15 अप्रेल 1995. सुबह छह बजे हम अपने पिट्ठू – डण्डे उठाए केलंग से उदयपुर (मर्गुल) के लिए पद यात्रा पर निकल पड़े हैं . HRTC की बसें अभी चल नही रहीं . उदय पुर की तरफ से BRO (बॉर्डर रोड्स ऑर्गेनाईज़ेशन ) का डोज़र चल पड़ा है लेकिन केलंग की ओर से स्नो क्लीयरेंस का काम शुरू नही हुआ . हमें मयाड़ घाटी के दस्तकारों को वज़ीफे बाँटने हैं. साथ मे मेरे सीनियर सहगल जी और दफ्तर के केशियर चौहान जी हैं . लोक सम्पर्क विभाग के ड्राईवर बीर सिंह छुट्टी जा रहे हैं , वो भी हमारे साथ हो लिए. पतली सी भागा नदी बर्फ से ढँकी हुई है. घाटी में एक ठण्डा सन्नाटा पसरा है .रास्ता टेढ़ा मेढ़ा है. रास्ता क्या है, सड़क के बीचोंबीच ताज़ा बरफ में एक पतली लीक खिंची हुई है जिस की चौड़ाई इतनी कम है कि सामने से आते पथिक को रास्ता देने के लिए लीक से बाहर होना पड़ता है. तोक्तोक्च के पास हमे समतल रास्ता छोड़ कर पगडण्डी पर चढ़ना पड़ा. बरफ काफी ज़्यादा है और रास्ता ऊबड़ खाबड़ . हमारे पास साधारण स्पोर्ट्स और हंटिंग शूज़ हैं. तलुओं में जलन होने लगी है और गरम कपड़ों के भीतर हमारा बदन पसीने से भीग रहा है .
कारगा पहुँच कर हम ने कमर सीधी की. आठ किलो मीटर का सफर हम ने सवा घण्टे में तय किया है मैं तो बरफ में लेट ही गया. चौहान जी काँगड़ा की तरफ के हैं . शायद बरफ में पैदल चलने के आदी नही हैं और खासे परेशान नज़र आ रहे हैं . फर्लाँग भर की चढ़ाई ने उन की साँस फुला दी है . एक पत्थर पर उकड़ूँ बैठ कर वे एक सिग्रेट सुलगाते हैं . बड़े चाव से कश खींच रहे हैं . पूरे रम कर. मानो उन सुलगती चिनगियों की तपिश धुँए के साथ भीतर खींच लेना चाहते हों. यह देख कर मैं भी तृप्त हुआ जा रहा हूँ . अभी एक साल पहले तक मैं खुद भी चेन-स्मोकर था. बड़ी ज़ोर की तलब उठी है भीतर. और बमुश्किल रोक पाया हूँ खुद को.
3 comments:
अच्छा वर्णन हैं....अच्छी बात है चेन स्मोकर होने के बावजूद खुद को रोका... अब भी खुद को ऐसे ही रोकते होंगे, यही उम्मीद है....
प्यास बुझने के पहले ही पानी समाप्त हो जाता है, और लम्बा लिखिये।
# वीना, जी ज़िन्दगी मे एक ही संकल्प पर खरा उतरा हूँ. गत 17 बर्षों मे धुँआ नहीं किया:) खुद हैरान हूँ. कविता के उन गहनतम क्षणों मे भी नहीं.
# प्रवीण पण्डेय , लम्बा पोस्ट उबाऊ हो जाता है. फिर भी आप कहते हैं तो तीस चालीस शब्द बढ़ा देता हूँ. मुझे अपने गद्य पर भरोसा नही है. अभी सीख रहा हूँ.
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