बचपन से ही कबीर की रचनाओं को पढ़ने - सुनने का क्रम जारी है और हमेशा लगता रहा है कि 'मसि कागद' न छूने वाला यह इंसान आम भाषा में कितना सटीक और हर लिहाज से मौजूं अभिव्यक्तियाँ कर गया है कि कुछ कहते नहीं बनता। कबीर और उनकी कविता पर इतना कुछ कहा जा चुका हि कि मेरे कहने का कोई नहीं रह जाता ।
आज कोई टीप-टिप्पणी न करते हुए बस कबीर का यह बहुश्रुत पद सुना जाय-
दुलहिनी गावहु मंगलचार.
हम घर आए हो राजा राम भरतार.
तन रति करि मैं मन रति करिहौं पंचतत्त बाराती
रामदेव मोहे पाहुनैं आए मैं जोबन मैंमाती
सरीर सरवर वेदी करिहौं ब्रह्मा वेद उचारैं
रामदेव संग भाँवर लेहौं धन -धन भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलचार.
सुर तैंतीसों कौतिग आए मुनिवर सहस अठासी
कहै कबीर हम ब्याहि चले हैं, पुरुष एक अविनासी.....
दुलहिनी गावहु मंगलचार.
हम घर आए हो राजा राम भरतार.
रचना - कबीर
स्वर - शुभा मुदगल
6 comments:
kya kahen! Kabir ne bade badon ki bolti band kar di . Dhanyavaad rachna sunvaane ke liye.
बेहतरीन प्रस्तुति! धन्यवाद साहेब!
क्या बात है. इन दिनों मन कबीरमय हो रहा था. यहां कबीर को पाकर बहुत सुकून सा हो रहा है. शुक्रिया!
कबीर की सुन्दर अभिव्यक्ति ....!!
adhbhut hai!
शुभा को सुनना अच्छा लगता है।
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