Thursday, April 14, 2011

मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार -2

(पिछली किस्त से जारी)

पंत-प्रसाद-निराला-महादेवी सरीखी ही दिलकश, पर साथ ही उन से एकदम अलग. इस दुनिया में अबोधता न थी, एक जवां दिली, साफ़ निगाह और संसार के लिए भरपूर प्यार था. यों केदार की कविता से तब तक मुझे बिना ठीक-ठीक समझे भी वयस्क और भौतिक रूमानियत का पहला अकस्मिक स्वाद मिला. काफ़ी साल बाद जब शमशेर की कविताओं से भी साबका पड़ा तो मैंने पाया कि अपने भाव-जगत की संरचना, प्रगाढ़ राग तत्व, ऐन्द्रिकता तथा जीवन और समाज के प्रति सुचिंतित लगाव में ये दोनों कवि कितने समान हैं - वैसे ही जैसे वे दोस्त हैं. अंतर दोनों कवियों के लोकेल और तदनुसार जीवन स्थितियों में विकसित हुई शाइस्तगी, रियाज़ तथा भाषागत स्वभाव का है. केदार के पास बाहर की दुनिया के कठोर संघर्षों को देखने के साथ ही उसके उत्सव में शामिल होने का अवकाश भी है. अलबत्ता समुचित आत्म-सम्पादन नहीं है. नतीज़े में उनकी प्रकाशित कविताओं में दुहराव की काफ़ी तादाद तो है ही, खराब कविताओं की संख्या भी काफ़ी ज़्यादा है. मगर हर अच्छे कवि को कुछ न कुछ खराब कविताएं लिखने का भी तो अधिकार होता है.

यों इन खराब कविताओं की वजह से, उतनी अच्ची कविताएं लिखने के बावजूद केदार को कम लानत नहीं झेलनी पड़ी. वैचारिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त गणाधिपतियों ने तो उनकी अनदेखी की ही, खुद प्रगतिशील रचनाकारों-आलोचकों के एक तबके को उनकी कविताओं का देसी ठाठ और सरलता रास नहीं आए. कविता में जटिलता और सरलता को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का मुकदमा पिछले साठ-सत्तर साल से चला आता है. रचना के अर्थ, आशय, उसकी व्यग्रताएं, संवेदनात्मक सघनता, सत्य और जीवन की बहुस्तरीयता को समझने-समझाने की उसकी क्षमता को दरकिनार करने, इस बात की भी उपेक्षा कर कि कवि का मंसूबा कहां और किस तक संबोधित होने का है, जटिलता अथवा सरलता को ही काव्य मूल्य के बतौर स्थापित करने की आलोचनात्मक चेष्टाओं ने ख़ासकर हिन्दी कविता का काफ़ी नुकसान किया है. एक ही कवि की कविता जटिल भी हो सकती है और सरल भी, एक धुंधला इशारा और उस इशारे की तरफ़ पुलकभरी दौड़, एक अमूर्त डरावना अन्धेरा जिसमें नादानियां चमकती हों और एक आगाह करती अनुगूंज. एक ही कवि सब कुछ हो सकता है. जैसे मुक्तिबोध तक हैं. शमशेर भी. यहां तक कि अज्ञेय भी. इस बात का ख़ास हवाला यहां इसलिए कि अत्यंत सक्षम प्रगतिशील युवा आलोचल कृष्ण मोहन ने अपनी अन्यथा समर्थ कृति मुक्तिबोध स्वप्न और संघर्ष में इसी आधार पर केदारनाथ अग्रवाल को मूलतत्ववादी (फ़ण्डामेन्टलिस्ट) और शिश्नोदर प्रवृत्ति का कवि कह डाला है. मूल्यांकन के लिए हम कवि की किन रचनाओं को चुनते हैं, काफ़ी कुछ तो इस पर भी निर्भर होता है. मुक्तिबोध की विचारधारा अंत तक वही रही, लेकिन क्या मूल्यांकन उनकी लाल सलाम शीर्षक कविता से हो सकता है जो ११ जून १९४४ को लोकयुद्ध में छपी थी? "फ़ासिस्टों की अन्धकार मेघों सी सेना चीर/ चली हज़ाओं लाल किरण सरिताएं तीव्र-अधीर" खोजने वाले बताएंगे कि ऐसी कई कविताएं मुक्तिबोध ने और भी लिखी थीं. डॉ. रामविलास शर्मा अगर उन्हें आधार बनाते तो शायद मुक्तिबोध पर खुश होते. लेकिन मुक्तिबोध का कवि वह नहीं है, न केदार का मुख्य व्यक्तित्व मोरचे पर शीर्षक कविता है जिसे कृष्ण मोहन ने कसौटी बनाया है और अतिरेक में व्याख्या करते हुए उन्हें क्या-क्या नहीं कह डाला है. लगता है वास्तविक कारण कहीं और हैं. केदार और उनका यथार्थवाद तो बेचारे मुफ़्त में मारे गए हैं.

(अगली किस्त में समाप्य)

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

समाज और जीवन के दोष कविता में दिखना स्वाभाविक हैं।