Tuesday, February 23, 2010

लीलाधर जगूड़ी से बतकही - 1



यह इन्टरव्यू उस्ताद कबाड़ी अनिल यादव ने कल लिया था लखनऊ में. अनिल का इन्टरनैट ठीक से काम नहीं कर रहा सो इसे पोस्ट करने यह ज़िम्मा मुझे मिला.

आओ पास बैठो, सोने से ढके सत्य को देखो

लीलाधर जगूड़ी के नाम का आखिरी हिस्सा मुझे खासा विस्मित करता रहा है। उसमें कुछ पुरातन, भदेस और जस का तस है। बहुत पहले 93-94-95 होगा, उप्र के सूचना निदेशालय में इस नाम की तख्ती देखकर यूं ही मिलने चला गया। तब मैं शावक रिपोर्टर हुआ करता था। दिन भर यूं ही टूलने में बड़ा थ्रिल हुआ करता था। फिर अक्सर जाने लगा क्योंकि यह उस तरह के आदमी थे जिनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते फिर उनके पास बैठना सहज लगता है। अपने भीतर के नए कोनों का पता चलता है, अपने भीतर की कई गुम चुकी चीजों को पकड़ने के लिए चुटकी बनाने का मन करता है।

उनसे दो मुलाकातें खासतौर से याद हैं पहली लखनऊ के नीम रौशन धुएं से भरे एक बार में और दूसरी उत्तरांचल की पहली सरकार के शपथग्रहण समारोह के मंच के पीछे। दोनों बार मैं फिर अपने पुराने नतीजे पर पहुंचा कि इस आदमी में और कुछ चाहे न हो गहराई, सहिष्णुता और प्रेम तो है ही। अफसरी की अकड़-फूं तो बिल्कुल नहीं है। उनके एक कविता संग्रह का शीर्षक भी खासा यथार्थ था- भय भी शक्ति देता है

इधर उनमें मेरी दिलचस्पी का नवीनीकरण इस जानकारी से हुआ कि उपनिषदों और पुराणों का खासा अध्ययन उन्होंने किया है। स्वामी विवेकानंद, रजनीश, हर्मन हेस्से, मैक्समूलर, देवरहा बाबा, स्वामी दयानंद और लोककथाओं के जरिए मुझे इनकी खांटी आदिम भारतीय कल्पनाशीलता, कहन की शैली, विराट को सदा के लिए बांध लेने वाले विलक्षण रूपकों की उकसा कर मार डालने वाली झलक मिलती रही लेकिन संस्कृत न जानने के कारण इन पोथियों के सामने खुद को सरकारी तिपहिया का इंतजार करता विकलांग पाया है। खैर जगूड़ी जी से फिर एक बार दैनंदिन खटराग और हडबड़-तड़बड़ के बीच अचानक मुलाकात हुई। नहीं, पहले नीलम जी (उनकी पत्नी) से हुई जिन्होंने घर में आश्रय पाए एक देसी कुत्ते का विलक्षण चिकित्सकीय इतिहास ममत्व के साथ बताया और यह भी कि बिना बताए घर से भाग जाने की उसकी अवांगर्द आदत अभी गई नहीं है।

जगूड़ी जी से पहला सवाल काफी पहले तय हो चुका था कि ये उपनिषद और पुराण क्या चीज हुआ करती है?


मिथकीय उपन्यास हैं ये हमारे। जिनमें अपने समय की गाथा और तर्क अभिव्यक्त हुए हैं। अपने समय की समस्याएं, सत्य और असत्य। और अपने समय के अच्छे आदमी की तस्वीर। आसान ढंग से कहें तो यही विषय वस्तु है। उपनिषद शब्द का मतलब है आओ पास बैठो। पुराण का अर्थ है पहले जो कहा जा चुका है। कहा वही जाता है जो अनुभव किया गया हो इसलिए इन्हें कोरी कल्पना मानने का कोई तुक नहीं है। उसका उस काल से ठोस नाता है।

हमने आधुनिक उपन्यास और कथा-साहित्य का ढांचा पश्चिम से लिया है लेकिन उपनिषदों, पुराणों का ढांचा बहुत आकर्षक और वैज्ञानिक है।

पुरोडाश, अपूप और मृगछौने तो गए लेकिन इनका पिज्जा, पेप्सी और नरेगा वाले क्रिकेटिया भारत से क्या अंर्तसंबध बनता है?

उपनिषद में किराए की कोख (सरोगेट मदर) की कथा कही गई है जिसे अब बहुत नई चीज बताया जा रहा है। इस कथा को आधार बनाकर भीष्म साहनी ने माधवी नाम का एक नाटक लिखा था। ईशवास्योपनिषद में एक पंक्ति आती है- हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापहितम मुखम। अर्थात सत्य का मुख सोने के पात्र से ढका हुआ है। यानि सोने का पात्र ही सत्य नहीं है। सत्य कुछ और है, कटु भी हो सकता है। हे पुरूष तुम वह पात्र हटा दो तो सत्य का मुख देखोगे। यह जो अंतर्विरोध उपनिषदकार ने उजागर किया है क्या वह आज का भी द्वंद नहीं है। मेरा नया कविता संग्रह "खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है" जो भोजपत्र पर नहीं कागज पर छपा है, के शीर्षक में क्या इस पंक्ति की छाया नहीं है।

कोई संस्कृत न जानने वाला उपनिषद और पुराण या वेद पढ़ना चाहे तो कैसे पढ़े?

विदेशी कैसे पढ़ लेते हैं। जो हमारे खून में है उसे क्यों नहीं पढ़ सकते। वैसे भी संस्कृत की पंक्तियों के नीचे हिंदी में भाष्य और टीका लिखे रहते हैं। गीता प्रेस गोरखपुर से जो छपे उनमें काफी हिस्से को अपनी (किसकी ?) संस्कृति के लिए हानिकारक मानते हुए हटा दिया गया है। पुणे से जो छपा है पढ़ने लायक है।

वेदों में गाय की महिमा गायी गयी है। क्या गाय एक दिन में पालतू बनी होगी। घोड़ा क्या ऐसे ही आदमी का सहचर हो गया होगा। जंगल की गाय को कामधेनु में कैसे विकसित किया गया होगा, हमारे यहां इस पर काम नहीं हुआ। होता तो अच्छा होगा, हम संदर्भ के लिए अपने ग्रंथ खोजते।

3 comments:

Shrikant Dubey said...

बतकही थोड़ी और लम्बी होती तो और भी अच्छा होता. बहरहाल, इतने के लिए भी शुक्रिया.

प्रज्ञा पांडेय said...

लीलाधर जगूड़ी जी के बारे में यह जानकार बहुत अच्छा लगा कि उन्होंने वेद उपनिषदों का अध्ययन किया है .

hamarijamin said...

Jagudiji se lambe arse bad bhet huee hai, is interview ke dwara.
unse main bhi (hum) mila tha jab we suchana vibhag ke director the.
hum sabhi BHU JOURNALISM DEPT. KE
educational tour me the Lucknow.
JAGUDIJI us samay sarkari patrika uttarparadesh ke bhi editor the jo unke samay kafi sahitiyik or lokpriya thi.
waha unhone ham sabhi ko ek documentary dikhayee, kuchh bole-bale bhi. Unki kavitayein padh rakhi thi. is nate bas yahi parichay tha ki we sahityakar hain. unhe director ke rup mein nahi janate the!

BICH mein unhe 'jagudi' nahi 'jugadu' ke rup me kuchh logoan ne rakhana shuru kiya.
jaisa ki hindi ka bhartiya riwaj hai ki rachana nahi , rachanakar par kakhane ki.
bahral, is interview ke marfat jagudiji se achchhi bhet huee. aapko bahut-bahut dhanayavad, bhaiya Anil ko aapse thod kam.
Unke aalsipan,talupan ko dur karane ki bhari jimedari hai aapke pas.