Wednesday, March 10, 2010

एक पुरानी यात्रा की यादें - ३

(पिछली पोस्ट से जारी)

रात को हम दिल्ली हाट गए। यहां भी बहुत भीड़ थी लेकिन देश भर के हस्तशिल्पों को देखते हुए न चार्ली ने भीड़ को लेकर कुछ कहा न वेरनर ने। बाहर खुले में राजस्थान से आए संगीतकारों का एक समूह नाच गाने से दर्शकों का ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहा था खास तौर पर विदेशियों का। इस समूह में खड़ताल बजा रहा तेरह चौदह साल का एक लड़का कुछ बख्शीश पाने के चक्कर में चार्ली के पीछे लग लिया। मैंने उसे एक बार झिड़का लेकिन तब तक वह चार्ली की जेब से सौ का नोट निकलवा चुका था।



रात को वापस होटल लौटने के बाद हम बख्शीश देने को लेकर किसी आम सहमति पर नहीं पहुंच पाए। दिन भर गाड़ी के किसी क्रॉसिंग पर रूकते ही भीख मांगने वाले बच्चों को लेकर मैं स्वयं खिन्न था। जो भी हो आखिरकार यह तय पाया गया कि ऐसी किसी भी स्थिति में जब बख्शीश देना अपरिहार्य हो जाए¸ दी जाने वाली रकम मैं तय करूंगा। बाद के दिनों में यह काफी कारगर साबित हुआ।

अगले दिन हम हल्द्वानी को निकल पड़े। दिल्ली से हल्द्वानी होते हुए गुजरने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग सत्तासी काफी व्यस्त रहता है। एक दूसरे से आगे निकलने में हवा से होड़ लेते वाहनों को देखना दोनों के लिए बेहद डरावना अनुभव था : कहीं कोई नियम नहीं न ट्रैफिक की कोई नियत रफ्तार। एक मोटरसाइकिल पर सवार चार लोगों का परिवार सामने से आ रहे ट्रक के नीचे आते आते बचा। उस ट्रक की रफ्तार इतनी तेज थी कि उसके गुजर जाने के बाद आए हवा के तेज झोंके के कारण मोटरसाइकिल लहरा कर सड़क के एक कोने तक पहुंच गई। मोटरसाइकिल चला रहा आदमी जरा भी नहीं डरा और एकाध सेकेण्ड बाद पूरी तरह नियन्त्रण में आ कर आगे चल दिया मानो कुछ हुआ ही न हो। आगे गजरौला पहुंचने पर हमने इस परिवार को एक ढाबे पर हंसते खेलते चाय समोसे खाता हुआ देखा।

करीब पांच साल पहले भारत आए मेरे एक जर्मन दोस्त फोल्कर ने ऐसे ही ट्रैफिक के दृश्य को देखकर कहा था कि हाईवे पर हिन्दुस्तान का आदमी इस तरह गाड़ी चलाता है जैसे कोई वीडियो गेम खेल रहा हो और उसे लगातार अगले लेवेल पर पहुंचने की हड़बड़ी लगी हुई हो।

रात हल्द्वानी पहुंचे तो घर पर हमारा इन्तजार हो रहा था। चार्ली और वेरनर दोनों विएना से ही नमस्ते कहना सीख कर आए थे। होली का समय था और मेरे घर में बड़ा भाई और उसका परिवार आया हुआ था जिसके कारण काफी चहलपहल थी। अगले दिन हमारे घर में महिलाओं की बैठकी होली थी। कुमाऊं गढ़वाल में होली का एक मजबूत पक्ष होता है संगीत। पुरूषों की बैठकी होली में तो बाकायदा पक्के राग गाए जाते हैं और रात रात भर संगीत की महफिलें जुटती हैं। महफिलों का यह क्रम होली से कोई तीन महीने पहले चालू हो जाता है। महिलाओं की बैठकी होली मुख्य उत्सव के करीब हफ्ते भर पहले से शुरू होती है। इन होलियों में पारंपरिक होलीगीतों के साथ कभी कभी नए फिल्मी गाने तक गाए जाते हैं और गायकी में पुरूषों की होली जैसा शास्त्रीय रंग नहीं होता। यानी ‘सिद्धि को दाता विघन विनाशन होली खेलें गिरिजापति नन्दन’ और ‘चली चली रे असुर तेरी नार मन्दोदरि’ से लेकर ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ तक पर महिलाएं हाथ साफ करती हैं और महफिल का अन्त आते आते गाने के साथ नृत्य भी होने लगता है।



घर पर आए अंग्रेज मित्रों को इस आयेजन को ‘शूट’ कर लेने की इजाजत दे दी गई है। मोहल्ले भर की घरेलू और लजाती सकुचाती महिलाओं के लिए चार्ली और वेरनर किसी अजूबे आकर्षण जैसे हैं। अपने दोस्ताना सुलूक के कारण दोनों ने महफिल में काफी लोकप्रियता हासिल कर ली है और महिलाएं उन्हें बाकायदा नचाती भी हैं। भाई के बच्चों ने उनके अनधिकारिक दुभाषियों की भूमिका निभाना शुरू कर दिया है और उन्हें असल उत्तर भारतीय जीवन से परिचित होने का अवसर मिल रहा है।

इस कार्यक्रम को लेकर दोनों ही मित्र बहुत उत्साहित हैं और अपनी बनाई फिल्म को लेकर भी।

(जारी)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

@आगे गजरौला पहुंचने पर हमने इस परिवार को एक ढाबे पर हंसते खेलते चाय समोसे खाता हुआ देखा।
" ....फानूस बन के जिस की हिफाज़त हवा करे"
Plus it was a sight like this which moved Ratan Tata to tears and he conceived project Nano , but what happened thereafter ? o this thankless Indian middle-class !