Tuesday, March 10, 2009

सफ़रनामा पूना से मारुति ८०० कार बागेश्वर पहुंचाने का: अंतिम हिस्सा


सफ़रनामा पूना से मारुति ८०० कार बागेश्वर पहुंचाने का: पांचवां हिस्सा

-शम्भू राणा

हाथरस आ पहुंचे. काका हाथरसी का शहर. शहर में पहुंचते ही घुटने-घुटने गड्ढे में जा घुसे. दुर्घटनावश नहीं जानबूझकर. क्योंकि कार उड़ नहीं सकती थी और हमें आगे जाना था. उन गड्ढों में इतना पानी था कि बच्चे तैरना सीख सकते थे. गाड़ी का निचला हिस्सा पानी के भीतर किसी चीज़ से टकराया, गाड़ी एक धचके के साथ आगे बढ़ी, लगा कि बला टल गई. आगे रेलवे क्रॉसिंग था. ट्रैफ़िक थमकर ट्रेन को गार्ड ऑफ़ ऑनर पेश कर रहा था. ट्रेन गुज़र गई, ट्रैफ़िक रेंगने लगा. हम जब पटरी के ऐन बीच में पहुंचे, गेयर बदलने के लिए जो मुदगरनुमा छड़ होती है, वह एक कर्कश आवाज़ के साथ तेज़ी से घूमी, केशव का बायां घुटना और कैसेट प्लेयर फ़ोड़कर थम गई. झन्न से कोई चीज़ सड़क पर गिरी और गाड़ी ठप्प. गेयर बक्सा टूट गया था.उसी का छड़ जैसा कोई हिस्सा नीचे आ गिरा था. पटरी तब तक पार कर चुके थे. गाड़ी बीच बाज़ार में खड़ी हो गई. गाड़ी रुकी तो पास में ही किसी मैकेनिक को होना था, जो कि था. एकाध घन्टा लगा, गाड़ी फिर चकाचक. इस बहाने मुझे और रज्जन बाबू को चाय पीने का मौका मिल गया.

गणेशजी की चमचागीरी अब तक बेनतीज़ा रही थी, आगे क्या फल देती. उन्हें जहां वे स्थापित थे उसी के बॉक्स में डाल दिया कि जाओ महाराज हमारी ओर से थाल भर खयाली लड्डू खाओ. तुम्हारे बस का कुछ नहीं.

दिन में एक-डेढ़ बजे के आसपास गाड़ी को कासगंज का एक वीरान इलाका भा गया इसलिए वह फिर रुक गई. हम समझ गए कि यकीनन आसपास कोई मैकेनिक होगा. केशव ने फिर एक बार हनुमान का रोल निभाया और एक जुगाड़ में लटक कर मैकेनिक नाम की संजीवनी लाने चला. मैकेनिक ने आकर दोएक पुर्ज़ों की मां-बहन से अपने अंतरंग संबंधों का हवाला दिया, तेल का पाइप खोल कर बोला - इसे आप चूसो, मेरा रोज़ा है. गाड़ी स्टार्ट. उसने तीन चीज़ों के पैसे लिए - दुकान से बाहर जाने के, आने-जाने में मोटरसाइकिल में जो तेल लगा उसके और अपने मेहनताने के - करीब तीनेक सौ रुपये. पूछा कि भाई पैसे तो तूने मनमाने के लिए मगर गारंटी क्या है. उस मुसल्ल्म ईमान वाले रोज़ेदार ने फ़रमाया - भाईजान मेरी दुकान तक गारंटी है, बाकी ख़ुदा के निज़ाम में दख़ल देने वाला मैं कौन होता हूं. वह मोटरसाइकिल से हमारे साथ साथ चला. दोएक किलोमीटर चलने के बाद गाड़ी फिर ठप्प. दुकान से लगभग आधा किलोमीटर पहले -गारंटी पीरियड में. अब बोल भय्ये, क्या कैरिया था?

बेचारी रज़िया गुंडों में घिर गई थी. समझना मुश्किल नहीं था कि जाहिलों के बीच में आ फंसे हैं. मैकेनिक की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था, बस वक्त बिताई हो रही थी. नमाज़ का वक्त हुआ और फिर देखते ही देखते रोज़ा खोलने का वक्त भी आन पहुंचा. मैकेनिक ने पेट्रोल का पाइप खोल रखा था और मोमबत्ती की रोशनी में उसका मुआयना कर रहा था. एक टॉर्च ख़रीदा गया और मोमबत्ती बुझवाई गई. अंत में मैकेनिक और उसके चेले-चांटे फिर नमाज़ को चले गए यह यकीन दिलाकर कि अब कोई दिक्कत नहीं आएगी. जहां तक मर्ज़ी हो जा सकते हो. दोएक सौ रुपए फिर झाड़ लिए - बावजूद गारंटी के.

दो-तीन किलोमीटर चलने के बाद कुत्ते की पूंछ फिर टेढ़ी. घना अंधेरा, वीरान इलाका, दूर तक किसी बस्ती का निशान नहीं, मदद की कोई संभावना नहीं. पीछे लौट कर जाना हद दर्ज़े की बेवकूफ़ी. ख़ुद ही टॉर्च की रोशनी में बोनट खोलकर थोड़ा छेड़खानी की, तेल का पाइप चूसा, गाड़ी चल पड़ी. हम सोच रहे थे कि कम से कम बदायूं तक तो पहुंच जाएं ताकि रात रहने के लिए कोई ढंग की जगह मिल जाए और सुबह को मैकेनिक. कासगंज-बदायूं की सरहद पर कहीं थे हम. पांचेक मिनट बाद ही गाड़ी का दम फिर फूल गया. लेकिन इस बार किसी बस्ती से २०-२५ मीटर पहले.गाड़ी धकेलते हुए पहले ढाबे तक पहुंचे. ढाबे के मालिक मुकेश सिंह ने हमारी हालत पर तरस खाकर रात वहीं रुकने की इजाज़त दे दी. हालांकि मुसीबत में फंसे लोगों को पनाह देने के उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे थे. कोई उनका मोबाइल ले भागा तो कोई बरामदे में पाखाना कर चलता बना. मुकेश सिंह कुछ ही समय पहले तक किसी सिगरेट कम्पनी में नौकर थे. मालिक से तनख़्वाह को लेकर झगड़ा हो गया. सिंह साहब मालिक को जहां से आए हो वहीं घुस जाओ (मूल गाली का शाकाहारी अनुवाद) जैसी असंभव राय/गाली देकर घर चले आए और ढाबा खोल लिया.दुकानदारी जैसी चीज़ मुकेश सिंह जैसे खरे और मुंहफट लोगों के बस की चीज़ नहीं होतीं और न वह ढाबा चल ही रहा था. वह उनका बेकारी का दौर था. अब पता नहीं कहां, कैसे होंगे. पूरे सफ़र में यही एक आदमी सच्चा और मददगार हमें मिला. नीलकंठ गेस्ट हाउस वाले भय्याजी को नहीं भूला हूं मगर वो ज़रा अलग चीज़ थे क्योंकि गायछाप थे. रज्जन बाबू और मैं नारियल के रेशों वाली रस्सी से बुनी चारपाइयों पर बिना किसी ओढ़ने-बिछाने के सो गए. केशव ने गाड़ी की सीट को ईज़ी चेयर की तरह फैला लिया.

सुबह को मुकेश सिंह हमारे लिए कामचलाऊ सा (ट्रैक्टर का) मैकेनिक बुला लाए. गाड़ी को धक्का भी उन्होंने लगाया. सिर्फ़ खाने और चाय के पैसे लिए. चलते समय भरोसा दिलाया कि बदायूं पहुंचने से पहले कहीं दिक्कत हो तो मुझे फ़ोन कर लेना. मैं मोटरसाइकिल में मैकेनिक को लेकर आ जाऊंगा.

उस दिन न जाने क्या बात हुई कि गाड़ी का दिल किसी मैकेनिक पर नहीं आया! दो-चार बार जब कभी उसका दम फूला तो हमीं से संतुष्ट हो गई. शायद हमको भी मैकेनिक मान बैठी हो क्योंकि मैकेनिकों के देख-देख कर हम भी गाड़ी रुकने पर गाड़ी के साथ मैकेनिकों जैसी हरकतें करना सीख गए थे. बदायूं पार हो गया. धीरे-धीरे बरेली पास आता चला गया. बरेली में एक जगह फ़्लाईओवर बन रहा था, जिसकी वजह से यातायात को एक संकरी सी सड़क की ओर मोड़ दिया गया था. साइकिलें, रिक्शा, स्कूटर, कारें, बसें, पैदल लोग, गरज़ कि हर तरह की रेलमपेल. हर शख़्स दूसरे के सर पर पांव रख कर आगे जाने की जुगत में. हटो, बचो और हॉर्न की चिल्लपों. हर आदमी खार खाया हुआ. तनी हुई रस्सी पर चलने की सी एकाग्रता से चलना भी ज़रूरी. ट्रैफ़िक किसी सिविल के मुकदमे की तरह रेंग रहा था. युग बीत गए चलते-चलते. लगभग आधे घन्टे बाद निकलना हो पाया इस सब से. गाड़ी से सारी शिकायतें दूर हो गईं क्योंकि अगर उस रेलमपेल में गाड़ी कहीं रुकती तो हमारा पिटना तय था और गाड़ी को कबाड़ी भी लेने से मना कर देता. सांस में सांस आई. ऐसे ही प्राण उस दिन सुबह तब सूखे थे जब कासगंज-बदायूं सीमा पर बने कछला ब्रिज को पार किया था. उस दिन वह ब्रिज हमें दुनिया के सातों आश्चर्यों का कपड़छान ही लगा. कछला ब्रिज में रेल की पटरी सड़क के बीचोबीच चलती है. रोंगटे खड़े हो गए यह सोचकर कि आगे या पीछे से धड़धड़ाती रेल आ गई तो? गाड़ी छोड़ कर नदी में कूदने की भी फ़ुरसत शायद न मिलती. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. करीब एकाध किलोमीटर लम्बा ब्रिज गाड़ी फ़र्राटे से पार कर गई.

लगभग तीनेक बजे जब हल्द्वानी पहुंचे तो यकीन हुआ कि बच गए. पूना से जो पैंट-कमीज़ का कपड़ा हमको उपहार में मिला था, उसकी अब पैंट कमीज़ ही बनेगी. वरना नासिक के बाद दिमाग में एक ख़्याल बीएसएनएल के मोबाइल सिग्नल की तरह लगातार आ-जा रहा था कि कहीं नियति ने हमें कफ़न तो गिफ़्ट नहीं करवा दिया.

हल्द्वानी में कार का कायाकल्प होने में करीब तीसेक घन्टे लगे. उसका तेल टैंक सहित जाने क्या-क्या बदला गया. बिल लगभग पन्द्रह हज़ार रुपया. पूना से बागेश्वर पहुंचने में जितना ख़र्च हुआ होगा उतने में शायद नई कार भी आ जाती. ख़ैर साहब ख़र्चे मो मारिये झाड़ू. एक तो अपनी जेब से नहीं गया था और दूसरे ऐसे मौके पर रुपए पैसे की बात अच्छी नहीं लगती. हर चीज़ से बड़ी बात हमारे लिए यह थी कि सही सलामत हल्द्वानी पहुंच गए थे. मतलब कि फ़िलहाल दुनिया में कुछ दिन और दाना-पानी बाक़ी बचा था.

गाड़ी बेचारी जो थी हमारी वह दिल की मरीज़ निकली. पूना में गाड़ी बिना इस्तेमाल किए लम्बे अर्से से खड़ी थी जिसकी वजह से उसका तेल टैंक अंदर से जंग खा गया था. नासिक के बाद उसी जंग के ज़र्रे आ आकर तेल के पाइप में फंसते रहे और गाड़ी लकवाग्रस्त होती रही. गाड़ी को किसी हार्ट स्पेशलिस्ट की ज़रूरत थी जबकि इलाज जनरल फ़िजीशियन करते रहे. ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज़ बढ़ता गया. हमारी व्यथा जो कि अब कथा हो चुकी, को वही बेहतर समझ सकता है जिसने कभी सरकारी अस्पतालों में किसी गम्भीर रोग का इलाज करवाया हो और दुर्घटनावश ज़िन्दा रह गया हो.

चौबे जी गाड़ी की अगवानी के लिए अल्मोड़ा पहुंचे हुए थे. केशव को गाड़ी समेत उनके हवाले करके रज्जन बाबू और मैं वहीं पर उतर गए. गाड़ी केशव और चौबेजी खैरियत से उसी रात बागेश्वर पहुंच गए.

बाद में कई बार उस गाड़ी में सफ़र करने का मौका मिला तो अकसर पुराने सफ़र की यादें ताज़ा हुईं - मतलब कि गाड़ी अलग-अलग कारणों से ठप्प हुई. गाड़ी अभी चालू हालत में है और बागेश्वर शहर में टहलती हुई देखी जा सकती है. हां ज़ुकाम-बुख़ार जैसी छोटी-मोटी शिकायतें उसे आए दिन होती ही रहती हैं. दुआ करनी चाहिए कि उसे अच्छी सेहत और लम्बी उम्र मिले.

आमीन!

पहली किस्त का लिंक
दूसरी किस्त का लिंक
तीसरी किस्त का लिंक
चौथी किस्त का लिंक
पांचवीं किस्त का लिंक

11 comments:

Prakash Badal said...

आपको होली की शुभकामनाएं।

Prakash Badal said...

शुक्र है आपकी गाड़ी को एक अच्छा डॉक्टर मिल गया वरना खर्चा तो बढ़ता ही रहता। इस बात को लेकर संतुष्टि है कि वो गाड़ी अब भी स्वस्थ टहलती हुई दिखती है। जुकाम-बुखार तो चलता ही रहता है अगर ऐसा न हुआ तो मैकेनिक जिसको होना चाहिए, नहीं होगा।

sanjay vyas said...

वाह जी शुक्रिया.

शिरीष कुमार मौर्य said...

नैनीताल समाचार में इस कथा को पढ़ा ! यहां फिर पढ़ा! 2-4 दिन बाद राणा जी की किताब का प्रूफ आने वाला है, सो फिर पढूंगा लेकिन ये तय है कि मन कभी नहीं भरेगा !

siddheshwar singh said...

तो लो जी पूरा हो गया सफ़रनामा. 'नैनीताल समाचार'में इसे पढ़ चुका हूँ फिर भी इससे गुजरना बहुत भला लगा. एक अच्छा गद्य पढ़ने को मिल जाय तो क्या कहने !
सफ़रनामे की किस्तों की निरंतरता के बीच मैंने होली का गाना लगाकर कोई क्रमभंग तो नहीं कर दिया ?
क्या करें भंग का रंग ..

मुनीश ( munish ) said...

Shambhu bhai seems a Hyundai agent 'cos i've met no one till date cursing a M-800. Jokes apart, thanx Ashok bhai for providing us a matchless opportunity to taste the delicious similies and exotic metaphors so rare in modern day prose. However, lets not forget that Maruti-800 is THE car which taught India how to drive!! Wretched are those who are refraining from writing comments on this lovely travellogue !Vrooooooom...............!!

मुनीश ( munish ) said...

Ek baat aur ye Nainital Samachar aur Rajasthan Patrika type akhbaar aaj bhi Dilli ke akhbaron pe 100 gunabhaari hain bhaee jee!

महेन said...

मज्जा आ गया हो
ऐनमैन दो यात्राओं की याद हो आयी और संतोष हुआ कि ऎसी हरकतें करने वाले और भी हैं.

ghughutibasuti said...

गजब का सफ़र किया इस गाड़ी व गाड़ी में सवार लोगों ने।
होली की शुभकामनाएँ !
गाड़ी को भी !
घुघूती बासूती

Unknown said...

क्या आंख है मुसाफिर की-पेटी मास्टर ने गाने की लाइनें क्यों छोड़ दीं और ट्रैफिक कैसे सिविल का मुकदमा हो चला था। ताजगी भरे असल ट्रैवलॉग के लिए बधाई।

मेरे लेखे इस यात्रा की उपलब्धि सूने गेस्ट हाउस के सादे से भैय्याजी हैं। आग्रह है कि एक पोस्ट उन पर कबाड़खाने में हो जाए।

Unknown said...

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