Wednesday, November 12, 2008

विश्व-कविताएं पीयूष के ज़रिये

हिन्दी में विश्व-साहित्य को लाने की जितनी तात्कालिक ज़रूरत है, शायद उतनी किसी और चीज़ की नहीं। पिछले शनिवार जब श्रीराम सेंटर, दिल्ली की बुक शाप में किताबें खंगाल रहा था तो बहुत सारी अनुवादित कृतियां मिलीं। वहां जाने का उद्देश्य ही अनुवादित कृतियां उठाना था। यह सिलसिला शुरु हुआ था पीयूष दईया जी की एक मेल से। अनुनाद पर हेरमान हेस्से के अनुवाद पोस्ट किये थे, उनपर पीयूष दईया की मेल शिरिष भाई ने मुझे प्रेषित की। तत्काल पीयूष जी को मेरी ओर से एक मेल गई और हेरमान हेस्से और कविता से आगे बढ़ते हुए बातें परिचय तक पहुँचीं। पीयूष भाई को विश्व-साहित्य में गहरी रुचि है और वे मंजे हुए अनुवादक भी हैं। उन्होनें मेरे आग्रह पर कुछ अनुवाद भेजे थे जिनमें से कुछ मैं यहां दे रहा हूँ। पीयूष भाई को अनेकानेक धन्यवाद और ऐसे उत्कृष्ट काम के लिये हज़ारों सेल्यूट।

आत्म-खोज

मंदिर के पास घास का गठ्ठर बना रही थी वह
केंकड़ों और जल-झींगी को पकड़ती
तब, सिर अपनी जपमालाओं पर झुकाय उसने
ऊपर देखा, झलक मिली उसे
उसकी झुकी हुई भीगी देह की।

हो! वाह! सन्न-शून्य रह गया उसका पावन मन।
प्रार्थना बन गयी एक हकलाते अगड़म-बगड़म में
और उसके पवित्र धर्मग्रंथ डूब गये,
छितरा गये हवाओं पर, नष्ट होने
दलदली कमल-कुंड में।

मालाएं एक-झूलना/लटकना, चीवर एक-फड़फड़ाना,
आते-जाते और उस ओर वह मंडराता फिरा
उस लड़की को पाने लेकिन नहीं जानते हुए तो भी
कि उसका पता लग गया अगर तो क्या करेगा।

क्या मज़ाक! क्या हंसाई है! देखना एक स्कॉलर को
मूढ़मति एक विक्षोभ में
झुके हुए नितंबों की एक झलक चलते
और छोरी का एक कद-बुत अवलोकने भर से;
घबराया हुआ कहां उसका सबसे सिरफिरा नौसिखिया
जानता है मार्ग और इस पर चलता है।

अज्ञात जापानी कवि, चौदहवीं शताब्दी

लोरी

मधुमक्खी जो बनाती है शहद प्यार करती है फूलों को
मछली जो तैरती है प्यार करती है पानी को
पंछी जो गाता है प्यार करता है आकाश को
इंसान जो जीना चाहता है, हे मेरे बच्चे,
उसे ज़रूर करना चाहिये अपने साथी लोगों और अपने भाइयों से प्यार

एक तारा आकाश को जगमग नहीं कर सकता
एक ढेरी पके चावल पूरी फसल नहीं बना सकते
एक आदमी हर हाल में दुनिया नहीं है
एक बुझते अंगार से ज़्यादा नहीं

पहाड़ पृथ्वी पर बना है
अगर यह धरती की दीनता को ठुकरा दे, कहां बैठेगा यह?
गहरा समुद्र पी जाता है हर नदी-सोता
अगर यह ठुकरा दे छोटे नदी-सोतो को, वहां पानी नहीं बचेगा

बूढा बांस प्यार करता है कोंपल को
कोमलता से दिनोंदिन
जब तुम सयाने हो बड़े ज़्यादा पिता से
तुम लोगे गोल धरती अपनी बाहों में

तो हू, वियतनामी कवि, 1920-

8 comments:

siddheshwar singh said...

महेन भाई , पिछले कुछ समय से यह समझ में आ रहा है कि आप कविता में डुबाए जा रहे हो. अपनी सीमाओं और घाट-घाट का पानी पीने की फितरत ने विश्व को समग्रता से/चैन से पढ़ने -गुनने का अवसर नहीं दिया .अब आप लोगों की संगत और संचार की सुलभता ने नये-पुराने किवाड़ खोल दिए हैं.

बहुत उम्दा कवितायें.

siddheshwar singh said...

"विश्व को" maane vishva kavitaa ko.

शिरीष कुमार मौर्य said...

महेन मुझे बहुत खुशी है कि पीयूष के मेल से एक इतना सुन्दर फ़साना बना !

पीयूष को और तुमको बधाई !

ये रिश्ता और आगे बढ़े और दुनिया हमारे आगे और खुले - यही कामना है मेरी !

Ashok Pande said...

बढ़िया कविताएं बढ़िया अनुवाद.

ravindra vyas said...

कविताएं मार्मिक हैं, और अच्छे अनुवाद में वे मेरे दिल को छू गई हैं। यह कविता के साथ ही अनुवाद की ताकत भी है।

दीपक said...

लोरी तो एकदम ही सार्थक लगी !! दिल छु लेने वाली रचना के लिये आभार!!

Sunil Uniyal said...

Kavitaayen bahut acchi chuni hain, aur anuvaad bhi bahut barhiyaa banaa hai. Peeyush ko bahut bahut badhaai.

Unknown said...

mitron, yeh padh kar apne kaam par sanshayaatmak bharosa jaga ki aapko kavyanuvaad pasand aaye.
piyush daiya