Wednesday, August 26, 2009

महानद से पहला साक्षात्कार



वह भी कोई देश है महाराज: भाग ३

अनिल यादव

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असम में प्रवेश करते ही हरियाली का जैसे विस्फोट होता है। सूरज की रोशनी में कौंधती, काले रंग को छूती हरियाली। खिड़कियों, मकानों की दरारों, पेड़ो के खोखलों से कचनार लताएं झूलती मिलती है जो हर खाली जगह को नाप चुकी होती हैं।

बाँस, नारियल, तामुल, केले के बीच काई ढके ललछौंहे पानी के डबरों और पोखरों से घिरे गांव। घरों और खेतों के चारों और बांस की खपच्चियों का घेरा। सीवान में हर तरफ नीली धुंध। छोटे-छोटे स्टेशन और हाल्ट गुजर रहे थे- न्यू बंगाई गांव, नलबाड़ी, बारपेटा, रंगिया….अखबारों में छपी रपटें, तस्वीरें बता रही थीं कि ये वही जगहें हैं जहाँ पिछले दिनों हिंदीभाषियों की हत्याएं की गईं हैं। एक वेंडर से लाल सा और कोई लोकल नमकीन लेते हुए मुझे धक से लगा कि मेरे बोलने में खासा बिहारी टोन है जो जरा सा असावधान होते ही उछल आता है।

हमारा नाम अनील यादव है।

मैं पता नहीं अपने सिवा किन और लोगों को अपने भीतर शामिल करते हुए अपने नाम को खींचता हूं।

मैने पहली बार गजब आदमी देखा जो बांस की बडी अनगढ़ बांसुरी लिए था। यात्रियों से कहता था, गान सुनेगा गान। अच्छा लगे तब टका देगा। अपने संगीत पर ऐसा आत्मविश्वास। बहुत मन होते हुए भी उसे नहीं रोक पाया। शायद सोच रहा था कि क्या पता वे लोग इन तरीकों से हिंदी बोलने वाले लोगों की ट्रेनों में शिनाख्त कर रहे हों।

मे आई सिट हियर ऑनली फॉर थ्री मिनिटस, छाता और बैग लिए एक अधेड़ ने मुझसे पूछा। मैं एक तरफ खिसक गया। उन्होंने बताया कि ब्रह्मपुत्र पार करने में ट्रेन को तीन मिनट लगते हैं, उसके बाद गौहाटी है।

सारी खिड़कियाँ पीठों से ढंक गईं। लोग खासतौर पर महिलाएं जान-माल की सलामती की कामना बुदबुदाते हुए, नीली धुंध में पसरी दानवाकार नदी में सिक्के फेंक रहे थे।



(जारी)

11 comments:

Chandan Kumar Jha said...

पढ्कर अच्छा लगा.

मुनीश ( munish ) said...

Hindi speaking people are having a raw deal all over the world as they lack confidence in themselves .Slavery,fear & suppression are deeply embedded in their veins .

मुनीश ( munish ) said...

इतने सशक्त रिपोर्ताज की कड़ियों पर टिप्पणियों का टोटा हिंदी के पाठकों की नैसर्गिक हरम्यता का द्योतक है !.

Ashok Kumar pandey said...

अक्टूबर में उत्तर पूर्व जाने की योजना है
तो इन पोस्टों से शिकायत है कि यार इतना बैचैन तो मत कीजिये…

प्रीतीश बारहठ said...

टिप्पणी के लिये उंगलियां उठाते ही....लगता है....

क्या ख़ूबी उसके मुंह की ऐ गुंचा नक्ल करिये
तू तो न बोल जालिम, बू आती है दहां से
----मीप

हम तो इसलिये चुप हैं मुनीश जी !
पोस्ट अभी जारी है और अच्छे स्रोता वक्ता को बीच में नहीं टोकते हैं।

Ek ziddi dhun said...

नीली धुंध...
क्या इन दो शब्दों में इस पोस्ट की आत्मा है.
इतने खूबसूरत पल, ऐसा बांसुरी वाला और ऐसा भय...
बहुत मुश्कल पड़ रही होगी ठीक बयां करने में

मुनीश ( munish ) said...

@प्रीतीश ----देखो यार तुम भी छंद विहीन काव्य धारा के प्रेमी होने के नाते गद्य-पद्य का फर्क भुला बैठे हो और अब देरी से आई दुरुस्ती को defend कर रहे हो .

प्रीतीश बारहठ said...

मुनीश जी ! मैं सभी का प्रेमी हूँ। और यह शेर छंद विहीन नहीं है, जल्दबाज़ी में मीर तक़ी मीर के स्थान पर मीप टायप हो गया है, फिर से पढें। यह उनके सर्वश्रेष्ठ शेरों में से है। आप कहें तो पूरी ग़ज़ल भेज दूँ फिर कहिये क्या बेहतरीन छंद है।

मीर का शे'र है ज़नाब -फिर से पढ़ें।
मीर मुझे मुझे माफ़ रखे।

मुनीश ( munish ) said...

Dear Priteesh i knew it was Baba Meer's and only a fool would question his literary prowess ! What i said was in no way connected to this couplet. It was about the miserable trend prevalent around us .

U see this article is written in marvellous prose and it truly deserved many more comments.

विजय गौड़ said...

बेहतरीन अंदाज में लिखे जा रहे यात्रा संस्मरण मे अनिल जी को पढना एक अनुभव से गुजरना हो रहा है।

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छा लगा अंदाज यात्रा संस्मरण सुनाने का.