Tuesday, July 28, 2009

लक्षणाओं का लाक्षागृह ...



लक्षणाओं का लाक्षागृह...

(शमशेरियत पे कुछ ग़ैर-सिलसिलेवार नोट्स)


एक निहायत सब्‍लाइम पोएट- गो के कई बुझे हुए ज़मानों ने कभी तसव्‍वुर किया हो, और जो तामीर हुआ, तो दोआबों के दरमियान उसकी आवाज़ हमारी अस्थियों के मौन में डूबी-सी लगी हो...

जिसे शमशेर बुलाते रहे फिर हम ज़मानों तलक ... ज़मानों बाद.

और उसकी संभले क़द वाली वो कविताएं, जो कहीं से भी तुर्श नहीं, तल्‍ख़ नहीं, सब्‍ज़ नहीं ... न कोई कच्‍चा-कसैलापन ... बस, एक बेतरह-सी ढलाई, दरियाओं-सी रवानी, मोम सरीखी छुअन, तांबई रंगतें ... औ' 'दाह का आलोक' ... फ़क़त!

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हिंदी में शमशेर सरीखा आस्‍वाद का आत्‍मविश्‍वस्‍त और आत्‍मसंयत उद्यम शायद ही किसी ने किया होगा. लेकिन तब भी, वे 'सुख का एकालाप' रचने वाले कवि नहीं हैं. उनकी कविताओं का वो भवन फिर चाहे कितना ही आलीशान, बेमिसाल और अगम्‍य लगे, शमशेर कभी भी बहोत दूर नहीं होते. वे शामिल हैं. वे क़रीबतरीन हैं. इतने पास अपने ... जैसे के स्‍वप्‍न, या सिकता, या फिर सांसों का सूत.

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शमशेर मिजाज़ी शा'इर हैं ... निखा़लिस मूड के पोएट. ये भी सच है के वो जां'फ़िशानी से ज्‍़यादह लुत्‍फ़ के शा'इर हैं ... एक मुसव्विर ... एक इंप्रेशनिस्‍ट आर्टिस्‍ट. फिर वे ऐंद्रिकता और संयम को एक साथ लेकर आते हैं ... जैसे सुक़ून के साथ आंच को ढाल रहे हों ... जैसे शीशा उतार रहे हों. उनकी कविता अक्‍सर पिघले मोम और पिघले शीशे की कविता लगती है. ढला हुआ रूपाकार और साथ ही संभलता-ठिठकता हुआ. ऐसी आइनेदारी और नज़रदारी (अशोक वाजपेयी के मुताबिक़ 'दृष्टिवत्‍ता') हमने पहले कहीं नहीं देखी. शमशेर जितना हाथ आते हैं, उससे ज्‍़यादा बाहर छूट जाते हैं और यही चीज़ उन्‍हें हमारे लिए और दिलक़श बनाती है. वे बेठोस हैं ... उनके यहां रंग से ज्‍़यादा 'रंगतें' हैं, उजालों से ज्‍़यादा 'उजास'. आहटें, अनुगूंजें हैं ... 'विलंबित-विपर्यस्‍त' ... प्रत्‍यक्ष या प्रत्‍यभिज्ञा से ज्‍़यादा आभासों का आभालोक ...

और रचना की गंभीर प्रयत्‍नसाध्‍य पवित्रता ऐसी के लगता है जैसे वो लक्षणाओं का कोई लाक्षागृह हो...यहां से वहां तक केवल कुंदन ही कुंदन. शायद, इसीलिए मुक्तिबोध को कहना पड़ा था- शमशेर की कविताओं के इस भवन में प्रवेश करते हुए डर लगता है.

लफ़्ज़ उनके यहां 'गौहर' हैं... मोती सरीखी नूर की बूंद. एक-एक लफ़्ज़- अपनी ख़ुदमुख्‍़तारी, अपने सुघड़ विन्‍यास में- अद्वितीय. और तमाम गेप्‍स और पॉज़ेस... अवकाश और अंतराल... उनके स्‍पर्शभर से स्‍पंदित होते, नई रोशनी में निथरते हैं. ऐसा सूक्ष्‍म और 'सजेस्टिव' पोएट हिंदी ने फिर नहीं देखा... ऐसा ज़बानों के दोआब को दिशा और परिष्‍कार बख्‍़शता कवि... जो, अगरचे देखा जाए तो, (और कुछ-कुछ असद ज़ैदी की कहन के मुहावरे में) फ़ैज़ से ज्‍़यादह फ़िराक़ की मेहफ़िल में नज़र आता है, कविता को ख़ामोशी और ख़ामोश-कहनी की तमीज़ सिखाता है, ख़लाओं तक के बारीक़ धागों को रंग और रोशनी बख्‍़शता है और इसके साथ ही जिंदगी और ख्‍़याल में अपनी पोज़ि‍शन साफ़ करने से नहीं कतराता... हिंदी कविता के इतने आग्रहों और आग्रहों के अतिचारों के बीच शमशेर ने जो सर्वमान्‍यता हासिल की है, वो भी कम महत्‍वपूर्ण नहीं है.

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मूल्‍यांकन में मुक्तिबोध उनके सबसे क़रीब पहुंचे हैं... और उनके अलावा, काफ़ी हद मलयज उनकी नब्‍ज़ पर हाथ रख पाने में क़ामियाब हो पाते हैं.

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लेकिन बलवे पे आमादा प्रोग्रेसिव पोएट शमशेर कभी नहीं रहे. उनमें एक ज़हानत है और एक समझ की परदेदारी भी. उनमें संकोच है. हिंदी के प्रगति रथ ने उन्‍हें अपने तीन मूर्धन्‍यों (नागार्जुन और त्रिलोचन समेत) में शुमार किया, फिर भी, कम से कम दो दफ़े ('प्‍लाट का मोर्चा' और 'चुका भी हूं मैं नहीं' की भूमिकाएं) में वे अपनी और अपनी रचना की 'प्रगतिशीलता' पर संकोच जता जाते हैं. ऐसा नहीं है के शमशेर शामिल नहीं हैं, लेकिन वे शोरगुल नहीं मचाते, दूसरे 'सम्‍बद्ध हूं, प्रतिबद्ध हूं' लिखकर बताने की भी ज़रूरत उन्‍हें महसूस नहीं होती. 'समय-साम्‍यवादी' के इस कवि ने अपनी कविता नारों के नुक्‍़ते जोड़कर नहीं बनाई. एक भरोसा रक्‍खा हमेशा अपने भीतर, एक ख़ुदगर्जी और एक पशेमानी. ज्‍़यादह तमगों की दरक़ार उन्‍हें न थी, सो टांगे नहीं. और तोहमतें? ख़ैर...वो हिंदी में किसके हिस्‍से नहीं आई हैं?

पोएटिक नज़रिया और क्रिटिकल रवैया कमोबेश यक़सी चीज़ें ही हुआ करती हैं, ये भी शमशेर ने बड़ी ख़ामोशी से साबित करके दिखा दिया. शमशेर को हिंदी में महत्‍वपूर्ण आलोचक कौन मानेगा, लेकिन क्‍या ये भी सच नहीं कि सप्‍तकों के बाद की हिंदी कविता पर सबसे ऑब्‍जेक्टिव कमेंट अगर किसी का मिलता है, तो वो शमशेर का है (राधाकृष्‍ण से शाया 'कुछ और गद्य रचनाएं' में संकलित). 'चांद का मुंह टेढ़ा है' की भूमिका क्‍या कभी भूली जा सकती है, जिसने मुक्तिबोध की बेचैनी और उनकी अंतरात्‍मा के आयतनों को हमारे सामने उघाड़ दिया था- ऐन चौंसठ के ही साल में. बाख़ के संगीत, पिकासोई कला और अरागां की अवांगार्द सोच वे हमारे सामने लेकर आते रहे. और हिंदी में जिस तासीर के स्‍केच (डायरी नहीं, स्‍केच) शमशेर ने लिक्‍खे हैं, वैसे शायद और कोई नहीं लिख पाया. जहां वे नज़ारे टांकते नहीं हैं, ख़ुद नज़र बन जाते हैं.

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शमशेर के यहां एक दीर्घ समतल मौन है. सुदूरपन है लयगति. बहुत-बहुत दूर और बहुत-बहुत क़रीब की कोई बात. और फिर, एक अनन्‍य प्रत्‍यक्ष ऐंद्रिक बोध. संवेगों का एक पूरे का पूरा समंदर. रंगों को आंच, दिशाओं को दर्पण और चांदनी को बेठोस वे ही कह सकते थे. 'कवि घंघोल देता है व्‍यक्तियों के जल' वाला ख़याल भी उन्‍हें ही हो सकता था. त्रिलोचन की कविताओं में सरलता का अवकाश और 'नींद ही इच्‍छाएं' सरीखी चीज़ भी उन्‍होंने ही देखी और बयान की. फिर, 'तुम मुझे खोते गए हो/ यही अर्थ है/ समय की चाल का/ बस' और 'हम मिल नहीं सकते/ मिले कि खोए गए' जैसा औपनिषदिक निर्वेद (वैसे... कभी-कभी हिंदी वाले एक मीठी-सी दिल्‍लगी से उन्‍हें 'संत' भी कह लिया करते हैं!) भी वे ही हासिल कर सकते थे, जो के एक ख़ूब पहुंचा हुआ क़ाएनाती इल्‍मो-इलहाम है.

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वो शमशेर हैं...उदास रंगीनियों और मुबारिक सायों के एक बेमिसाल शा'इर... हमेशा-हमेशा फ़तेहयाब... यक़ीनन!

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उन्‍होंने हमें और गूंगा बना दिया है!


(चित्र सौजन्‍य : चंद्रकांत देवताले)

9 comments:

गिरिराज किराडू/Giriraj Kiradoo said...

wah! shushobhit aapkee teesri post hai, lagatar aur sammohak. vaise bachke mitra, shamsher ke baare mein kahi har baat pe balwa machta hai.

aapka michael jackson wala post angrezi tarzume mein mil sakta hai?

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

जो धर्मों के अखाडे़ हैं
उन्हें लड़वा दिए जायें
ज़रूरत क्या है हिन्दोस्तान पर
हमला किया जाये॥
--शमशेर

सौरभ के.स्वतंत्र said...

वाकई उन्‍होंने हमें और गूंगा बना दिया है!

तल्ख़ ज़ुबान said...

ये संबद्ध और आबद्ध आपने नागार्जुन के लिए फरमाया है ? प्रगतिशीलता से शमशेर के संकोच को भी रेखांकित किया है - कहना क्या चाहते हैं, साफ़ साफ़ कहिए !

जैसा की गिरिराज जी ने कहा है ज़रा बच के मेरे भाई !

मुनीश ( munish ) said...

Mesmerizing prose! simply awesome ! Sushobhit has got the STYLE !

मुनीश ( munish ) said...

To hell with your distractors Sushobhit ! Say wat u like & the way u like !

डॉ .अनुराग said...

सुभान अल्लाह..ऐसा लगा एक नज़्म पढ़ रहा हूँ...इतनी बेमिसाली से शमशेर को बयाँ किया है ...कई बार पढने आना होगा इस लफ्जों की रवानगी को.......शमशेर तो खैर शमशेर है......

ravindra vyas said...

bahut mahin aur barik! mithi bhi itni ki kabootaron ki gutergun!!

siddheshwar singh said...

बहुत ही सधी और बारीक बुनावट वाली उम्दा पोस्ट !
पोस्ट बोल रही है हम नहीं !