Wednesday, March 16, 2011

मेरे साथ मयाड़ घाटी चलेंगे ? -- 9

षङ्गढ़ पार कर हम शाँशा गाँव के सिरे पर बने छोर्तेन के पास पहुँचे हैं. एक खेत पर हल जोता जा रहा है.
“ ल्हासो .........हो $$$$$$$$ .... ” की पुकार सामने पहाड़ से टकरा कर देर देर तक गूँज रही है. “.ला ज़ङ्पोई पिवा ला नोर ज़ङ्पो लना..........हे ........यौहु योह बीर भाई कु, सुघर्निऊ टूँहषिकु, धरतिऊ मालकु........”

इस गायन में अजीब सी कशिश है।
हो भी क्यों न ? मानवीय श्रम और संघर्ष की अकथ गाथाओं का सार छिपा है इस में।
मैं हाथ जोड़ कर नमन करता हूँ ……इस हलवाहे मानव को और उस के अनहद मर्मस्पर्शी गान को, और उन दो निरीह पशुओं को !
मेरी आँखे इस अद्भुत दृष्य से उपकृत हो कर भीग आईं हैं . ताज़ी मिट्टी की सुगन्ध हवा में तैर गई है. ब्यूँस ने हरियाली ओढ़ ली है. नवाँकुरित टहनियाँ हवा के उस झौंके में हौले से झूम गई हैं. उस पर बैठा कोई पक्षी आहिस्ता से चहक उठा है....... आह ! यह मधुरतम क्षण क्या मेरे लिए घटित हुआ? ईश्वर ,क्या यही हो तुम? अब इस सब के अलावा हो भी क्या सकते हो तुम ! मैं अपनी भूख प्यास और तमाम खुशी और गम भूल कर इस परिदृश्य में विलीन हो जाना चाहता हूँ.

तभी मोड़ के पीछे तेज़ हॉर्न की आवाज़ हुई है. दहाड़ता हुआ एक ट्रक आया है. मेरी तन्द्रा टूटी तो देखता हूँ चौहान जी दोनों हाथ जोड़ कर घुटनो के बल बीच सड़क पर बैठ गए हैं. जैसे कोई भगत देवता के आगे बैठता है. उन का ईश्वर तो अब जाकर आया है. सामने की सीटें फुल हैं. इशारे से हमें पीछे बैठने को कहा गया है. मैं और सह्गल जी तुरत फुरत चढ़ गए, चौहान जी एक्साईट्मेंट में गिरते पड़ते ट्रक के ‘डाले’ तक पहुँचे. मैंने हाथ दे कर उन्हें ऊपर खींच लिया है. शुक्र है, हम तीनों अन्दर हो गए. ट्रक में ताज़ा कटे लकड़ी के बेडौल ठेले भरे हुए हैं.. अभी हम बैठने के लिए जगह ढूँढ ही रहे हैं कि झटके से ट्रक चल पड़ा है. एक ठेला लुढ़कता हुआ चौहान जी की टाँगों से जा टकराया है. वो वहीं निढाल हो कर बैठ गए. उन की पॉलीकॉटन की पतलून घुटनो के पास रोमन ‘एल’ आकार में फट गई. मैंने पूछा – लगी तो नहीं ज़्यादा ?
‘लग्गी तो है , चल मराण देया... अपर पेंट फट गी माईयवी’.

वह बन्दा बस रुलाई रोके हुए है किसी तरह.

जाहलमा पहुँच कर ठेले उतार दिए जाते हैं. हम ने भोजन के लिए दस मिनट रुकने का अनुरोध किया लेकिन ड्राईवर के पास ‘टेम’ नहीं है . अभी तक हम ने कुल 26 किलोमीटर का सफर तय किया है. इतना ही और चलना है. चलो अब गाड़ी में घण्टे भर की ही तो बात है. मैं ने खुद को तसल्ली दी है.

जूंडा गाँव पार करने पर जुनिपर के पेड़ दिखने लगते हैं. ये प्राकृतिक रूप से उगे हुए हैं. यहाँ से आगे हवा की तासीर ही बदल जाती है. गन्ध भी. यह शायद वेजिटेशन के कारण है. थिरोट के बाद तो दयार , कायल, राई तोस... तमाम अल्पाईन प्रजातियाँ मिल जाती हैं. यह इलाक़ा हरा भरा, गर्म, और संसाधनों से भरपूर है.शायद इसी लिए लोग भी केयर फ्री और मस्त हैं. मैं इस अद्भुत जगह को देख रोमेंटिक होना चाहता हूँ. लेकिन सडक बहुत खराब है .जम्प लगता है तो झटका पैरों से होता हुआ सीधे खोपड़ी पर लगता है. समझ में आता है कि लम्बी और खराब यात्राओं पर चलने वाले ट्रक ड्राईवर दिमाग पर ज़्यादा बोझ क्यों नहीं डालते. मैं भी सोचना छोड़ कर पड़ा रहता हूँ. ट्रक की गति और लय के साथ एकात्म होने की कोशिश करता !

(जारी )