एक छोटी सी जगह है पाकिस्तान में, सारागढ़ी | ऐसा ज्यादा कुछ एतिहासिक नहीं है उसमे | महाराज रणजीत सिंह ने अपने राज में कई दुर्ग बनाये थे | तो ऐसे ही दो दुर्ग गुलिस्तान और लोखार्ट के बीच संचार व्यवस्था बनाये रखने के लिए सारागढ़ी दुर्ग बनाया गया | लेकिन इतिहास में उस जगह का नाम एक ख़ास वजह से दर्ज है | 12 सितम्बर 1897 को 10 हजार अफगान और पश्तून लड़ाकों और संख्या में महज 21 सिखों के बीच हुए मुकाबले की वजह से |
अफगान विद्रोह 1897 में अपने चरम पे था | गुलिस्तान दुर्ग पर हमले की कई कोशिशों को नाकाम किया जा चुका था | अफगान लड़ाकों ने अब अपना ध्यान सारागढ़ी पर किया, क्योंकि सारागढ़ी सूचना केंद्र था जिसे तबाह करना जरूरी था | पूरी घटना का ब्यौरा कुछ यों था |
1. सुबह 9 बजे करीब दस हज़ार अफगान लड़ाकों ने सारागढ़ी दुर्ग को घेर लिया |
2. सरदार गुरमुख सिंह ने लोखार्ट दुर्ग पर कर्नल हौटन को सूचना भेजी कि उन्हें घेर लिया गया है |
3. कर्नल हौटन ने मदद भेजने से हाथ खड़े कर दिए |
4. भगवान सिंह सबसे पहले घायल हुए, लाल सिंह गंभीर रूप से घायल हुए |
5. लाल सिंह, जीवा सिंह भगवान सिंह के मृत शरीर को अफगान फौज से लड़ते हुए अन्दर के सुरक्षा घेरे तक लाये |
6. दुर्ग के खुले दरवाजे से प्रवेश करने के अफगान फौजों के दो प्रयासों को विफल कर दिया गया |
7. अफगान फौजों ने कई बार आत्मसमर्पण करने को कहा, मुमकिन है कई प्रलोभन भी दिए हों |
8. दीवार में सेंध लगाने में अफगान फौजें कामयाब हुई |
9. उसके बाद आमने सामने के युद्ध की भूमिका बननी शुरू हो गयी |
10. ईशर सिंह ने अपने आदमियों को आंतरिक सुरक्षा घेरे में चले जाने का हुक्म दिया और खुद अफगान फौजों पर टूट पड़े |
11. लेकिन सुरक्षा घेरा टूट चुका था , 'जो बोले सो निहाल , सत श्री अकाल' के जयघोष के साथ सिखों ने आखिरी युद्ध के लिए तलवारें खींच ली |
12. सारे सिख कई सारे पश्तून सिपाहियों के साथ मारे गए |
सारागढ़ी को अंग्रेजों ने अगले दिन अपने कब्जे में ले लिया था | पश्तून सिपाहियों ने बाद में स्वीकार किया कि उनके 180 सिपाही मारे गए और कई सारे घायल हुए हैं | दुर्ग में हमले के बाद करीब ६०० लाशें बरामद हुई थी | तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन लड़ाकों को श्रद्धांजलि देने के लिए हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मन्दिर) के पास गुरुद्वारा सारागढ़ी साहिब बनाया है | ब्रिटिश संसद ने खड़े होकर इस युद्ध में वीरगति पाए सिपाहियों को सम्मान दिया था | संसद ने वक्तव्य जारी करते हुए कहा - 'ब्रिटिश, साथ ही भारतीय भी, 36 सिख रेजीमेंट की बहादुरी पर गर्व महसूस करते हैं | ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दुनिया में वो सेना कभी हार नहीं सकती जिसके पास ऐसे बहादुर सिख जान की बाजी लगाने को तैयार हों |'
बहरहाल, महत्वपूर्ण ये नहीं कि कब क्या हुआ, या घटनाएं किस क्रम में हुई | महत्वपूर्ण ये भी नहीं कि वो लड़ किससे रहे थे, किसके लिए रह थे, क्यों लड़ रहे थे | महत्वपूर्ण ये है कि वे लड़े, उन्हें झुकना नहीं था | महत्वपूर्ण ये है कि उन्हें पता था कि 'खालसा' क्या होता है, वे खालिस लोग थे | ये सिर्फ कागजी विवरण हैं, लेकिन इन्हें पढ़ते हुए भी सर में खून जम जाता है | क्या तो जिगर रहा होगा उन इक्कीस लोगों का, जिन्हें सामने दस हजार लोग नजर आ रहे होंगे | उनके पास समय नहीं था रूककर अपनी भावनाएं देखने का | उनके सामने बस एक ही लक्ष्य था, वो लक्ष्य भी उन्होंने सोचकर नहीं लिया होगा | लोग उन्हें पागल कहें, सिरफिरा कहें, या आगे उनके लिए स्मारक बनायें, ये भी कह सकते हैं कि आत्मसमर्पण कर सकते थे, ये सब भी उन्हें सोचने का वक़्त नहीं मिला होगा | बात यहाँ पर इस चीज़ की भी नहीं है, कि लड़ाई से कभी भला हुआ या नहीं | अगर उनके पास वक़्त रहता तो इस तरह की बौद्धिक बहस वे भी करते | देश भर में हडतालें, आन्दोलन कर सकते थे | शांति मार्च करते, दांडी में नमक क़ानून तोड़ते | आजादी के बाद शायद चुनाव लड़ते, या देश की बसें फूंकते | वे लोग किसी विचारधारा के तहत ऐसा नहीं कर रहे थे | न उन लोगों को गुरु गोबिंद सिंह की बात याद रही होगी कि 'चिड़ियों से मैं बाज तुडाऊं' | दिल में कहीं ग्रन्थ साहिब पर ऐतबार, ऐतराज का सवाल भी न आया हो | लेकिन उनके पास मौत का सिर्फ एक सेकंड था, और उस पल में उन्हें जिंदगी से ईमानदार होना था |
कौन सही है कौन गलत, ये तुम लोग करते रहो | लेकिन वादों, इज्मों और त्वों को परे रखकर बस एक बार खुद से ईमानदार बनो | महज सौ-सवा सौ साल पुरानी इस घटना को हम यों ही भूल गए हैं | क्यों नहीं इसे साहित्य कला या सिनेमा में जगह मिलती | आज लोहड़ी , मकर संक्रांति की शुभकामनाएं देते हुए ये कबाड़ी उन लोगों को, बस उन्ही पलों को याद रखना चाहता है |
अफगान विद्रोह 1897 में अपने चरम पे था | गुलिस्तान दुर्ग पर हमले की कई कोशिशों को नाकाम किया जा चुका था | अफगान लड़ाकों ने अब अपना ध्यान सारागढ़ी पर किया, क्योंकि सारागढ़ी सूचना केंद्र था जिसे तबाह करना जरूरी था | पूरी घटना का ब्यौरा कुछ यों था |
1. सुबह 9 बजे करीब दस हज़ार अफगान लड़ाकों ने सारागढ़ी दुर्ग को घेर लिया |
2. सरदार गुरमुख सिंह ने लोखार्ट दुर्ग पर कर्नल हौटन को सूचना भेजी कि उन्हें घेर लिया गया है |
3. कर्नल हौटन ने मदद भेजने से हाथ खड़े कर दिए |
4. भगवान सिंह सबसे पहले घायल हुए, लाल सिंह गंभीर रूप से घायल हुए |
5. लाल सिंह, जीवा सिंह भगवान सिंह के मृत शरीर को अफगान फौज से लड़ते हुए अन्दर के सुरक्षा घेरे तक लाये |
6. दुर्ग के खुले दरवाजे से प्रवेश करने के अफगान फौजों के दो प्रयासों को विफल कर दिया गया |
7. अफगान फौजों ने कई बार आत्मसमर्पण करने को कहा, मुमकिन है कई प्रलोभन भी दिए हों |
8. दीवार में सेंध लगाने में अफगान फौजें कामयाब हुई |
9. उसके बाद आमने सामने के युद्ध की भूमिका बननी शुरू हो गयी |
10. ईशर सिंह ने अपने आदमियों को आंतरिक सुरक्षा घेरे में चले जाने का हुक्म दिया और खुद अफगान फौजों पर टूट पड़े |
11. लेकिन सुरक्षा घेरा टूट चुका था , 'जो बोले सो निहाल , सत श्री अकाल' के जयघोष के साथ सिखों ने आखिरी युद्ध के लिए तलवारें खींच ली |
12. सारे सिख कई सारे पश्तून सिपाहियों के साथ मारे गए |
सारागढ़ी को अंग्रेजों ने अगले दिन अपने कब्जे में ले लिया था | पश्तून सिपाहियों ने बाद में स्वीकार किया कि उनके 180 सिपाही मारे गए और कई सारे घायल हुए हैं | दुर्ग में हमले के बाद करीब ६०० लाशें बरामद हुई थी | तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन लड़ाकों को श्रद्धांजलि देने के लिए हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मन्दिर) के पास गुरुद्वारा सारागढ़ी साहिब बनाया है | ब्रिटिश संसद ने खड़े होकर इस युद्ध में वीरगति पाए सिपाहियों को सम्मान दिया था | संसद ने वक्तव्य जारी करते हुए कहा - 'ब्रिटिश, साथ ही भारतीय भी, 36 सिख रेजीमेंट की बहादुरी पर गर्व महसूस करते हैं | ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दुनिया में वो सेना कभी हार नहीं सकती जिसके पास ऐसे बहादुर सिख जान की बाजी लगाने को तैयार हों |'
बहरहाल, महत्वपूर्ण ये नहीं कि कब क्या हुआ, या घटनाएं किस क्रम में हुई | महत्वपूर्ण ये भी नहीं कि वो लड़ किससे रहे थे, किसके लिए रह थे, क्यों लड़ रहे थे | महत्वपूर्ण ये है कि वे लड़े, उन्हें झुकना नहीं था | महत्वपूर्ण ये है कि उन्हें पता था कि 'खालसा' क्या होता है, वे खालिस लोग थे | ये सिर्फ कागजी विवरण हैं, लेकिन इन्हें पढ़ते हुए भी सर में खून जम जाता है | क्या तो जिगर रहा होगा उन इक्कीस लोगों का, जिन्हें सामने दस हजार लोग नजर आ रहे होंगे | उनके पास समय नहीं था रूककर अपनी भावनाएं देखने का | उनके सामने बस एक ही लक्ष्य था, वो लक्ष्य भी उन्होंने सोचकर नहीं लिया होगा | लोग उन्हें पागल कहें, सिरफिरा कहें, या आगे उनके लिए स्मारक बनायें, ये भी कह सकते हैं कि आत्मसमर्पण कर सकते थे, ये सब भी उन्हें सोचने का वक़्त नहीं मिला होगा | बात यहाँ पर इस चीज़ की भी नहीं है, कि लड़ाई से कभी भला हुआ या नहीं | अगर उनके पास वक़्त रहता तो इस तरह की बौद्धिक बहस वे भी करते | देश भर में हडतालें, आन्दोलन कर सकते थे | शांति मार्च करते, दांडी में नमक क़ानून तोड़ते | आजादी के बाद शायद चुनाव लड़ते, या देश की बसें फूंकते | वे लोग किसी विचारधारा के तहत ऐसा नहीं कर रहे थे | न उन लोगों को गुरु गोबिंद सिंह की बात याद रही होगी कि 'चिड़ियों से मैं बाज तुडाऊं' | दिल में कहीं ग्रन्थ साहिब पर ऐतबार, ऐतराज का सवाल भी न आया हो | लेकिन उनके पास मौत का सिर्फ एक सेकंड था, और उस पल में उन्हें जिंदगी से ईमानदार होना था |
कौन सही है कौन गलत, ये तुम लोग करते रहो | लेकिन वादों, इज्मों और त्वों को परे रखकर बस एक बार खुद से ईमानदार बनो | महज सौ-सवा सौ साल पुरानी इस घटना को हम यों ही भूल गए हैं | क्यों नहीं इसे साहित्य कला या सिनेमा में जगह मिलती | आज लोहड़ी , मकर संक्रांति की शुभकामनाएं देते हुए ये कबाड़ी उन लोगों को, बस उन्ही पलों को याद रखना चाहता है |
11 comments:
इस युद्ध के बारे में काफी पहले पढ़ा था, आज आपने फिर से याद दिला दिया। आभार।
खालिस वीरता, मुग्ध करने वाली।
Impressed.
It reminds me of 'Charge of the Light Brigade' but i am struggling to understand the title of your post.
Their professionalism as soldiers does deserve a grand salute irrespective of all other things. .....here to quote A.K. Hangal from the immortal SHOLAY may i dare say" Itna sannata kyoon hai bhai ?"
I mean why dont ppl comment on this lovely post.
मुनीश
टाइटल ऐसे ही कि हम ऐसे विषय को छूते हुए डरते हैं | हमारे यहाँ 300 जैसी मूवी नहीं बनती | 300 थर्मोप्लाय के युद्ध पर आधारित है, जो ग्रीक आर्मी और ज़ेरेसेस की पर्सियन आर्मी के बीच लड़ा गया था | इतिहास का सबसे चर्चित 'लास्ट स्टैंड' में 300 स्पार्टावासी ज़ेरेसेस की कई हज़ार फौज का मुकाबला करके जान दे देते हैं | मुझे 300 का प्रेसेंटेशन बहुत पसंद है |
रामायण और महाभारत की कहानियां कई पार्ट्स में हैरी पोटर या लोर्ड ऑफ़ दि रिंग्स जैसे भव्य स्तर पर बननी चाहिए | बड़े केनवास पे देखना चाहता हूँ मैं कि पीटर जेक्सन, क्रिस्टोफर नोलन, विशाल भारद्वाज कैसे उसे डाइरेक्ट करेंगे | या शायद कभी मैं खुद ... काश...
:)
बहुत बहुत धन्यवाद इस घटना की जानकारी देने के लिएा मेरे लिए यह नई जानकारी हैा जहां तक फिल्म '300' का सवाल है, मैनें यह फिल्म कई बार देखी हैा ऐसे विषयों पर जिस स्तर की फिल्में हालीवुड में बनती हैं, वैसी अपने बॉलीवुड में क्यों नहीं बनतीं; वैसे इस तरह की एक घटना भारत-चीन युद्ध के समय भी हुई थी जहां किसी भारतीय चौकी पर केवल 50 सैनिक थे जिन्होंने सैकड़ों चीनी सैनिकों का बहादुरी से सामना करते हुए अपनी जान दी थीा यदि आपके पास इस घटना की जानकारी तो अवश्य पोस्ट करेंा ऐसे अज्ञात वीरों को हमारा शत शत नमना
मेरा पहले वाला कमेंट तकनीकी कारण से शायद पब्लिश नहीं हो पाया है।
दरअसल इस युद्ध के बारे में किताबों में पढ़ा था। इसके बारे में आपने और जानकारी दी। आभार।
इस पर फिल्म बनी है ये मुझे नहीं पता था। अब तो देखना पड़ेगा यह फिल्म।
नीरज, जो सपना देख सकते हैं, वे उसे सच भी कर सकते हैं.
यह प्रश्न बहुत ज़रूरी है कि हमारे यहाँ ऐसा क्यों नहीं हो सकता? तुम ने प्रश्न किया है तो ऐसा ज़रूर हो सकेगा. गत वर्ष वडोदरा में एक व्याख्यान मे "पहाड़" वाले शेखर पाठक ने कहा था .... बड़े सपने सभी को नहीं आते. और जिन्हे आते हैं वे ही उसे पूरा भी करते हैं. शुभ कामनाएं.
Dream Big and toil hard my friend !Thnx for info. I know about the bravery of Spartans but i was not aware of the film .
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