Tuesday, December 16, 2008

अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र

(जिस पुस्तक '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र' का जिक्र मैंने अपने ब्लॉग 'आज़ाद लब' में पिछले दिनों किया था, उसकी भूमिका है यह. पुस्तक के संकलनकर्ता और संयोजक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने यह भूमिका लिखी है. आलेख की भाषा अवश्य अधिक चुस्त नहीं है, लेकिन विश्वास है कि इसमें व्यक्त की गयी तीव्र भावना पाठकों को ईमानदार लगेगी. यही भूमिका कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है- विजयशंकर चतुर्वेदी)

क्या नहीं हमने किया आज़ाद होने के लिए
खून भी अपना बहाया शाद होने के लिए
ताकि हम आज़ाद हों, अपने वतन में शान से
उर दिया बुझने न दें लड़ते रहें तूफ़ान से
हक़ हमारा था कि आज़ादी को फिर हासिल करें
मात अंग्रेज़ों को देने में जिएँ या हम मरें
पेशे-आज़ादी हमारी ज़िंदगी क्या चीज़ है
उर गुलामी को मिटाने जान भी क्या चीज़ है

गुलामी से मुक्ति तथा विदेशी प्रभुत्व व प्रभुसत्ता से आज़ादी पाने के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र ने एकजुट होकर स्वतंत्रता-संकल्प लिया था. अपने जान-माल की परवाह किए बिना तथा परिणाम के बारे में सोचे बिना, कफन को लहू में डुबोकर अपने सिरों से बाँध लिया था.

सन १८५७ का भयावह काल वास्तव में भारतीय राष्ट्र की अनगिनत कुर्बानियों व बलिदान की दास्तान है. एक ऐसी दास्तान जिसका आरंभ बहादुरशाह ज़फ़र के व्यक्तित्व से हुआ- वे पवित्र परन्तु क्षीण हाथ- जिन पर सारे हिन्दुओं, मुसलमानों व सिखों ने आस्था रखी, उन पर विश्वास रखा; जिसके कारण ही आज हम भारत को स्वतन्त्र देख रहे हैं. वह वास्तव में हमारे नब्बे वर्ष के लंबे संघर्ष का ही फल है.

आज़ादी की इच्छा एक ऐसी इच्छा थी जिसने विमुखता, अवज्ञा और नाफ़रमानी को जन्म दिया. अंग्रेज़ों ने इसे 'ग़दर' का नाम दिया, जिससे जाग्रति की एक ऐसी किरण फूटी; एक ऐसा सूर्य उदय हुआ जिससे अंग्रेज़ों को अपने पतन का आभास होने लगा. यह एक ऐसा संघर्ष था, एक ऐसा प्रकाश था जिसने अंग्रेज़ों के इरादों को जला देने के लिए चिंगारी का काम किया. तमाम भारतीयों के मन में विदेशी-प्रभुत्व तथा गुलामी का फंदा अपने गले से उतार फेंकने के सुदृढ़ संकल्प थे. किसी ने क्या ख़ूब कहा है-

'रोशनी आग से निकली है जला सकती है.'

सन् १८५७ के बाद बहादुरशाह ज़फ़र को अत्यन्त बेइज्जती एवं तौहीन भरे बर्ताव का सामना करना पड़ा था. आज़ादी का चिराग जलानेवाले इस अन्तिम मुग़ल शासक को रुसवा करके बड़ी दयनीय स्थिति में घर से हज़ारों मील दूर कैदखाने में भेज दिया गया तथा भारतीय नागरिकों पर भी अत्याचारों का पहाड़ तोड़ा गया. उन्हें गोलियों का निशाना बनाया गया. मासूम बच्चों को रौंदा गया तथा पवित्र नारियों की शीलता को तार-तार किया गया. इन अत्याचारों और सख्तियों के कारण भारतीयों में स्वतंत्रता-संग्राम की उमंग और बढ़ गयी, अधिक प्रबलता प्राप्त हुई और वे देश पर मर-मिटने के लिए तैयार हो गए. मजरूह सुल्तानपुरी का एक शेर है-

'सतून-ए-दार प रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले.'

इन सामूहिक संकल्पों और निरंतर संघर्ष का तर्क-संगत परिणाम सन् १९४७ में सामने आया. यह एक कठिन समय था जिसमें अनेक उत्त्थान-पतन हुए. आज़ादी की लड़ाई को विभिन्न स्तरों पर लड़ना पड़ा.

बहादुरशाह ज़फ़र को यद्यपि इतिहासकार एक पीड़ित और बेबस बादशाह के रूप में प्रस्तुत करते हैं पर आम व्यक्ति के दिल में उनके लिए स्नेह, मान और हमदर्दी के भाव मिलते हैं. वर्त्तमान में स्वयं को न्यायप्रिय कहलवाने वाला राष्ट्र (यहाँ आशय ब्रिटिश साम्राज्य से है), जिसने भारत में अपना शासन बनाए रखने के लिए, संस्कृति, सभ्यता एवं मानवता के नियमों की धज्जियाँ उड़ा दीं, वह क्रूरतम शासकों में शामिल हुआ. अंगेज़ लेखकों ने उस काल के भयावह हालत का उल्लेख अपने लेखों में शायद ही पूरी ईमानदारी से किया हो. ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ मासूम व बेबस बादशाह अपने बेटों की जाँ-बख्शी की भीख मांगता है तो तानाशाह उसके बेटों के सर काटकर थाल में सजा कर प्रस्तुत करता है;-

दे दिया जिसने आज़ादी का नारा वो ज़फ़र
अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र
ये ख़ुदा ही जानता है किस तरह ज़िंदा रहा
दूर जाकर अपने घर से बेनवां होकर मरा
फ़र्ज़ अब अपना है हिन्दुस्तान में लाएं उसे
इज्ज़त-ओ-तकरीम से देहली में दफ़नाएं उसे
परचम-ए-आज़ादी उसकी क़ब्र पर लहराएं हम
ताज-ए-आज़ादी अब उसकी नअश को पहनाएं हम
भूलने पाएं न उसकी याद को हम हश्र तक
आन उसकी कम न हो न माद हो उसकी चमक
हो शहीदों की चिताओं के मज़ारों की ज़िया
औ न हो पाए कभी ख़ामोश आख़िर तक सदा
ऐसे शोहदा जिनको अपनी जान की परवा न थी
देश-भक्ति में फना कर दी जिन्होंने ज़िंदगी
उनमें ऐसा आदमी था इक बहादुरशाह ज़फ़र
बेबसी में थी गुज़ारी जिसने हर शाम-ओ-सहर
उसकी क़ुरबानी को जो भूले नहीं वो आदमी
मीर-ए-आज़ादी को जो भूले, नहीं वो आदमी

अगली कड़ी में जारी...

7 comments:

Unknown said...

भावपूर्ण लेख है.

@ताकि हम आज़ाद हों, अपने वतन में शान से

आज़ादी के शहीदों को नमन, पर क्या हम बाकी आजाद हो पाये?

Ashok Pande said...

'सतून-ए-दार प रखते चलो सरों के चराग़
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले.'

... बहुत दुर्लभ सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं आप विजय भाई. बहुत बहुत शुक्रिया.

अगली कड़ी की प्रतीक्षा है.

seema gupta said...

दिया जिसने आज़ादी का नारा वो ज़फ़र
अपने बेटों के सिरों को जिसने देखा वो ज़फ़र
" इतिहास के बंद हुए पन्नो को दोहराना अच्छा लग रहा है ..."

regards

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

और अंत में ज़फर का यह कथन सही निकला:
दो गज़ ज़मीन न मिली कू ये यार में। अपने देश से दूर रंगून में दफन किया गया और आज भी वे वहीं सो रहे हैं!

siddheshwar singh said...

इंतजार है अगली कड़ी का...

एस. बी. सिंह said...

बहुत अच्छा आलेख। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।

Unknown said...

बहुत सुंदर जी