लिखना मन की परतों को खोलने जैसा है, एक के बाद एक सतह | लिखकर आप लगातार भीतरी सतह पर प्रवेश करते जाते हैं | यह सब मैं पढ़ चुका हूँ, कई बार , कई जगह | शब्द थोड़े बहुत इधर उधर होते होंगे, मजमून नहीं बदलता | शायद औरों के लिए लिखना अपनी दबी हुई इच्छाओं को निकालना, कुछ के लिए अपनी अन्दर छिपी आदमियत को रचनात्मक संतुष्टि देना है | कुछ स्वान्त सुखाय जैसा शब्द भी बताते हैं, जिसका अर्थ मुझे नहीं पता | मुझे याद है मेरा एक सहपाठी कहता था कि ये आर्ट, कुछ लिखना, पेंटिंग वगैरह ये उन लोगों के काम हैं जो समाज के सामने अपने आप को व्यक्त नहीं कर पाते | अपनी भावनाएं सबके सामने न व्यक्त कर पाने की मजबूरी ही इन्हें कलाकार, लेखक, पेंटर बनाती है | फ़िलहाल आप मेरे बारे में जानना चाहेंगे | मेरे लिए लिखना दर्द से गुजरने जैसा है | कुछ कुछ ऐसा जैसे बिलखना चाहते हैं , मगर नहीं रो पाते | ठहाका लगाना चाहते हैं, हँस भी नहीं पाते | मेरे समानांतर दो दुनिया चलती है | कहानी में बेग साहब के बेटे को मार दिया है; मेरी माँ, भाई , बहनें ये सब सहज ही रहते हैं , और मुझे भी सहज समझते हैं | लेकिन मियां लियाकत, सुधीर, ओलिवर, जोनाथन रिवेट मेरी मनोदशा जान जाते हैं | पडोसी का पच्चीससाला बेटा एक्सीडेंट में मर जाता है, आपको दुःख होता है | उसके घरवालों को आप सांत्वना देते हो; लेकिन श्रद्धा, जब्बार नाई , बेग साहब को इन ख़बरों का कुछ नहीं पता |
लिखना एक ऑपरेशन जैसा है | ऑपरेशन थियेटर, एक परिवेश जो एक पूरी दुनिया है , आप अपनी कहानियाँ इसी परिवेश से तो चुराते हो | कभी गए हो वहाँ अन्दर ? गौर किया है कि वहाँ अन्दर जाने पर डर ख़त्म हो जाता है, लेकिन राहत मिले ऐसा भी नहीं | आपका दिमाग सोचना बन्द कर देता है, वहाँ पर डर, गुस्सा, तकलीफ ख़त्म होती है , लेकिन साथ ही साथ ख़ुशी, संतोष, आराम जैसी चीजें भी नहीं मिलती | आप किस अवस्था में है ? क्या आपको डर लग रहा है ? नहीं | फिर आप क्या महसूस कर रहे हैं ? कुछ भी नहीं | कुछ भी नहीं, क्योंकि जिस वक़्त से आपको स्ट्रेचर पर रखकर अन्दर ऑपरेशन टेबल पर पटका है आप कुछ सोच ही नहीं पा रहे | आपके लिए आप अपनी कहानी के पात्र हैं, महज़ एक पात्र | आपके अन्दर जन्म ले रही है कहानी , लेकिन विचारों के सिरे का आपको कुछ नहीं पता | आगे किस पात्र के साथ क्या होगा , क्या पता, आप ये सब भी नहीं सोचते | आप बस लेटे हुए अपने आपको स्ट्रेचर पर देख रहे हैं | स्ट्रेचर को धकेलकर ले जाया जा रहा है , आप एक और करवट लेके दुनिया को देखने की कोशिश करते हैं , इनमे से कोई पात्र कहानी में आएगा क्या ?
आपका डर केवल रिसेप्शन तक रहता है | दर्द का ग़ज़ल से सदियों का नाता है , लेकिन खूबसूरत रिसेप्शनिस्ट को अपने दर्द का दोष न दें | आपका डर वहाँ पर सबसे ज्यादा मुखर होता है, जब प्राइवेट हॉस्पिटल की रिसेप्शनिस्ट हौले से धवल दंतपंक्ति दिखाते हुए कहती है "आपका नाम ?" ओह! तो इस चीज़ का डर है; आपका नाम | नाम ? नाम का डर ? नाम से डर ? क्या ? नहीं पता | क्या मेरा नाम सुन के कोई पूछेगा कि ये कौन था ? या कोई मेरा नाम ही न सुने, न पूछे | ज़ेरेसेस की सेना का एक सिपाही मैं भी रहा हूँगा जो बेनाम मर गया | रिसेप्शनिस्ट जिन्दगी खूबसूरत है कि तर्ज़ पर फिर से मुस्कुराती है, और आप आश्चर्य करते हो कि हमेशा दर्द देखने वाली आँखें कैसे हँस सकती हैं | ये अलग बात है कि रिसेप्शनिस्ट आपको नहीं बताती कि आज सुबह उसने एक नामचीन मैगज़ीन में इस हॉस्पिटल पर एक आलेख पढ़ा, जिसमे इसकी काफी तारीफ़ की गयी है | उसके मुस्कुराने पे आपकी खीझ बढ़ जाती है , लेकिन खीझने का अधिकार आपको खुद नहीं मिला है | आपके चेहरे से उसे अंदाजा हो भी जाता है , तो ग्लानि, क्षोभ दबाकर भी वो मुस्कुराती है | क्या करे बेचारी, डॉक्टर तो है नहीं जो जान जाए कि मरीज लाइलाज है | सवाल फौजी कदमताल से आगे बढ़ते हैं | आप हिन्दू हैं, आप भारतीय है, आप मर्द हैं, जवाब भी रस्म पूरी करते हैं | और भी बाकी डिटेल्स ले लो, इससे कहानी में बहुत फर्क पड़ने वाला है | मसलन मज़हब मुसलमान कर दो , पढ़ने वाले ज्यादा हो जायेंगे | हिन्दू करोगे, ऑपरेशन करने शल्य आयेंगे , भगवान विष्णु के गरुड़ पे लिफ्ट लेकर |
नर्स आपकी डिटेल्स देख रही है , और आप नर्स में अपनी कहानी की नायिका की डिटेल्स तलाश रहे हो | मौत के वक़्त भी पात्रों को बाजीगरी सूझती है, मेरी कहानियों में तो सालों को मौत के वक़्त ही बाजीगरी सूझती है | दो मरीज थे, एक दूसरे से बोलता है , "साले, बात करा यार उससे कभी |" दूसरा बोलता है , "हाँ , हाँ , करवा दूंगा | एक बार हमारे वार्ड में लग जाने दे उसकी नाईट ड्यूटी |" गरीब गुरबे कहानियाँ उसी रात सुनाते हैं , जब पेट खाली होने की वजह से नींद नहीं आती | जिस रोज़ रोटी नसीब हो , पेट भर जाए तो फुटपाथ पे लम्बी तान के सो जाते हैं साले | फिर किसकी कहानी , कौन सी कहानी | अरे हाँ , फुटपाथ से याद आया; ये वो जगह है जहाँ मेरी कहानियों का गरीब आदमी हगता है और अमीर आदमी अपने कुत्ते को हगाता है | एक तरह से ये ब्रिटिश मानसिकता 'डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट अलाउड' का जवाब है | तो मैं कह रहा था, कि लेखक भी उसी गरीब की तरह होता है | उन विषयों पर चीखता है , जो बुद्धिजीवी लोगों के लिए बस एक बौद्धिक बहस है | मन में हाहाकार था , ग्रन्थ तभी लिखे गए है | कलम की तलवार लेकर अपने मन से लड़ते रहता है | आसपास की दुनिया में कुछ लड़ने लायक नहीं देखता तो काल्पनिक दुनिया बनाकर तलवार भांजता है | आपके ऑपरेशन की पूरी तैयारी हो चुकी है | ड्यूक ऑफ़ वेलिंग्टन ने 1815 में नेपोलियन को हराया था | मेवाड़ राजवंश की नींव बप्पा रावल ने रखी थी | पाकिस्तान स्वतन्त्रता संग्राम 1905 -1947 तक चला था, ये आपने पाकिस्तान की ऑफिशियल वेबसाइट से पढ़ लिया है | आपने असाम और उसकी सात बहन प्रदेशों के इतिहास, भूगोल को पढ़ लिया है | आपको ये भी पता है कि कंप्यूटर में अब चिप्स के साइज़ के रजिस्टर होंगे जो उसे मोड़कर जेब में रखने लायक बना देंगे | क्या कहा ? मस्जिद बाबर ने नहीं मीर बाकी ने बनायीं थी ? ठीक है , ये जानकारी भी रख लो , काम आएगी | आपके पास अभी बहुत सारी जानकारी है , जो नर्स भी देख रही है | अब आपको डर लग रहा है , है न ? सारी जानकारी होने के बाद ऑपरेशन की सफलता संदिग्ध लगती है, एक दो सेकेण्ड के लिए | हाँ .. ठीक है .. जिंदगी थोड़े ही खत्म हो जाएगी |
अब आप शांत हैं , आपको अनास्थीसिया दे दिया गया है | लेकिन आप इस वजह से शांत नहीं है | आप शांत हैं क्योंकि आप कहानी बुन रहे हैं , बिना डर के , बिना तसल्ली के, बिना भावुकता के | आप शब्द बिखेरते जा रहे हैं | बिना कोई कशमकश के , आप अपने पात्रों को चला रहे हो शुरू के दो कदम | अभी पात्रों ने खुद चलना शुरू किया है | नन्हे -मुन्ने उनके पांवों की थाप आप महसूस कर सकते हो अपने सर पर, किरर्र... किरर्र | नाक बहती है अभी उनकी , गीलापन रुई के बड़े बड़े पैडों से सोखा जा रहा है , नोज़ी साफ़ कलो ...| बड़े हो गए हैं आपके पात्र, सहज मानवीय गुण भरे हैं आपने उनमें | लड़ते हैं , झगड़ते हैं , प्यार भी करते हैं | किसी का खून भी हो गया , किसी ने डूबते को भी बचाया | आपके पात्र भी न ! कहानी अटक रही है क्या ? यहाँ पर पाठक बोर हो रहा है | आप सोचते ही जा रहे हैं | हाहाकार से ही ग्रन्थ उपजते है | बेचैनी ख़त्म नहीं हो रही | लिखना एक दर्द है, सिर्फ एक दर्द |
डॉक्टर बाहर आता है, "आई ऍम सॉरी ...उनका बचना काफी मुश्किल है | लगभग नामुमकिन ..." कहानी की पूर्ण तृप्ति के साथ आप आँखें बन्द कर लेते हैं | आखिरी सांस एक अधूरा उपन्यास है | बाहर पाठक खड़े हैं; माँ, भाई, बहनें रो रहे हैं | कहानी की भावनात्मकता के साथ बह गए हैं | पिता अभी आलोचना कर रहे है | विचार एक ब्रेन ट्यूमर है |
5 comments:
यह पढ़ कर सोच रहा हूँ कि कहानी पर निबंध कैसे लिखूँ?
वाह, एक और रसूल हम्जातोव.
भाई नीरज, मैं फुटपाथ पर हगता तो नहीं पर मूतता जरुर हूँ यानि की आम आदमी होने के काफी करीब हूँ शायद इसलिए मैं आपके लेख पर ये सोच के मंडराया की कहानी कैसे लिखे वाले निबंध से मुझे भी कुछ मुक्त होकर लिखना आयेगा पर भैय्या आपके नि-बंध ने तो मुक्त ना करके बांध ही लिया. काफी पहले आधुनिक संत सुधांशु जी महाराज का एक प्रवचन सुन रहा था "जन्म मरण के बंधन से मुक्ति कैसे पायें " और एक घंटे ध्यान लगाकर सुनांने के बाद "सरदर्द से मुक्ति कैसे पायें "का उपाय ढूंढ़ रहा था. महाराज जी ने वो जलेबियाँ तली के क्या बताऊँ पता ही नहीं चला की कहाँ आदि है और कहाँ अंत. महाराज आप भी बहुत गूढ़ लिखते हैं. तो प्रभु स्वीकारो मेरे परनाम..
aaya tha so tip diya ....
phir aayenge kum-se-kum panch baar
padhne ke baad ...........
regards.
बहुत ही अच्छी जानकारी ...... फ़ालो भी कर लिए है.
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