Wednesday, June 10, 2009

क्या कहता है पिकासो का बुल !























खबर है कि पिकासो म्यूजियम पेरिस से पिकासो की एक स्कैचबुक चोरी हो गई है। जाहिर है इसकी कीमत करोड़ों में हैं। यहां पिकासो की बुल श्रृंखला की ग्यारह कलाकृतियां दी जा रही हैं। इसकी खूबसूरती यह है कि कैसे इस महान चित्रकार ने एक ठोस और जीवंत बुल को एक रचनात्मक प्रक्रिया में कितना अमूर्तन करके उसे एक नया रूप दे दिया है। यह उनकी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता का एक अद्भुत और बेमिसाल खेल है। शुरूआत में एक ठोस, खुरदुरा और आक्रामक बैल है। आप गौर करेंगे इसे पहले ब्रश के सधे ट्रीटमेंट से टोनल इफेक्ट दिया है ताकि उसे ठोस और उसकी त्वचा को खुरदुरापन दिया जा सके। और इसके बाद वे धीरे धीरे अपनी अचूक निगाह से उसे, सधी रेखाओं से, रूप के स्तर पर प्रयोग करते हुए. संतुलन साधते हुए लगातार नया रूप देते चलते हैं। वे उसके शुरुआती आकारों में से कुछ चीजें मिटाते चलते हैं धीरे धीरे जैसे जैसे यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है वे नई चीजें जोड़ते चले जाते हैं। मुंह से लेकर सींग, धड़ से लेकर पीछे के हिस्से और पैर से लेकर पूँछ तक वे नए नए आकार गढ़ते हैं और ठोस और जीवंत प्राणी को ऐसा अनोखा रूप देते हैं जो अपने में अमूर्त है लेकिन बावजूद इसके अपने कुछ बुनियादी तत्वों के साथ वह कितना कलात्मक है।

पिकासो ने अपने कई चित्रों में बैल को रूपक की तरह इस्तेमाल किया है। इस श्रृंखला के बारे में भी कहा जाता है कि उन्होने इसके जरिये फासिज्म और बर्बरता पर टिपप्णी की है तो यह भी कहा जाता है कि यह आक्रामकता की अभिव्यक्ति है। कहा तो यह भी जाता है कि यह उनकी सेल्फ इमेज है। यह गौर करने लायक यह बात है कि वे बैल के जननांगों को काले रंग से हाईलाइट कर उसके जेंडर पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करते हैं। वे बैल की मांसपेशियों को रिड्यूस करते हैं, मुंह को और सिर को भी। सींग में बदलाव देखा जा सकता है औऱ पूंछ में भी। इन दोनों में एक तरह की लयात्मकता है, लगभग लिरिकल। फिर आप यहां रेखाओं का इतना कल्पनाशील इस्तेमाल भी देखा जा सकता है जिसकी बदौलत यह प्राणी कई टुकड़ों में बंटा दिखाई देता है लेकिन साथ ही आकार में एकता है। वे लगातार इस आकार को सरल करते जाते हैं और आखिर में वह आकार इतना सरल हो जाता है कि सिर्फ रेखाओं में स्पंदित रहता है और उसकी खूशबू बरकरार रहती है।

आप इस महान चित्रकार की ताकत, उसकी यौनिकता, उसके रूपक, उसकी निगाह, उसकी प्रयोगधर्मिता, और रेखाओं के जादू का मजा लें और यह भी सोचें कि क्या कहता है पिकासो का यह बुल!

पिकासो के बहुत ही सरल और खूबसूरत रेखांकनों पर एक पोस्ट जल्द ही।

स्रोत: आर्टफैक्ट्री

30 comments:

ravindra vyas said...

पिकासो की यह बुल श्रृंखला यहां नीचे से शुरू हुई है। इसे नीचे से ऊपर की तरफ देखें। जल्दबाजी में गलत लग गए हैं। वस्तुतः ये ऊपर से नीचे लगना थे। यानी सबसे आखिरी का चित्र सबसे ऊपर और फिर बाकी भी इसी तरह से।

Ashok Pande said...

लीजिये चित्रों का क्रम अब ठीक कर दिया रवीन्द्र भाई! चलिए पिकासो की स्कैचबुक की चोरी के चक्कर में कबाड़ख़ाने पर तो आया यह उस्ताद!

उत्तम!

Ashok Pande said...
This comment has been removed by the author.
ravindra vyas said...

बहुत बहुत शुक्रिया अशोक भाई। अब यह सही हो गई है।

Ashok Pande said...

और हां सन्‌ २००६ में नाचीज़ को वियेना के लियोपॉल्ड म्यूज़ियम में लगी पिकासो के स्केचेज़ की एक दुर्लभ प्रदर्शनी में इस सीरीज़ को देखने का सौभाग्य मिल चुका है.

बहुत ज़रूरी और बढ़िया पोस्ट लगाने का शुक्रिया!

ravindra vyas said...

आपसे ईर्ष्या हो रही है अशोक भाई।

बसंत आर्य said...

पूरी सीरिज यो है जैसे बुल धीरे धीरे खुल रहा हो.

संदीप said...

धन्‍यवाद रवींद्र जी, पिकासो के रेखांकनो पर आपकी पोस्‍ट का इंतज़ार रहेगा।


यदि और भी कलाकारों, पेंटिंग्‍स के बारे में श्रृंखलाबद्ध पोस्‍ट लिखें तो पेंटिंग को सराहने की समझ में इज़ाफा होगा। मतलब कंटेंट और फॉर्म दोनों के बारे में कुछ बातें बताएं तो....

ravindra vyas said...

संदीपजी बहुत बहुत शुक्रिया। आपका सुझाव अच्छा है। इस बारे में मेरी श्री अशोक पांडे से बातचीत हुई है। उनका यही कहना था कि मैं चित्रकारों को लेकर अपनी छोटी छोटी टिप्पणियां दूं। मेरी कोशिश रहेगी कि आप कबाड़खाना पर ये टिप्पणियां नियमित अंतरालों पर पढ़ सकेंगे।

संदीप said...

धन्‍यवाद रवींद्र जी।

मुनीश ( munish ) said...

If u happen to be in orissa near Konark n Puri u will find a pair of traditional lion statues outside many houses and buildings with very well defined and erect Jananangs like the Picasso bull.

mahesh said...

पिकसो के ये रेखाचित्र क्यूबिज़्म को समझने में भी मदद करते हैं.कैसे किसी जैविक या भौतिक संरचना के भीतर ज्यामितीय आकृतियां वे देख लेते थे इस बात का अनुपम उदाहरण हैं ये चित्र.
शानदार पोस्ट.

Rangnath Singh said...

i m feeling that i m sitting in a class room of modern art.hindi belt is in great need of this type of cultral upgradation. thank you sir for making me type of ppl more knowledgeable about modern art. plz do post this type of posts on regular basis.
your critical comment was very helpful for understanding the meaning of this great art work. i hope you will tell us some other possible analysis of the this same picture series

शरद कोकास said...

सबसे ऊपर का स्केच मुझे कहीं बीच का लगता है एक बार फिरसे देखना तो.. दर असल यह सीरीज एक चित्रकार की मेहनत को परिभाषित करती है इतना श्रम और ऐसी दृष्टि के बगैर पिकासो होना असम्भव है

संजय पटेल said...

आपके मन में बैठे कवि,चित्रकार और लेखक के ज़रिये एक सर्वकालिक महान चित्रकार के काम की बारीक़ियों को समझने का शऊर दिया रवीन्द्र भाई आपकी इस पोस्ट ने...बहुत शुक्रिया. अशोक भाई के मशवरे पर जल्द ही काम शुरू कीजिये , हम सबका भला होगा....

अनूप शुक्ल said...

शुक्रिया इन स्केच को दिखाने का!

ravindra vyas said...

मुनीश जी, आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैंने नटराज की तांडव नृत्य करती मूर्ति का एक चित्र देखा था जिसमें उनका लिंग नब्बे डिग्री के कोण पर था। हम सब जानते हैं कि वह विध्वंस और रचने का एक नायाब रूपक है। उस नब्बे डिग्री के कोण के जरिये शायद यही अभिव्यक्त किया गया कि किसी भी रचना के लिए एक अनिवार्य तनाव जरूरी है। मुझे नहीं पता कि इस भारतीय रूपक और पिकासो के बीच क्या संबंध है (यहीं याद किया जा सकता है कि शिव के साथ उनका नंदी)। लेकिन शायद इतना तो कहा ही जा सकता है कि अपने इस मेटाफर के जरिये पिकासो भी रचने के लिए अनिवार्य तनाव को रेखांकित कर रहे हों।
प्रिय रंगनाथ, सच कहूं तो मैं कला का पारखी तो नहीं लेकिन उसे समझने की कोशिश करता रहता हूं। उसकी कई तरह से व्याख्या की जा सकती है। उदाहरण के लिए महेशजी ने क्यूबिज्म को लेकर बात की है। मैंने उसका इशारा अपनी पोस्ट में किया है कि किस तरह से अपनी कल्पनाशील रेखाओं के जरिये काट कर लेकिन उसकी एकता को बरकरार रखते हुए एक नया बुल आविष्कृत करते हैं। वह पिकासो के क्यूबिज्म पर ही टिप्पणी है। इसकी एक व्याख्या रूपाकार को गढ़ने वाली विलक्षण आंख पर की जा सकती है। यानी एक आकार को रिड्यूस करके कैसे नए रूपाकार गढ़े जा सकते हैं। इसे उस बर्बरता के आईने में भी देखा जा सकता है जिसका संबंध गुएर्निका और जनरल फ्रेंको से जुड़ता है। फिर एक व्याख्या यह भी की जा सकती है कि एक कलाकार की सेक्सुआलिटी (कोलंबियन गायिका शकीरा का मैं शायद इसलिए भी दीवाना हूं कि वे अपने नाच में बहुत ही कल्पनाशील और साहसिक ढंग अपनी ही देह को आविष्कृत करती हैं) किस तरह उसकी रचना को प्रभावित करती है। एक व्याख्या यह है कि पिकासो ने कई माध्यमों में काम किया। कहा जाता है कि वे जब वे जब अपनी उम्र के साठवें पड़ाव पर थे तब उन्होंने सिरेमिक में काम करना सीखा। उनके इस बुल को उनकी आंतिरक रचनात्मक आक्रामकता और आवेग से जोड़कर व्याख्या की जा सकती है। निश्चित ही मैं कोशिश करूंगा कि इस सीरीज को लेकर अपनी एक पोस्ट लगाऊं। शरद भाई यह सीरीज मैंने फिर से देखी। ये बिलकुल सही क्रम में लगी हैं। आपको यह भ्रम शायद इसलिए हो रहा है कि दूसरी कृति में बुल पर पिकासो ने ज्यादा काम किया है। उसे ज्यादा ठोस, मस्कुलर और आक्रामक दिखाया है। आप गौर करेंगे कि दूसरी कलाकृति में उसे एक खास मुद्रा में बनाया गया है। संजय भाई, अशोक भाई के मशविरे पर काम शुरू कर दिया है।
अनूपजी शुक्रिया।

ravindra vyas said...

शरद भाई, आप तीसरी और चौथी कृति पर ध्यान देंगे तो बात साफ हो जाएगी।

Rangnath Singh said...

2003 मेे काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में एक प्रदर्शनी दिखाई गयी थी। वहाँ कला विशेषज्ञ ने पिकासो की कलाकृति दिखायी थी। उसने उस चित्र को अपने यंत्र के माध्यम से परत दर परत उघाड़ कर दिखाया। सबसे नीचली सतह पर तमाम कुछ क्यूब का संयोजन था। अब तक क्यूबिस्म के बारे में मेरी यही समझ थी। आप थोड़ा स्पष्ट करें तो हम जैसे को लाभ मिले।
बनारस निवासी होने के बावजूद नटराज के के बारे में ज्यादा नहीं जानता। बनारस में ऐसी कोई शिल्प है या नहीं यह भी नहीं कह सकता ! मैंने नटराज की वह मूर्ति देखी नहीं है लेकिन आप बताए विवरण के अनुसार दुस्साहसिक ढंग सिर्फ और सिर्फ उस एक प्रतीक के बारें में अनुमान लगाऊँ तो कहुँगा कि, परंपरागत भारतीय सबकांशस में नर होने और शक्तिशाली होने में जो संबंध है उससे इस प्रतीक का एक संभावित व्याख्या की जा सकती है। हो सकता है यह प्रतीक शिव के चरम आंतरिक तनाव को अभिव्यक्त करता हो। यह भी हो सकता है कि यह शिव के आनन्द के सबसे परमावस्था में होने को अभिव्यक्त करता हो।
आप इस पर जो भी कहेंगे उसका इंतजार रहेगा।
हमारे प्रश्न बचकाने लगें तो भी सहन कीजिएगा क्योंकि कला के बारे में इधर का मामला वही है।

Rangnath Singh said...

आनन्द कुमार स्वामी का दक्षिण एशिया की कला पर अति प्रसिद्ध निबंध(जो उनकी किताब का एक अध्याय है) मेरे पास है। कुमारस्वामी के निबंध हिन्दी में है या नहीं ?
यदि नहीं तो मैं उस बहुत लम्बे अध्याय का हिन्दी अनुवाद करने की कोशिश करूँ।

मुनीश ( munish ) said...

I think this whole issue of phallic symbols in ancient art deserves an independent post . One thing is certain ,however, it has been there in world's every ancient civilization be it Mayan,Chinese or Indian for that matter.

मुनीश ( munish ) said...

....as certain as the fact that this is the den of genuine and intellectually inclined bloggers.

ravindra vyas said...

प्रिय रंगनाथ। आप सही कह रहे हैं, मैने तो उन संभावनाओं को ही बताने की कोशिश की है कि कितनी तरह से इसकी व्याख्या और विश्लेषण किया जा सकता है। क्यूबिज्म का बहुत ही सरलतम ढंग से यूं समझा जा सकता है कि जिस तरह से बच्चे गत्ते के टुकड़ों से कभी कोई मकान या पुल बनाते हैं ठीक इसी तरह से पिकासो ने (और उनके साथी ब्राक ने भी )वस्तु के आकार को घनवादी शैली में बनाया । फर्क इनता है कि ऐसा करते हुए उन्होंने वस्तु का हूबहू चित्रण न करते हुए टुकड़ों में चित्रण किया। यानी मान लीजिए उन्होंने कोई गिटार, मेंडोलिन बनाई तो उसके तार कहीं बनाएं, उसके नीचे का आधार कहीं बनाया और ऊपर का हिस्सा कहीं और बनाया। यानी वस्तु के आकार को अपनी कल्पनारंजना से रूपाकार दिया और देखने की नई दृष्टि दी। यूं भी कहा जा सकता है कि उन्होंने किसी वस्तु या आकार को टुकड़ों में बांटकर उसकी पुनर्रचना की। इन पुर्नसृजित टुकड़ों को उन्होंने सुविचारित शेड्स से बनाया ताकि उनके घनत्व को स्पष्ट किया जा सके या बढाया जा सके। इस तरह आंख से देखे गए आकार के बजाय उनकी चित्रकृतियंा अनुभूति के अधिक निकट थीं। हालांकि बाद में इन दोनों कलाकारों ने घनत्व को भी खत्म कर एक समतल आकार देना शुरू किया और कपड़े सेल कर अखबार, माचिस से लेकर जालियां और ताश के पत्तों का इस्तेमाल शुरू किया। बाद में यही कोलाज कला के रूप में विकसित हुा। क्यूबिज्म के तहत इन कलाकारों ने ज्यादातर वाद्ययंत्र, कपबशी, टेबल-कुर्सी, गिलास आदि वस्तुएं बनाई गईं। कई बार इनका चित्रण इसी खूबी से किया गया कि ये आकार पारदर्शी दिखाईं दें। जिसका कि जिक्र आपने आपने अपने कमेंट में किया है कि किस तरह से एक परत को हटाकर उसके नीचे दूसरी परत दिखाई गई।
मुनीश जी, आप ठीक कहते हैं कि वह इशु ऐसा है कि उस पर एक स्वतंत्र पोस्ट की दरकार है।

Rangnath Singh said...

priy ravindra ji
aap ki sundar aur saral vyakhya se abhibhut hu. sach puchhiye to aapki tippani ke bad chitrakala me me meri ruchi pahale se bahut jyada badh gyi h.
mujhe to lagta h ki aap painting/visual art ka alag blog bana le to wah bahut safal rahega. maine jamia mass comm ke ladko ko kabadkhana dekhne ko kaha h.

aap ke is visay me likhe har vakya ka intjar rahega

ravindra vyas said...

प्रिय रंगनाथ, बहुत बहुत शुक्रिया। सच कहूं तो मैं कला में रस ही लेता हूं। मेरी प्रकृति भाववादी है। मैं अपने इम्प्रैशंस पर जिंदा रहता हूं। मुझे अकादमिक काबिलियत बिल्कुल नहीं है। क्योंकि उसके लिए जो अनुशासन और अध्ययनशीलता चाहिए वह मुझमें नहीं है। किसी पोस्ट के जरिये मैं आपको और बेहतर ढंग से बताने की कोशिश करूंगा बल्कि सही कहना यह होगा कि मैं खुद उसे बेहतर ढंग से समझने की कोशिश करूंगा। मैं अपने ब्लॉग हार कोना पर चित्रकला के बारे में लिखता रहता हूं क्योंकि मुझे उसमें रस आता है। मुझे खुशी है कि पीकासो की पोस्ट के जरिये जामिया के स्टूडेंट्स कबाड़खाना से आत्मीय परिचय पा सकेंगे।
शुभकामनाएं।

संदीप said...

रवींद्र जी, वाकई में आपने बेहद सरल तरीके से क्‍यूबिज्‍़म को समझाने का प्रयास किया है। इसी तरह पेंटिंग्‍स की अन्‍य धाराओं के बारे में बताएं तो सभी की समझ में इज़ाफ़ा होगा।
हां, यदि क्‍यूबिज़्म पर भी अलग से पोस्‍ट लिख कर उसके पीछे पिकासो के विचारों के बारे में और अन्‍य पेंटिंग्‍स की अन्‍य धाराओं के बारे में उनके दृष्टिकोण को और विस्‍तार से बताएंगे तो उससे भी मदद मिलेगी।
वैसे मुझे नहीं लगता कि कला आदि के बारे में जानने-समझने के लिए अकादमिशियन ही एकमात्र विकल्‍प हैं। कम से कम आपकी इस पोस्‍ट से तो यही विश्‍वास पुख्‍ता होता है। आपकी इसमें गहरी रुचि है, शायद इसी वजह से आप हम लोगों को इतनी सरल भाषा में पेटिंग्‍स को स्‍पष्‍ट कर पा रहे हैं। और मेरे ख्‍याल से इस तरह रंगनाथ तथा मुझे जैसे ही अनेक साथियों की रुचि पेंटिंग्‍स में और बढ़ जाएगी, और फिर यदि वे खुद भी प्रयास अध्‍ययन अवलोकन जारी रखेंगे तो केवल पेंटिंग्‍स को सराह ही नहीं पायेंगे, बल्कि उनके बारे में कोई स्‍पष्‍ट राय भी बना सकेंगे।

ravindra vyas said...

sandeepji, shukriya! meri poori koshish rahegi ke vah sab ker sakoon jiski apeksha hai!

मुनीश ( munish ) said...

Dear Rangnath,
U r doing yeoman's service to the cause of blogging by inviting young guns to watch Kabaadkhaana. we r passing through a second Renaissance when this world has to witness a great revival and upsurge in the field of liberal arts. Deteriorating economies serve as a fuel in the engine of art and so the atmosphere is ripe for great masterpieces.This phase will be over soon ,but it will give us men of great caliber and strength.

Rangnath Singh said...

munish ji
aameen !!
n thanks for all...
thanks for enriching my word power, by using word like yeoman

ravindra vyas said...

bilkul thik farma rahen hai munish ji!