'कबाड़ख़ाना' पर आप विश्व कविता के कोष से रू-ब-रू होते रहे हैं और कोशिश रहती है कि यह क्रम बीच-बीच में अपनी शक्ल दिखाता रहे और कविता प्रेमियों को पढ़ने के लिए कुछ बढ़िया मिलता रहे।अब तक आप बहुत - सी कविताओं के अनुवाद यहाँ देख-पढ़ चुके हैं , इसी कड़ी में आज अरबी की एक मशहूर युवा कवि ( कवयित्री कहना कहना जरूरी तो नहीं ?) फ़ातिमा नावूत की एक कविता 'स्केचबुक' प्रस्तुत है। हिन्दी में कविता का स्त्री स्वर या स्त्री कविता पर खूब लिखा गया और खास स्त्री कविताओं के संग्रह भी बहुत से आए हैं। उन सब कविताओं के समानान्तर इसे रख कर देखना एक जरूरी बात हो सकती है।
१९६४ में जन्मीं फातिमा जी कवि हैं , गद्य लिखती हैं, अनुवादक हैं , नील नदी के देश मिस्र में रहती हैं और कविता में प्रबल स्त्री पक्ष की हिमायती हैं। उनकी कुछ और कविताओं के अनुवाद जल्द ही ...
स्केचबुक
चालीस की उम्र में
औरतों के बैग थोड़े बड़े हो जाते हैं
ताकि उनमें अँट सकें
ब्लड प्रेशर की गोलियाँ और मिठास के डल्ले ।
नजर को ठीक करने के वास्ते
चश्मे भी
ताकि चालाक अक्षरों को पढ़ा जा सके इत्मिनान से ।
बैग की चोर जेब में
वे रखती हैं जरूरी टिकटें तथा कागजात
और ग्रहण के दौरान
हिचकी की रोकथाम करने का नुस्खा भी।
वे रखती हैं एक अदद मोमबत्ती
क्योंकि आग से दूर भागते हैं पिशाच
जो रात में चुपके से आकर
रेत देते है औरतों की गर्दनें ।
वे बैग में रखती हैं वसीयतनामा :
मेरे पास हैं 'रंगों के निशान'
( जो हाथों में आकर अटक जाते हैं
जब कोई तितली इन पर बैठ जाती है )
मेरे पास है एक स्केचबुक
और एक ब्रश
- एक अकेली औरत की तरह -
जिसे सौंपती हूँ मैं अपने मुल्क को ।
चालीस की उम्र में
मोजों से झाँकने लगते हैं घठ्ठे
और जब शुक्रवार की रात को
तितलियाँ छोड़ देती हैं इस घर का बसेरा
तब हृदय हो जाता है किसी खाली बरतन की मानिन्द
वे कहाँ जाती होंगी भला ?
शायद राजधानी के पूरबी छोर पर रहने वाली
किसी अच्छी मामी, चाची, फूफी, मौसी के कंधों पर
जमाती होंगीं अपना डेरा ।
एक ..दो ..तीन ..चार ..पाँच ..छह..
छह रातें..
एक चुप , उदास औरत
अपनी बालकनी में बैठकर
तितलियों की वापसी का करती है इंतजार ।
चालीस की उम्र में
एक औरत बताती है अपनी पड़ोसन को
कि मेरा एक बेटा है
जिसे नापसंद है बोलना - बतियाना ।
इससे पहले कि वह कहे -
अम्मी , तुम जाओ
अब मैं ठीक हूँ
अब मैं बड़ा हो गया हूँ..
हे ईश्वर ! मुझे थोड़ा वक्त तो दो खुद के वास्ते ।
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फ़ातिमा नावूत की और एक कविता का अनुवाद यह भी है।
13 comments:
ओह!! कितनी यथार्थ और गहरी वेदनाओं की अभिव्यक्ति है...कितनी सहजता से व्यक्त किया है ४० पार महिला...आनन्द आ गया यह अनुवाद पढ़ कर.
कविता अच्छी लगी !!!!
चालीस की उम्र में
एक औरत बताती है अपनी पड़ोसन को
कि मेरा एक बेटा है
जिसे नापसंद है बोलना - बतियाना ।
सत्य ।
किया है ४० पार ...
स्याह रात नाम नहीं लेती है ढ़लने का,
यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का।
सिद्धेश्वर जी ..इस बार तो मैं कविता से ज़्यादा आप्के अनुवाद की तारीफ करना चाहता हूँ इसलिये कि यह कहीं से अनुवाद जैस लग ही नहीं रहा है ..।
सचमुच लाजवाब।
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छोटी सी गल्ती जो बडे़-बडे़ ब्लॉगर करते हैं।
क्या अंतरिक्ष में झण्डे गाड़ेगा इसरो का यह मिशन?
बेहद बेहतरीन रचना। इनकी रचनाएं पहले नही पढी थी। शुक्रिया।
वाकई......दिलचस्प है....
ओह बहुत सुन्दर..
bahut rochak kavita hai .. aur vastav me anuvaad bhi bhut sundar hai.
दिल डर जाता है,अपनी मां की सूरत उभरती है और फिर अपना ख्याल आता है
आपकी इस कविता का अनुवाद in सज्जन ने अपनी वाल पर स्टेटस के रूप में लगाया है लिंक चेंप रही हूँ काफी पहले पढ़ा था नाम नहीं याद था पर बेनामी ही सही पर स्मृति में था गूगल में खोजने पर मिल भी गया ...
https://www.facebook.com/YOGESHRANAJI/posts/794126684018551?pnref=story
और ये सज्जन इसे अपने गद्य के रूप में स्वीकार कर न केवल गदगद हो रहे हैं बधाइयां भी स्वीकार रहे हैं. वाह! इन महापुरुष को नमन. यदि आपकी फ्रेंड लिस्ट में हों तो मेरा सलाम भिजवा दीजिएगा हेमा!
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