उस्ताद अमानत अली ख़ान सुना रहे हैं अपने अलग क़िस्म के अन्दाज़ में इब्न-ए-इंशा साहब की एक नज़्म.
इंशाजी उठो अब कूच करो,
इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब,
जोगी का नगर में ठिकाना क्या
इस दिल के दरीदा दामन में
देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए
उस झोली को फैलाना क्या
शब बीती चाँद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या
जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या
इंशा साहब की एक और मशहूर नज़्म ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुखनसाज़ पर :
ये बातें झूठी बातें हैं
इंशाजी उठो अब कूच करो,
इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब,
जोगी का नगर में ठिकाना क्या
इस दिल के दरीदा दामन में
देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए
उस झोली को फैलाना क्या
शब बीती चाँद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या
जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या
इंशा साहब की एक और मशहूर नज़्म ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुखनसाज़ पर :
ये बातें झूठी बातें हैं
1 comment:
अपनी पसंदीदा नज्म सुनना भला लगा.
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