Friday, February 13, 2009

मुरदा गधे पर लाठी चारज करने की भारतीय परम्परा अक्षुण्ण रहे अक्षुण्ण रहे


जैसा कि सर्वविदित है कल एक एतिहासिक दिवस है. कुछ जबरिया शादियां होनी हैं. कुछ ख़ास वैराइटी के कपड़े बंगलूर भेजे जाने हैं. सारा देश भूख-प्यास-भ्रष्टाचार-हत्या-कमीनपन-अकाल-मन्दी छोड़कर प्रेम में डूब जाएगा. सब अच्छा हो जाएगा.

हिन्दी ब्लॉग जगत ने इस एतिहासिक अवसर पर कुछ विशिष्ट वस्त्रों को ले कर जो अभूतपूर्व उत्साह दिखाया है, वह श्लाघनीय तो है ही अनुकरणीय भी है.

मिर्ज़ा कब्बन जब भी न्यूज़ चैनलों में ख़बरों को घन्टों बलत्कृत होता देखते हैं तो बेसाख़्ता कह उठते हैं : "मुरदा गधे पे लाठी चारज हो रिया मियां! ..."

पुनश्च: एक अच्छे भले मुद्दे का भुस भर देने वाले महात्माओं को शीश नवाता हूं. मैं कबाड़ख़ाने की तरफ़ से सुजाता, रचना और तमाम साहसी लोगों विशेषतः महिला-ब्लॉगरों को समाज के फ़र्जी दम्भ और पिलपिल मूल्यों के समक्ष लगातार डटे रहने के लिए बधाई भी देता हूं. आई मीन इट!

पुनश्च २: २० तारीख़ तक काफ़ी व्यस्त हूं. और इस विषय पर सोचते हुए भीतर उठ रही तमाम बातों पर उसके बाद ज़रूर लिखूंगा. अन्य कबाड़ियों से जागने और कुछ लिखने की विनती भी करता हूं.

5 comments:

रंजना said...

Aakhir aapne bhi likh hi diya........

Dilip Sanchora said...

"हिन्दी ब्लॉग जगत ने इस एतिहासिक अवसर पर कुछ विशिष्ट वस्त्रों को ले कर जो अभूतपूर्व उत्साह दिखाया है, वह श्लाघनीय तो है ही अनुकरणीय भी है."

now you are standing in the same league ... :)


nice blog...

महेन said...

"देखने वाले मुझे दर्द-ऐ-मुहब्बत की क़सम
मैंने इस दर्द में दुनिया को भुला रखा है"

एस. बी. सिंह said...

चलिए इसी बहाने मंदी के इस दौर में विशिष्ट वस्त्र बेचने वालों का ही कुछ भला होजायेगा।

विष्णु बैरागी said...

दुनिया में जब तक एक भी मूर्ख जीवित है, सारे बुध्दिमानों का धन्‍धा चलता रहेगा।