Wednesday, August 11, 2010

एक दोस्त की आत्मकथा: आगे का हिस्सा 7

कन्ज़रवेटर महोदय से फटकार

सितम्बर या अक्टूबर १९५६ में श्री के.सी. जैन ने कुमाऊं सर्किल के कन्ज़रवेटर फ़ॉरेस्ट्स का पद सम्हाला. इस दौरान मैं नौकरी में अपनी वरिष्ठता सम्बन्धी एक मामले को लेकर उपयुक्त माध्यमों से चीफ़ कन्ज़रवेटर फ़ॉरेस्ट्स, उत्तर प्रदेश तक अपनी बात पहुंचा चुका था. श्री जैन के पदभार सम्हालने के कुछ दिनों बाद मैं नैनीताल में उनके निवास उनसे मिलने गया. जैसे ही मैंने अपना मामला उनके सम्मुख रखा, श्री जैन नैनीताल में चारकोल और लकड़ी के प्रबन्धन में हो रही गड़बड़ियों को लेकर मुझ पर चिल्लाने लगे. वे बोले "तुम और तुम्हारे रेन्ज अफ़सर ने जब से (यानी १९५६ के शुरू से) काम सम्हाला है, सब कुछ चौपट कर डाला है." मुझे बाद में पता लगा कि वे मेरे रेन्ज अफ़सर से ज़्यादा ख़फ़ा थे बजाय मुझ से. उन्होंने मुझसे आगे पूछा कि मैं नैनीताल में क्यों पोस्टेड था जबकि मेरे जूनियर डिप्टी रेन्जर के तौर पर काम कर रहे थे. मैंने उन्हें अपने नन्हे बच्चों की शिक्षा की परेशानियों के बाबत बताया. ख़ैर, मैंने उन्हें सलाम किया और लौटते हुए मन ही मन अपने से कहा: "चौबेजी छब्बेजी बनने गए, दूबे ही रह गए." अगले साल मैंने जैन साहब द्वारा कैरेक्टर-रोल में मेरे बारे में लिखी टीप देखी: "अ वेरी स्मार्ट फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर, बट हिज़ सूटेबिलिटी एज़ एन आर. ओ. कैन नॉट बी सेड, अनलैस ट्राइड इन सम रेन्ज."

आकाशीय बिजली का प्रकोप

अन्तत: मुझे रेन्ज अफ़सर, बूम, टनकपुर के पद पर नियुक्त कर दिया गया. मई १९५८ में बूम प्रभाग समाप्त किए जाने के बाद मुझे एक माह की छुट्टी के बाद अस्थाई तौर पर रेन्ज अफ़सर, देवीधूरा (मुख्यालय धूनाघाट) का चार्ज मिला. दो ही महीने बाद मुझे रेन्ज अफ़सर असकोट बनाके शन्ट कर दिया गया. असकोट में पद सम्हालने से पहले मैंने अपने कन्ज़रवेटर साहिब से मुलाक़ात कर यह पूछ ही लिया कि यह पोस्टिंग स्थाई होगी या पिछले तबादलों जैसी क़तई क्षणभंगुर. इसके पीछे मेरी मंशा यह जानने भर की थी कि मुझे अपने परिवार को अपने साथ शिफ़्ट कर लेना चाहिये या नहीं. उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि मुझे अब तंग नहीं किया जाएगा. सो मेरा परिवार मेरे साथ असकोट आ गया. असकोट पहुंचने के बाद मेरा मुख्य दायित्व था वित्तीय वर्ष १९५८-५९ के समाप्त होने से पहले ही रेन्ज क्वार्टर की इमारत का निर्माणकार्य पूरा करवा लेना. इस कार्य को मैंने कर भी लिया. जून १९६१ तक असकोट में मेरा शान्तिपूर्ण निवास रहा.

जून २६, १९६१ की बात है. भीषण बारिश हो रही थी. तूफ़ान था और बिजली रह-रह कर चमकती थी. घर की चार दीवारों के बीच मुझ पर उस रात बिलजी गिर गई. इस घटना के विवरण मुझे बाद में मेरी पत्नी ने बतलाए. रात के क़रीब एक बजे हमारी सबसे छोटी बेटी उषा ने बाहर ले जाए जाने की नीयत से उसे जगाया था. मेरी पत्नी ने बच्ची को बाहर बरांडॆ के कोने में उसे ले जाकर बिठा दिया क्योंकि टॉयलेट काफ़ी दूर हुआ करता था. उसने अचानक उस जगह से एक बेहद चमकदार रोशनी को लपकते देखा जहां बच्ची बैठी हुई थी. वह डरकर भागती, चिल्लाती हुई वहां पहुंची कि कहीं बच्ची को कोई नुकसान न हो गया हो. उसे नहीं पता था कि उषा उसके पीछे पीछे आ रही थी. बाद में अन्दर पहुंचकर मेरा भिंचा हुआ चेहरा और टेढ़े हो गए हाथपैर देखकर उसे गहरा सदमा पहुंचा. डॉक्टर दास को बुलाया गया. हस्पताल रेन्ज क्वार्टर से कोई ३०-४० मीटर दूर था. मेरी पत्नी ने मुझे मुझे बाद में बताया कि होश आने में मुझे कोई घन्टे भर से ज़्यादा वक़त लगा.

जब मैं उस राह होश में आया, मैंने देखा कि लालटेन की रोशनी में मेरे परिवार के सदस्य और डॉक्टर दास मेरे गिर्द सिमटे हुए थे. उन दिनों बिजली का चलन नहीं था. डॉक्टर को देख कर मैंने पूछा कि क्या हुआ था तो अपने बंगाली लहज़े में वे बोले "शाक लौग गया है." उसके बाद जब मुझे दर्द का अहसास होना शुरू हुआ मैंने अपना दांयां हाथ अपनी दांईं पसलियों ने नीचे लगाया. मैंने पाया कि कोई चार सेन्टीमीटर व्यास का एक फफोला वहां उग आया था. उन दिनों हमारे पास एक कॉकर स्पैनीएल पिल्ला था जो मेरी खाट के नीचे सोया करता. वह भी बिस्तर से तब बाहर आया तक़रीबन जिस वक़्त मुझे होश आ रहा था. सम्भवतः बिजली उस पर भी गिरी थी.

उन दिनों रेडियो चलाने के लिए तांबे के एन्टीना लगाने पड़ते थे. हमारा वाला छत की पूरी लम्बाई पर फ़िट किया गया था. रेडियो को अलग से अनअर्थ किया जाना होता था. आमतौर पर ऐसा कोयला भरे हुए गड्ढों की मदद से किया जाता था. इस हादसे की पूरी ज़िम्मेदारी मेरी थी क्योंकि मैंने अनअर्थिंग के ज़रूरी काम पूरे नहीं किये थे.

अगली सुबह यह पाया गया कि हमारी रसोई के पिछवाड़े की दीवार खुल गई थी और भीतर रखे तांबे के एक बड़े बरतन में खरोंच आ गई थी. मुझे अब भी लगता है कि आकाशीय बिजली को तांबे के उस बरतन ने अर्थ कर लिया होगा. बिजली के बाक़ी हिस्सों की अर्थिंग तांबे के तार से बने एन्टीना से होकर हमारे मरफ़ी रेडियो सैट के द्वारा हुई होगी जो मेरे सिर के नज़दीक एक अल्मारी पर रखा हुआ था. उसी सुबह यह भी पाया गया कि मेरे माथे से होकर मेरी पीठ तक जलने के निशान की एक पतली लकीर देखी जा सकती थी. जो भी हो यह एक चमत्कार था कि मैं बच गया. बाद में मुझे पता चला कि उसी रात टेहरी सर्किल में तूनी, चकराता में पोस्टेड एक रेन्ज अफ़सर अपने मकान में घुसते ही बिजली गिर जाने से अपनी जान गंवा बैठा था, जिसे उन दिनों वह चीड़ के पेड़ों के चिन्हीकरण में मुब्तिला होने के कारण आबाद किए था.

सुबह मैं हमेशा की तरह तरोताज़ा था. मैं रोज़ ही अपना अख़बार इन्डियन एक्सप्रेस लेने पोस्टऑफ़िस जाया करता था जिसे मैं १९५१ से ही पोस्ट पार्सल के मार्फ़त प्राप्त कर रहा था. जब मैं पिछली रात के हादसे के बारे में असकोट के पोस्टमास्टर को बतला रहा था, स्पेशल पुलिस फ़ोर्स के रेडियो स्टेशन अफ़सर तिवारी जी भीतर घुसे. मेरी बात सुनकर वे लतीफ़ाना अन्दाज़ में बोले "आज किस पर बिजली गिरी?" जीवन ऐसा ही होता है. असल बात तो यह है कि आप उसे कैसे लेते हैं.

१ जून १९६१ को मुझे फ़ॉरेस्ट रेन्जर के तौर पर पदोन्नत कर दिया गया.

(जारी)

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

आकाशीय बिजली से बच आना भाग्य ही है।

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प...