Thursday, July 29, 2010

ऐसा भी भारत में ही हो सकता था

हॉकी के सरताज मेजर ध्यान चन्द की निकेत भूषण द्वारा लिखी गई जीवनी बायोग्राफ़ी ऑफ़ हॉकी विजार्ड ध्यान चन्द (प्रकाशक विली ईस्टर्न लि. १९९२) से इस महान खिलाड़ी के जीवन के आख़िरी दिनों के कुछ टुकड़े देखिये:



अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ध्यान चन्द भारतीय हॉकी की स्थिति को लेकर मोहभंग की स्थिति में थे. वे कहा करते थे, "हिन्दुस्तान की हॉकी खतम हो गई. खिलाड़ियों में डिवोशन नहीं है. जीतने की इच्छाशक्ति खतम हो गई है"

अन्तिम दिनों में ध्यान चन्द को कई सारी स्वास्थ्य समस्याएं हो गई थीं. जिस तरह उनके देशवासियों ने, सरकार ने और हॉकी फ़ेडरेशन ने उनके साथ पिछले कुछ सालों में सुलूक किया था, उसका उन्हें दुःख भी था और शायद थोड़ी कड़वाहट भी.

अपनी मृत्यु से दो माह पूर्व ध्यान चन्द ने एक वक्तव्य दिया था जिससे उनकी तत्कालीन मनस्थिति का पता चलता है, "जब मैं मरूंगा तो दुनिया शोक मनाएगी लेकिन हिन्दुस्तान का एक भी आदमी एक भी आंसू तक नहीं बहाएगा. मैं उन्हें जानता हूं."

उनकी मृत्यु से कोई छः महीने पहले उनके अभिन्न मित्र पं. विद्यानाथ शर्मा ने उनके समक्ष विश्व भ्रमण का प्रस्ताव रखा. उन्हें आशा थी कि ऐसा करने से यूरोप और अमेरिका के हॉकी प्रेमियों से ध्यान चन्द की मित्रता पुनर्जीवित होने के साथ साथ इस महानायक को दोबारा से सार्वजनिक स्मृति का हिस्सा बनाया जा सकता है. टिकट तक खरीद लिए गए थे लेकिन ध्यान चन्द कहीं भी जा पाने की हालत में नहीं थे.

ध्यान चन्द के मित्रों ने उनसे यूरोप आकर अपना इलाज करवाने का निवेदन किया पर उन्होंने यह कहकर इन्कार कर दिया कि वे दुनिया देख चुके हैं.


१९७९ के अन्तिम महीनों में उनके सुपुत्र हॉकी खेल रहे थे जब उन्हें पिता की खराब स्थिति का पता चला. ध्यान चन्द को झांसी से दिल्ली लाया गया और ऑल इन्डिया इन्स्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में भर्ती कराया गया.

इन आख़िरी दिनों में भी वे अक्सर हॉकी की ही बातें किया करते थे. उन्होंने अपने परिजनों को अपने तमग़ोम का ध्यान रखने को और यह सुनिश्चित करने को कहा कि कोई भी उनके कमरे में न जाए क्योंकि कुछ समय पूर्व कोई सज्जन उनके कमरे से कुछ मेडल चुरा ले गए थे. इसके अतिरिक्त उनका ओलिम्पिक में जीता हुआ स्वर्ण पदक झांसी में एक प्रदर्शनी से चुरा लिया गया था.

उन्होंने अपने दूसरे पुत्र राज कुमार से कहा था कि भारत में स्तरीय हॉकी को ले कर किसी को कोई चिन्ता नहीं है. भारतीय हॉकी के अवसान को लेकर वे बहुत दुखी थे.

एक बार उनके डॉक्टर ने उनसे पूछा, "भारतीय हॉकी का भविष्य क्या है?" ध्यान चन्द ने जवाब दिया "भारत में हॉकी खतम हो चुकी है."

"ऐसा क्यों है?" डॉक्टर ने पूछा तो ध्यान चन्द बोले "हमारे लड़के बस खाना भकोसना चाहते हैं. काम कोई नहीं करना चाहता."

ऐसा कहने के कुछ ही समय बाद वे कोमा में चले गए और कुछ ही घन्टों के बाद ३ दिसम्बर १९७९ को उनका देहान्त हो गया. उनके शरीर को उनके गृहनगर झांसी ले जाया गया जहां झांसी हीरोज़ ग्राउन्ड में इजाज़त मिलने में आई कुछ अड़चनों के बाद उनका दाह संस्कार किया गया. ध्यान चन्द की रेजीमेन्ट, पंजाब रेजीमेन्ट ने उन्हें पूर्ण सैनिक सम्मान दिया.

अशोक कुमार को भारतीय हॉकी अधिकारियों के हाथों एक अन्तिम ज़िल्लत यह झेलनी पड़ी कि उन्हें १९८० के मॉस्को ओलिम्पिक के तैयारी शिविर में भाग लेने से रोक दिया गया. अशोक कुमार पिता के अन्तिम संस्कारों में व्यस्त रहने के कारण समय पर कैम्प नहीं पहुंच सके थे. भीषण कुण्ठा और अपमान के चलते अशोक कुमार ने उसी दिन हॉकी से सन्यास ले लिया.

झांसी हीरोज़ ग्राउन्ड में खेलते हुए ध्यान चन्द की एक मूर्ति स्थापित की गई. मूर्ति के नीचे लिखा हुआ था, "देश के गौरव, हॉकी के जादूगर, मेजर ध्यान चन्द."

आज ध्यान चन्द की इस मूर्ति के नीचे आवारा लड़के जुआ खेलते हैं और गांजा पीते है. यह वही स्थान है जहां ध्यान चन्द का अन्तिम संस्कार हुआ था. हॉकी के महानतम खिलाड़ी के लिए भारतीय हॉकी की यह श्रद्धांजलि है.

5 comments:

SANSKRITJAGAT said...

उत्‍तम: लेख:

abcd said...

slapshot.

VICHAAR SHOONYA said...

जी हाँ आप सही कह रहे हैं कि ऐसा भारत में ही एक महँ हस्ती के साथ ऐसा सलूक हो सकता है. और हाकी में आज क्या बचा है इसका जवाब कौशिक साहब अच्छे से दे पाएंगे.

मुनीश ( munish ) said...

देखिये एंचो -बेन्चो के बिना इस स्थिति पे कोई टिप्पणी मुमकिन नहीं और चूंकि आप इन असभ्य बातों के विरुद्ध हैं अतः मैं अपनी टिप्पणी अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करता हूँ !

Ek ziddi dhun said...

यह पोस्ट इस वक़्त बहुत कुछ कहती है. इंडियन हॉकी की हालत सामने है ही. ध्यान चंद सही कह रहे थे, दुनिया देख चुकेहैं. अब इसमें किसी अमूर्त सिस्टम को कोसने की ही बात नहीं है. हम यानी `महान` जनता ऐसी ही है. कल प्रेमचंद की जयंती है, उनके अंतिम संस्कार के वक़्त गिने-चुने लोग ही थे. भगत सिंह का कुलतार को पत्र, बिस्मिल का देशवाशियों को सन्देश, अशफाक की अंतिम दिनों की लिखी बातें....
असल में हम ऐसे ही हैं हरामी