण दिया। अगले दिन बीएचयू के लक्ष्मण दास गेस्ट हाउस में जस्टिस याकूब से मिलने गया तो उनकी बीबी चपरासियों को झाड़ रहीं थीं क्योंकि जब से वे आये थे उन्हें तौलिया नहीं दिया गया था। गेस्ट हाउस में तौलिया था ही नहीं मिलता कहां से।
सुशील पंडित को बताया तो बोले तौलिया, एक तरह से बड़ी खबर है क्योंकि कनहर डैम के विस्थापितों के पक्ष में वे जो बोले उसका कोई रिस्पांस कहीं से नहीं आएगा, तौलिया पर कुछ लिखो फिर देखो मजा। मैने तौलिया पुराण का जिक्र अखबार के गपशप वाले कालम में कर दिया। अगले दिन जस्टिस और उनकी बीवी की तरफ से बढ़िया अंग्रेजी में लिखा डेढ़ पेज का पीत-पत्रकारिता के नाम कोसनाभरा खंडन बीएचयू के पीआरओ ले आए जिसका सार यह था कि वे गेस्ट हाउस में बड़े मजे में हैं और बीएचयू प्रशासन से उन्हें कोई शिकायत नहीं है। सुशील पंडित ने खंडन फाड़कर रद्दी की टोकरी में डालते हुए कहा......का गुरू देख लिया, जो अपने लिए एक गमछा तक नहीं मांग सकता वो बांध के विस्थापितों के मुआवजे के लिए क्या लड़ेगा?
..........तो यही सुशील पंडित एक अक्तूबर को कैमूर की पहाड़ियों में बुद्ध के पैरों के निशान के मिथक की पड़ताल करने गए थे और एक पहाड़ी से रपट कर तीस फीट नीचे खाई में आ गिरे। बौद्ध दर्शन उनके शोध का विषय भी था और जीवन पर उसका असर भी। कोमा में चले गए। बीएचयू के सर सुंदर लाल अस्पताल में और बाहर उनके हजारो दोस्तों ने बचाने की सारी कोशिशें कर लीं लेकिन वे नहीं लौटे। तीन को उनकी मौत की अफवाह उड़ी और चार अक्तूबर की सुबह सच हो गई। आईसीयू में एक बार उनके पास खड़ा होकर कहना चाहता था- का गुरू अब यही होगा। डाक्टरों ने इस उलाहने का तो दूर, दरवाजे की झिरी से झांकने का भी मौका नहीं दिया। अब वे नहीं है बस उनकी कच्ची गृहस्थी है।
23 comments:
सुशील मरा नहीं , हमारे दिलों में जिन्दा है ।
सुशील जी की मृत्यु के बारें में हिन्दुस्तान में पढ़ा और फ़िर याद करते रहे उनकी रिपोर्टिंग
हिन्दुस्तान पढ़ते रहने के कारण उनसे एक जुडाव सा महसूस होता था
उनके परिवार के प्रति हार्दिक संवेदनाएं
Sushilji ka yu achanak kuch kar jana behad taklifdeh hai. abhi to unhe bahut kuchh khojana taha. khabar ki talash me khabarchi kuch kar gaya. we ek sarokari patrakar the. jaise jaise pachasa se satha ki or badh rahe the , kuchh naye khoj lene ki unki bhukh badhati ja rahi thi. we una patrakaro me se the jo salary package or post se jyada likhe ko apni upalabdhi mante hain. guru! roj roj eikai khabar... jab naya kuchh likhane ki talash me rahte the to barbas pan ghulate bol padate the. Anilji ne unke bare jo likha hai wah unke jujharupan ko darshata hai. we anil bhai ke 'sushil pandit' the. hamlogo se bhi jab anilji phone par batiyate the or suhilji ka kahi jikra hota to 'sushil pandit' hi kahte the. sushilji ke antim sanskar me umadi bhid yeh baya karne ke liye kafi thi ki we kitne pyare the...janta ke har warga ke bicha. PRAMOD K PANDEY
Sushilji ka yu achanak kuch kar jana behad taklifdeh hai. abhi to unhe bahut kuchh khojana taha. khabar ki talash me khabarchi kuch kar gaya. we ek sarokari patrakar the. jaise jaise pachasa se satha ki or badh rahe the , kuchh naye khoj lene ki unki bhukh badhati ja rahi thi. we una patrakaro me se the jo salary package or post se jyada likhe ko apni upalabdhi mante hain. guru! roj roj eikai khabar... jab naya kuchh likhane ki talash me rahte the to barbas pan ghulate bol padate the. Anilji ne unke bare jo likha hai wah unke jujharupan ko darshata hai. we anil bhai ke 'sushil pandit' the. hamlogo se bhi jab anilji phone par batiyate the or suhilji ka kahi jikra hota to 'sushil pandit' hi kahte the. sushilji ke antim sanskar me umadi bhid yeh baya karne ke liye kafi thi ki we kitne pyare the...janta ke har warga ke bicha. PRAMOD K PANDEY
श्रद्धा सुमन समर्पित हैं। भगवान उनके परिवार की रक्षा और पालन करे।
बनारस से करीब तीस किमी दूर कैथी के पास, सवर्णों द्वारा गांव से खदेड़े गए रामदयाल दीक्षित की स्टोरी सुशील पंडित ने ब्रेक की थी। जिस पर बनी लालवानी की फिल्म कई अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में दिखाई गई और पुरस्कृत हुई। रामदयाल का गुनाह यह था कि उन्होंने एक दलित महिला से शादी कर ली थी। फिल्म डाइरेक्टर ने सहानुभूति खींचने के चक्कर में रामदयाल को मार डाला (नीचे देखें सिनाप्सिस)जबकि रामदयाल और उनकी पत्नी दोनों अब भी भले चंगे हैं। दलित मामलों के शोधकर्ता बजरंग शरण तिवारी ने जब इस मामले की पड़ताल की तो इस कहानी के पीछे की कहानी सामने आई। उस पर फिर कभी।
They Call me Chamar, Lalwani's next film, was reportedly based on a newspaper item, of a brahmin having married a Harijan* girl. Socially ostracised, he is driven to the bustee* of the chamars* who live by skinning dead animals. Vultures peck at dead carcasses as we approach the chamar bustee to meet our protagonists. Lalwani lets the couple alternately relate their story which forms a powerful indictment of a cruel social system. It is a pity a man of such strong conviction and social consciousness died so young.
वाकई अनिल, मदारियों की तादाद में इजाफा है। सरोकार वाले पत्रकार विदा हो रहे हैं। सुशील जी को श्रद्दांजलि। उनके परिवार को संवेदना।
और हां उनके बारे में इतने जज्बाती ढंग से बताने के लिए तुम्हारा भी शुक्रिया।
विनम्र श्रद्धांजली उन्हे!!
अब भी यकीन नहीं हो रहा है कि सुशील त्रिपाठी नहीं रहे। उनके पठारी से रपटने का जो किस्सा सामने आया है, उस पर भी यकीन करना मुश्किल हो रहा है। बनारस में रहने के दौरान उनसे हमेशा आत्मीयता मिलती रही। सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता के बीच उन जैसे व्यक्तियों का होना थोड़ा संतोष देता था।
बहरहाल मृत्यु शायद ऐसी अकेली सच्चाई है जहां सारे वाद-विवाद थोड़ी देर के लिए ही सही,थम जाते हैं। सुशील जी को मित्रों की कमी नहीं थे, उनका परिवार भी संकट की घड़ी में यही महसूस करे, चुनौती यही है।
कभी मिला नही पर लेख पढ़ लगा बरसों से जानता हूं। लगा अभी कुर्सी के पीछे खड़े हो कह देंगे क्या झक मार रहे हो पेट पालने की मजबूरी में कुछ ढंग का लिखो, पढ़ो और करो. अनिल आप भाग्यशाली कि उनका साथ मिला। पत्रकारिता के दिल्ली, मुंबई से आगे की चीज न मानने वालों के लिए सुशील जी सीखने की चीज रहे। --- सिद्धार्थ कलहंस
40-50 मुलाकातों की यादें मैं भी दुहराना चाहता था, पर आपकी लेखनी ने सुशील जी को सामने ला खड़ा किया, थोड़ा सा आंख दबा कर, कंधे उचकाकर हंसते सुशील जी, ये हंसी भी गुलर फूल हो गई,आपने तो मन में वैराग्य भर दिया...
40-50 मुलाकातों की यादें मैं भी दुहराना चाहता था, पर आपकी लेखनी ने सुशील जी को सामने ला खड़ा किया, थोड़ा सा आंख दबा कर, कंधे उचकाकर हंसते सुशील जी, ये हंसी भी गुलर फूल हो गई,आपने तो मन में वैराग्य भर दिया...
....कहानी रह जाएगी..
...बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा..
सुशील जी को श्रद्धा सुमन । उनका इतने संवेदनशील शब्द-चित्र के लिए अनिल जी का धन्यवाद।
अनिलभाई, आपने बिना भावुक हुए अपनी थरथराती संवेदना के साथ सुशीलजी पर सच्चे मन से लिखा है। ऐसा कम हो पाता है।
मैंने उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
सलाम सुशील भाई! सलाम अनिल भाई!
बस सलाम!
shradhhanjali !
काशी में रह कर पंडित सुशील त्रिपाठी को निकट से देखा है . अक्सर रात्रि में कबीरचौरा स्थित डोक्टर गांगुली के दवाखाने के बाहर, बगल के दवा की दूकान पर, उनका "का गुरु" का संबोधन बहुत कुछ कह देता था . मित्र और सहयोगी कि तरह कुशल क्षेम पूछने का एक निराला अंदाज था उनका . काशी में उनके मित्रों की जो संख्या थी शायद किसी अन्य पत्रकार ने उस रिकॉर्ड को नहीं तोडा है .
प्रयाग प्रवास के दौरान भी मै उनसे मिलता रहा . कुंभ के दौरान छायांकन करते समय मै उनके अत्यंत निकट था .
कुम्भ मेले पर हिंदी में एक पुस्तक भी लिखी थी जिसमें वे बुद्ध से प्रभावित थे, पंडित सुशील त्रिपाठी प्रयाग कुम्भ मेले पर बहुत कुछ शोध किया था . पंडित सुशील त्रिपाठी की कुम्भ मेला पुस्तिका प्रकाशित होने के बाद अब मित्रो के बीच चर्चा में नहीं है, इस तकलीफ ने मुझे आज लिखने को विवश किया है.
कैसे भूलू पंडित सुशील त्रिपाठी को ...............
मित्रों ने सही लिखा है
कहानी रह जाएगी..
...बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा..
सुशील भैया को नमन _/\_ याद करके आँखें नम हो जाती हैं
याद करके आँखें नम हो जाती हैं सुशील भैया को नमन _/\_
Sir, Uf Madras House mai neeche wale floor pr rha krta tha...aur sb dekhta aur sunta tha...aap logo ko...na bulne wale wo samay...
yaad aata hai...ek gana
Samay O dhire chlo....Naman
Sushil Tripathi ji was a moving encyclopedia. Thanks to Anil Yadav ji for introducing us to many unknown dimensions of a legend called Sushil Tripathi ji.
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