Monday, November 29, 2010

उस देश को हमारा बारम्बार नमस्कार है...

नोट : किसी को बुरा लगे तो उसके लिए मैं नहीं, मैं जिम्मेदार है|

मैं चाहता हूँ कि इस देश में सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे| साल में एक-दो दिन दंगो के लिए मुक़र्रर किया जाए| इस दिन सारे स्त्री पुरुष बिना भेदभाव खून की होली खेलें|
अगले दिन मौलाना हबीबुर्रहमान पंडित रामनाम के घर चाय पीने आयें - "कहो मियां! कल कितने लोगों का क़त्ल किया|"
पंडितजी शरमायें - "अजी, आप भी मजाक करते है| अब कहाँ रही वो जवानी की ताक़त, याद है आपके चचेरे भाई को क्या काटा था हमने|"
मौलाना जोर का ठहाका लगायें - "अजी कैसे भूल सकते हैं", अचानक घर में इधर उधर देखें और पूछे - "अरे कोमल बेटी कहीं नज़र नहीं आ रही|"
पंडित जी पंडिताइन से पूछे - "कोमल की माँ| कोमल नहीं दिखायी दे रही कल से|"
पंडिताइन रसोई से सब्जी काटने वाले चाक़ू से खून साफ़ करते हुए बोले - "भूल गए आप भी| कल जब्बार, सलीम नाई, यासिर कबाड़ी लेके नहीं गए थे उसको, बचाओ बचाओ भी तो चिल्लाई थी वो|"
काटे गए सेब बाहर लाये गए "लीजिये भाई साहब! आप खाएं|"
मियां हबीब खून सने सेब खाके वाह कहें|
"अभी थोड़ी देर में आ जाएगी वो| मैंने पुलिस और हॉस्पिटल को इन्फोर्म किया हुआ है|" पंडिताइन मुस्कुरा के पंडित जी की और प्यार छलकाती नजरों से देखती है|
"अमां, आपने बयान तो लिखा हुआ है न परजाई जी|" सरदार हरविंदर सिंह घर में बेतकल्लुफ घुसते हुए बोलें - "सिख दंगों में तो हबीब साहब ने ही मेरा बयान लिखा था| माशाल्लाह, क्या खालिस उर्दू लिखते हैं|"
पंडित जी मौलाना हबीब के क़दमों तले बिछ जाते हैं  -"ऐसा बयान लिखें मौलाना साहब कि बस थाने में हर कोई रो पड़े| वैसे भी इस देश की पुलिस बहुत इमोशनल है|"
मौलाना साहब पुराने दिनों में खो जाते हैं - "ये आजकल के लौंडों को जरा सा शऊर भी ना आया| हम जब वहीदा को उठाके ले गए थे तो उसके बाप को पूरा इकरारनामा लिख के दिया था|"
हरविंदर जी भी सेब खाते हैं- जेब से स्पेशल खून की शीशी निकालते हैं, लगाते हैं सेब पर - "ये ४७ में हमारे परदादा तारा सिंह जी ने पाकिस्तान से हैंडपंप उखाड़ के इकठ्ठा किया|"
फिर रोनी सूरत बनाते हैं -"एक हमारा घरघुस्सू निहाल सिंह है, पता नहीं क्या शान्ति , अहिंसा करता है|"
पंडिताइन के दर्द को जैसे किसी ने फिर ठेस लगा दी हो - "सही कहते हो , ऐसी ही हमारी बेटी कोमल भी है| क्या बचाओ बचाओ चिल्ला रही थी| अरे हमारे जमाने में मुझे ही पता नहीं कितनी बार उठा के ले गए, मैंने तो कभी नहीं कहा|"
मौलाना बन्द लफ़्ज़ों में कुछ बुदबुदाये - "क्या कहूँ! हमारे खानदान की नाक भी हमारी औलाद इक्लाख़ के वजह से नीची हो गयी है| न कहीं क़त्ल करता है, न किसी को करने देता है|"
पंडित जी ने इति सिद्धम किया- "नयी पीढी, पुरानी पीढ़ियों से आये संस्कार भूलती जा रही है|"

पंडित जी ने हाथ जोड़े|
मौलाना सजदे में झुक गए|
हरविंदर साहब ने सत श्री अकाल का स्मरण किया|

'हे भगवान्! इस नयी पीढ़ी को सदबुद्धि दे| इस देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बना रहे|'

12 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

झनझनाटा व्यंग।

मृत्युंजय said...

१. न नीरज जी,
क. भगवान्, अगर कहीं वह है, तो वह नई पीढी से मिलता नहीं.
ख. नई पीढी से मिलता है, रूपया, जिसका चेहरा आजकल बदला हुआ है.
ग. उस रूपये से खरीदी गयी सीडियां. उससे बने बम. बमों से लूटा गया माल. माल माने रूपया.
घ. इस तरह यह कुल उद्योग रुपये से रुपये तक जाने का है.

क्या आप हिन्दुस्तान में उद्योगों को फलता फूलता नहीं देखना चाहते?

२.
मुझे लगता है कि आपके इस व्यंग्य में दंगों के पीड़ितों के लिए सहानूभूति कम है, उनका मज़ाक बनाने की प्रवृत्ति अधिक. अन्यथा 'कोमल की मां' का वह बयान कभी लिखा नहीं जा सकता था, जो आपने लिखा. नयी पीढी को पुरानी पीढी से आगे बढ़ा हुआ दिखाने के चक्कर में दुखों को लीप दिया गया है.
ऐसा मुझे लगता है. हो सकता है, मैं गलत होऊं, और ऐसा ही मैं चाहता हूँ.

Neeraj said...
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Rahul Gaur said...

झकझोर के रख देने वाली कहानी है, नीरज जी.
जो थोडा सा मैंने काफ्का को पढ़ा है - उसकी याद हो आयी.
बधाई.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बाप रे बाप, हम तो सन्न रह गये। काला मजाक... बोले तो ‘ब्लैक ह्यूमर’

ऐसे देश से हमें उठा लो भगवान।

Ek ziddi dhun said...

Manmohan singh kafi khush ho sakte hain. Abhi ashok vajpeyi bhi bata chuke hain new generation is beemari se age aa chuki h. Veeren Dangwal ne unka maqul jawab bhi diya

Bodhisatva said...

जो लिखा गया है कुछ दिन में ऐसे हालात आ जायेंगे अगर ऐसे ही चलता रहा तो क्योकि लोगो के दिमाग में न जाने इससे कितनी जादा हिंसा भर चुकी है. नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी की बहस अब हर जगह सड़क के किनारे वाले चाउमिन की तरह मिलती है, बेवजह !! जो अच्छा होगा वो रहेगा हर समय में....
ये व्यंग्य उतना की काला हैं जितने हमारे चेहरे जब हम किसी मौत को स्वीकार कर लेते हैं बस इसलिए क्योकि उस पर कोई लेबल लगा होता है !

मृत्युंजय said...

दोस्त नीरज,
जवाबदेही के लिए शुक्रिया, ये चीज काफी आजकल ढूंढें से भी मिलती नहीं.
आप या मैं नयी पीढी के तो हैं ही, प्रतिनिधि हों या न हों. एजेंडे का कोई मामला नहीं है दोस्त. और छुपे हुए का तो कतई नहीं, ये काम हम लोगों के बस का ही नहीं है.

सच है कि नई पीढ़ी ने (हमने) ये सब परम्परा में पाया है, सहमत हूँ. पर आपका व्यंग्य पढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ कि वहां नई पीढी, पुरानी से ज्यादा आगे बड़ी हुई है. वह साम्प्रदायिकता को पुराने लोगों की तुलना में ज्यादा समझती है. मुझे लगता है कि दुर्भाग्यवश, ऐसा नहीं है. खासकर गुजरात और ऐसे ही नयी काट के आधुनिक दंगों के बाद ये कहना थोड़ा मुश्किल है. गुजरात में दंगों में बड़े पैमाने पर नौजवानों ने भाग लिया.
ये बेरोजगार, अभागे हमारे-आपके जैसे नौजवान, जिनके हाथों में त्रिशूल थमाया गया, किसके शिकार हैं? सत्ता के ही तो!
उनकी त्रासदी की वजह पुरानी पीढी से ज्यादा सत्ता की नीतियाँ हैं.

उद्योग (आजकल जो विकास के नाम पर सेज सजाये जा रहे हैं) और दंगों में गहरा रिश्ता है. गुजरात ने इसे पुष्ट किया. न सिर्फ यह बल्कि यह भी कहना चाहिए कि विकास का जो माडल हमारे हुक्मरान लेकर आये हैं, उससे लोगों की जान खतरे में है. किसान आत्महत्याएं भी उसी की कड़ी हैं.

अंतिम बात, व्यंग्य में सहानुभूति अगर नहीं है तो इसका कारण क्या है? ये जानने की कोशिश कर रहा था. क्योंकि मुझे लगता है कि किसी भी व्यंग्य का आधार तो वही होता है.

@धीरेश जी, अगर इस नुक्ते को जोड़कर बात करें तो मुझे मदद मिल सकती है.

मृत्युंजय said...
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मृत्युंजय said...
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मृत्युंजय said...
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Neeraj said...
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