वीरेन डंगवाल की एक बेहतरीन कविता है बांदा -
मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर खुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल.
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बात.
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल
मै जामा मस्जिद की शाही संगमरमरी मीनार
मैं केदार,
मैं केदार,
मैं कम बूढ़ा केदार
बांदा में रहने वाले हिन्दी के अग्रणी कवि केदारनाथ अग्रवाल की सौवीं जन्मतिथि को हमने उनकी एक कविता यहां लगाई थी. चाहता तो मैं यह था कि इन्हीं केदारनाथ अग्रवाल पर पिछले साल छपा वीरेन डंगवाल का एक संस्मरण यहां प्रस्तुत करता. आख़िरकार वह लेख अब साथी आशुतोष कुमार की कृपा से मेरे सामने है और इसे आपके साथ बांटते हुए मुझे प्रसन्नता है.
लोक से आलोक का रास्ता
वीरेन डंगवाल
यह सन अट्ठानवे की बात है. बल्कि ३१ मार्च - केदार जी के जन्मदिन की पूर्व संध्या की. उतरते बसंत के उन मुलायम दिनों की, जब बुंदेलखण्ड अपनी हठयोगी मुद्रा फिर से धारण करने से पहले कुछ समय के लिए हरा-भरा बना रहता है. शाम के धुंधलाने के समय मैं केदार जी के घर पहुंचा. एक विशाल धूल भरे अहाते में एक बड़े से पारिवारिक भवन से लगी उनकी कॉटेज जैसी रिहाइश थी - सुडौल खपड़ैल की छत वाली. द्वार खुला था. केदार जी बीच वाले कमरे के लगभग बीचोबीच, पुरानी तर्ज़ वाली उस आरामकुर्सी पर प्रतिमावत बैठे थे. गोया किसी न किसी के आने की प्रतीक्षा करते हों. दीवार से लगी धुंधले शीशों वाली कुछ अल्मारियां थीं जिनमें कानून की मोटी ज़िल्दें सजी थीं. धूल शायद वहां पर भी थी. फ़र्श पर, फ़र्नीचर पर. कम रोशनी देती ट्यूबलाइट पर. मेरे पहुंचने पर अविचलित बैठे केदार जी की आंखें कुछ चमकीं. झुकते हुए मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि मैं उनके जन्मदिन समारोह में शामिल होने आया हूं. यह समारोह तब हर साल उनके प्रकाशक परिमल के शिवकुमार सहाय के सहयोग से नरेन्द्र पुण्डरीक आदि आयोजित करते थे. केदार जी के होंठ स्मित में हिले - कुछ पहचानते, कुछ न पहचानते हुए. ज़रा सी देर कुछ बातें मैंने कीं. कुछ उन्होंने. शुभकामना देते हुए मैंने फिर आगे बढ़कर गोदी में रखे उनके मुलायम हाथों को उठा लिया. आयुक्षीण उन हाथों और हड्डी उंगलियों में गहरे अकेलेपन की ठण्ड थी. मुझे लगा अल्पपरिचय की औपचारिकता से उनके अकेलेपन को ज़्यादा कुरेदना ठीक न होगा. इजाज़त लेते हुए हौले से मैं वहां से उठ आया. उस चटियल मैदान को पार करते उन्हीं का लिखा याद आया:
आज नदी बिल्कुल उदास थी
सोयी थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पांव वापस घर आया.
केदार जी की कविता से मेरा परिचय उसी उम्र में अकस्मात ही हुआ था, जब मेरे हृदय पटल पर क्रमशः श्याम नारायण पांडेय, सोहनलाल द्विवेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, हरिऔध और मैथिली शरण गुप्त प्रभृति को परे सरकाते हुए पंत-प्रसाद-निराला-महादेवी काबिज़ हो चले थे. भाई साहब ने आगरा से छपने वाली साहित्य-सन्देश पत्रिका लगवा रखी थी और बाकायदा ग्राहक संख्या का उल्लेख करते हुए कभी-कभी वे उसके सम्पादक से पत्र-व्यवहार भी करते थे. एक लेख भी उनका उसमें छप चुका था. सो साहित्य-सन्देश की कुछ बंधी ज़िल्दों और एक मोटे वार्षिकांक को गर्मी की छुट्तियों में उलटते-पुलटते मैंने प्रयोगवाद, तारसप्तक, अज्ञेय और मुक्तिबोध सरीखे शब्द देखे तो मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में तथा तो-तो-तो-तो-ता-ता-ता-ता सरीखी पंक्तियां पढ़कर चकित-आनंदित हुआ. इसी उलट-पुलट में निगाह अटकी हवा हूं हवा मैं बासन्ती हवा हूं पर. कुछ स्वरों शब्दों का जादू, कुछ किशोरी हवा के पेड़ पर उतरने-चढ़ने किया कान में कू जैसी धमाचौकड़ी - ये पंक्तियां मेरे दिल में अटक गईं. ऐसे ही सरदी की धूप जो चांदी जैसी साड़ी पहने मैके आई हुई बेटी जैसी खुश और मगन है या चन्द्रगहना से लौटती बेर की अनूठी दृश्यावली जिसमें कवि मेड़ पर बैठा है शामिल भी है: एक बीते के बराबर हरा-ठिगना चना, सर पर गुलाबी फूल का साफ़ा धारे. पतली लचकदार कमर वाली नीलों फूलों से सजी अलसी और सयानी पीले हाथों वाली सरसों. पोखर में जाने कब से चुपचाप पानी पीते पत्थर और वहीं से तनिक ऊंचाई पर गुज़रती रेल की पटरी. सारस की एक जुगल जोड़ी और उस विराट परिदृश्य में चुप्पे-चुप्पे चलती एक अंतहीन सच्ची प्रेम कहानी - कुछ अलग ही बात थी उन तमाम पंक्त्तियों में, प्रकृति-सभ्यता और समाज के बीच भीतर और बाहर की दुनिया के बीच एक सर्वथा नया रिश्ता, एक बिल्कुल ताज़ा भाषा में. नए नीले-पीले डिब्बों वाली एक रेलगाड़ी.
(जारी)
2 comments:
यह बुन्देलखण्ड का गर्व है कि केदारनाथ जी जैसा केदार कवि ने वहाँ के जनजीवन को साहित्यिक आकार दिया। बहुत सुन्दर नदीं की नींद।
रोचक,मन को बाँध लेने वाला प्रसंग !
शेष भाग पढ़ने को बेताब हूँ !
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