Sunday, January 3, 2010

एक पंक्ति


ये उज्रे - इम्तहाने जज्बे -दिल कैसा निकल आया,
मैं इल्जाम उसको देता था कुसुर अपना निकल आया।
* मोमिन

5 comments:

Pratibha Katiyar said...

kya baat hai...bahut khoob

सहसपुरिया said...

WAH WAH

अजित वडनेरकर said...

बस, यही कुछ कि संभल कर चलना, आहिस्ता बोलना, खांस कर भीतर जाना, धीरे-धीरे चढ़ना, कम बोलना, देखना, समझना फिर यारी करना जैसे रवायतें यूं ही तो नहीं लादी गई थीं?
गो कि मोमिन को मलाल किसी और वास्ते से है!!!

Udan Tashtari said...

’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

-सादर,
समीर लाल ’समीर’

मनोज कुमार said...

बहुत खूब।