Tuesday, April 19, 2011

उदारवादी लोकतंत्र में अतिवादी तर्क

भारतीय लोकतंत्र में कई अतिवादी विचार और आंदोलन सक्रिय हैं. इनकी मौज़ूदगी न होती तो शायद वर्षों से अनसुनी पीड़ित समुदाय की आवाज़ें कभी सुनी नहीं जातीं. इस लिहाज़ से इन अतिवादी तर्कों ने तमाम सीमाओं के बावजूद यथास्थिति को तोड़ने का काम किया है. हाशिए के समुदायों को एक जुबान दी है. ये आंदोलन सत्ताधारी वर्ग और मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को परेशान करते हैं. लेकिन उदारवादी लोकतंत्र तरह-तरह के राष्ट्रवादी, जातिवादी, धार्मिक और वामपंथी विचारों के कटघरे में खड़ा है. अस्मिता और विकास संबंधी मुद्दे अपने चरमपंथी तर्कों के साथ सामने हैं. जिन्होंने आभासी संतुलन पर चलने वाली व्यवस्था के सामने कई चुनौतियां खड़ी की हैं. इस तरह अतियों की अनदेखी करना अब संभव नहीं रह गया है.
दक्षिण एशिया के इस भूभाग में कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्य राष्ट्रीयता के आंदोलनों की जद में हैं. आत्मनिर्णय का अधिकार पाने के लिए वे हर रास्ता चुनने पर उतारू हैं. भारतीय राष्ट्र-राज्य के साथ उनका रिश्ता द्वंद्वों से भरा है. मुख्यधारा के मीडिया में अक्सर अलगाववादी आंदोलन के तौर पर उनकी पहचान की जाती है. इसी तरह बहुसंख्यक हिंदू धर्म के भीतर अति दलितवादी, ब्राह्मणवाद के सामने नई चुनौती पेश कर रहे हैं. वे पूरी दुनिया को दलितवाद के चश्मे से देखकर भारतीय राजनीति को अपनी आवाज़ सुनने के लिए मजबूर कर रहे हैं. धार्मिक अल्पसंख्यक अपमान झेलकर प्रतिशोध के रास्ते पर हैं तो बहुसंख्यक कट्टरपंथी भी बम और नफ़रत का नया दर्शन लेकर आए हैं. इसी तरह और भी कई तरह की अतिवादी गतिविधियां देश के अलग-अलग इलाक़ों में चल रही हैं.
इन सभी हलचलों से अलग एक और अतिवादी आंदोलन देश में चल रहा है. वो है बराबरी पर आधारित समाज की बात करने वाला हथियारबंद नक्सली आंदोलन. इस आंदोलन का ऊपर वर्णित सभी आंदोलनों से मूलभूत फ़र्क है. बाक़ी सभी आंदोलन जहां पहचान की भावनात्मक राजनीति पर टिके हैं वहीं यह अतिवामपंथी आंदोलन राजनीतिक-आर्थिक बदलाव के दर्शन के साथ सामने है. अस्मिता या पहचान की राजनीति की सीमा हमेशा यह होती है कि वो अपने समूह के स्वार्थों से ऊपर नहीं सोच पाता. सम्पूर्ण समाज के विकास और बराबरी के सपने की अनदेखी करता है. लेकिन वामपंथी अतिवाद हमेशा शोषणविहीन समाज की वकालत करता है. बाक़ी कोई भी अतिवादी आंदोलन इतने बृहद परिप्रेक्ष्य और उद्देश्यों के साथ सामने नहीं आता है. सत्ता कई बार इसे आंतकवादी करार देती है. लेकिन इस सवाल की विवेचना ज़रूरी है कि नक्सली अमीरों के तंत्र के लिए आतंक हैं या गरीब जनता के लिए ? हिंसा की वकालत की वजह से इसकी आलोचना होती है. लेकिन बंदूकों की आवाज़ सुनकर सरकारें उनके आधार इलाक़ों में विकास की बात करने लगी हैं. वहां के आदिवासियों की फ़िक्र अचानक उसे सताने लगी है. इस तरह अतिवादी तर्क से कई बार उपेक्षित समुदायों के विकास का मुद्दा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ जाता है. जनता के बजाय हथियारों पर अतिनिर्भरता और अराजकता को इस आंदोलन की कमज़ोरी के तौर पर चिन्हित किया जाता है.
पूंजीवादी लोकतंत्र पर भरोसा करने वाला कोई भी नेता और बुद्धिजीवी इन सभी अतियों का समर्थन नहीं करेगा. लेकिन वर्तमान लोकतंत्र की सीमाओं को पहचानने की कोशिश करने वाले ज़रूर इसकी पड़ताल करेंगे कि आख़िर अतिवादी नज़रिए हमारे समाज में कहां से आए. उनके पीछे कौन-कौन से कारण महत्वपूर्ण हैं. हमारी अर्थनीति ने ऐसे हालात पैदा करने में क्या भूमिका निभाई है. राजनीतिक दलों का व्यवहार इनके लिए कितना जिम्मेदार है. लोकतंत्र के उदारवादी मॉडल में कहां-कहां पर गड़बड़ी हैं. इसलिए इस संदर्भ में कोई राय बनाने से पहले अतियों के तर्क सुनना और उनकी सीमाओं और संभावनाओं पर बात करना जरूरी है.
अतिवादी आंदोलनों की चर्चा करते हुए इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि देश के सभी हिस्सों को विकास का बराबर अधिकार क्यों नहीं मिला ? एक लोकतंत्र के तौर पर भारत का विकास कुछ केंद्रों और वर्गों तक सीमित क्यों है ? ऐसे में कोई इलाक़ा उपेक्षा से तंग आकर अलगाववादी रास्ता अपना ले तो इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है ? वहां के लोग या उनकी उपेक्षा करने वाला सत्ताधारी वर्ग ? यह बात सच है कि राष्ट्रवादी आंदोलनों की सीमाएं छिपी नहीं हैं. भारत से तथाकथित आज़ादी हासिल कर वे किस तरह का राष्ट्र बनना चाहते हैं यह अपने-आप में गहरा सवाल है. इनमें से ज़्यादातर आंदोलनों के अगुवा नए राष्ट्र में उदारवादी लोकतंत्र से भी नीचे गिरकर धार्मिक राष्ट्र बनाने का विचार रखते हैं. आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने के बावजूद आधुनिक मूल्यों का समर्थक कोई भी व्यक्ति इस प्रतिगामी विचार का समर्थन नहीं कर सकता. इतना ज़रूर है कि इन सभी सीमाओं के बावजूद ये आंदोलन सामुदायिक उपेक्षा की बात उठाने में कामयाब हैं.
ठीक इसी तरह दलित-पिछड़े अगर अपनी आवाज़ उठाते हैं और उनके तर्क जातिवाद के कोढ़ की तरफ़ इशारा करते हैं तो इसमें ग़लत क्या है ? हां, यह सही है कि ब्राह्मणवाद का विकल्प सिर्फ़ एक समूह के स्वार्थ पर टिका संकीर्ण दलितवाद नहीं हो सकता है. लेकिन इतना तय है कि उपेक्षित जातियों का चरमपंथ पूर्वाग्रहों से जुड़ी कई अन्यायपूर्ण बातों को मानने से इनकार करता है. राजनीतिक गोलबंदी नहीं हुई होती तो क्या भारतीय लोकतंत्र हाशिए की उन आवाज़ों को सुनता ? लेकिन सिर्फ़ आरक्षण और कुछ छोटी-मोटी रियायतें पाकर बराबरी हासिल करने की मृगमरीचिका इसकी सीमाओं का इज़हार करती है. आख़िरकार इनकी राजनीति कहीं न कहीं इसी व्यव्सथा में फिट होने की राजनीति में बदल जाती है. अस्मिता की राजनीति पर टिका गुस्सा जोड़-तोड़ की राजनीति करने वाली धूर्तता में बदल जाता है. जातिविहीन समाज कैसे बनेगा यह ख़ुद इसके प्रवक्ताओं की चिंता में नहीं दिखाई देता है.
देश में जिस तरह साम्प्रदायिक राजनीति चली है उसने बड़े पैमाने पर लोगों को विभाजित करने का काम किया है. इसकी शुरुआत आज़ादी के आंदोलन के दौरान से ही देखी जा सकती है. थोड़ा सा विचार करने पर साफ़ हो जाता है कि तब भी सत्ता की राजनीति के लिए हिंदू-मुस्लिम का मामला भड़काया गया और आज तक वो मामला बदस्तूर जारी है. राज्य के कामों में धर्मनिरपेक्षता की असली अवधारणा सर्वधर्म वर्जयते को लागू करने की जगह यहां सर्वधर्म समभाव को शगूफा छोड़ा गया. लेकिन पर्दे के पीछे हमेशा बहुसंख्यकवाद हावी रहा. आज भी हिंदू कर्मकांडों को राष्ट्रीय ज़रूरतों की तरह निभाया जाता है. किसी सरकारी समारोह में नारियल तोड़ना, दीप जलाना और सरस्वती पूजा करना इसके ठोस उदाहरण हैं. अलग-अलग राजनीतिक दल साम्प्रदायिक राजनीति करते रहे. वोट हासिल करने के लिए धार्मिक पहचानों का निरंतर दोहन किया गया. इस तरह बहुसंख्यक साम्प्रदायिक राजनीति ने अल्पसंख्यकों को और ज़्यादा अलगाव में डाल दिया. दिल्ली में सिखों, गुजरात में मुसलमानों और कंधमाल में इसाईयों का ‘लोकतांत्रिक’ संहार देश देख चुका है. इस तरह की घटनाओं से अगर अल्पसंख्यक समुदायों के मन में आक्रोश पनपता है तो दोषी कौन है? क्या हमारे लोकतंत्र के पास उनके घावों पर लगाने के लिए कोई मलहम है ? यह बात सच है कि प्रतिक्रिया पर टिके अल्पसंख्यकों के आक्रोश की सीमा अपने आप में जाहिर है. यह किसी सामाजिक बदलाव की जगह प्रतिशोध की भावना पर टिका होता है. इसलिए इससे सुंदर भविष्य की कोई भी आशा करना बेमानी है. लेकिन अल्पसंख्यकों का उग्रवाद की दिशा में जाना ज़रूर यह सवाल उठाता है कि देश में सबकुछ बहुत ठीक नहीं चल रहा है. वे बेवजह विध्वंश के रास्ते पर नहीं उतरे हैं. इसकी जड़ें धर्मनिरपेता के ढोंग में छिपी हैं. इसका दूसरा पहलू हाल के वर्षों में हिंदू आतंकवाद के तौर पर भी देखने को मिला है. धार्मिक कट्टरपंथ को राजनीतिक संरक्षण देना कितना ख़तरनाक हो सकता है यह इस बात का जीता जागता नमूना है. जब तक लोकतांत्रिक राजनीति में धर्म को अहमियत दी जाती रहेगी तब तक ऐसे विध्वंशक धार्मिक आतंकवाद से बचना मुश्किल है. इस तरह देखा जाए तो अस्मिता से जुड़े हर अतिवाद की परिणति तर्क को प्राथमिकता देने के बजाय हमेशा उन्माद को बढ़ावा देने में होती है. अस्मिता से जुड़े आंदोलनों में नारीवाद और लैंगिकता से जुड़े कई और आंदोलन भी शामिल हैं. उपेक्षा के शिकार समुदायों की तरफ़ से यहां भी अतिवादी ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं. जो बाक़ी अतियों की तरह ही अपना राजनीतिक तर्क सामने लाती हैं.
सभी स्थितियों में एक बात सामान्य है कि पूंजी के खेल पर टिका लोकतंत्र जब समाज में चलने वाली उत्पीड़न की प्रक्रियाओं की अनदेखी करता है तो प्रतिकार के तौर पर अतिवादी आवाज़ें उठनी शुरू हो जाती हैं. जो सत्ता और प्रभुत्व के ख़िलाफ़ एक चुनौती खड़ा करती हैं. उदार लोकतंत्र के खोखलेपन से पर्दा उठाती हैं और अनसुनी आवाज़ों को सुनने के लिए पूरी दुनिया को मजबूर करती हैं. हम धार्मिक तौर पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों तरह के आतंकवाद देख चुके हैं. पहचान की राजनीति यहां अल्संख्यकों के शोषण की कहानी सामने लाती है तो पहले से ही विशेषाधिकार प्राप्त बहुसंख्यकों का चरमपंथ अपने लिए और सुविधाएं चाहता है. वो अपने राष्ट्र में अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होता है. देश में मुसलमानों और हिंदुओं के आतंकवाद की तरफ़ मुड़ने को इस परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है. दोनों ही तरह का अतिवाद समाज को कभी बेहतर दिशा में नहीं पहुंचा सकता. इनका अंत अनिवार्य शुरू से विध्वंश में ही होता है. कुल मिलाकर इस तरह की घटनाएं धर्म पर टिकी राजनीति के ख़तरों को हमारे सामने रखती हैं. ठीक यही बात कमोबेश पहचान की राजनीति से जुड़े बाक़ी अतिवादी आंदोलनों में भी देखी जा सकती है. अस्मिता की राजनीति के सामने हमेशा एक ऐसा दुश्मन होता है जिसे ख़त्म करना उसके लिए संभव नहीं है. जैसे दलित जन्म के आधार पर पैदा ब्राह्मण को ख़त्म नहीं कर सकते. स्त्रियां, पुरुषों को ख़त्म नहीं कर सकतीं. हिंदू, मुसलमानों को ख़त्म नहीं कर सकते. न ही ये समुदाय तथाकथित दुश्मन को हमेशा के लिए अपने अधीन रख सकते हैं. ऐसा फासीवादी विचार रखने पर बराबरी पर आधारित समाज का सपना देखा ही नहीं जा सकता. इसलिए बदलाव चाहने वालों को हर हाल में उन्हीं हथियारों को इस्तेमाल करना पड़ेगा जो आर्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियों में बदलाव लाते हैं.
उदारवादी लोकतंत्र पर आंख मूंदकर भरोसा करने वाले बुद्धिजीवी कहते हैं कि हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है लेकिन उसके लिए अतिवादी रास्ता ठीक नहीं है. इस सिलसिले में यह याद करना ज़रूरी है कि बिना अतिवादी रास्ता अपनाए क्या कभी हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के कान में जूं रेंगती है? आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश से ग़ैरबराबरी, भ्रष्टाचार, जातिवाद, संम्प्रदायवाद क्यों नहीं मिटा ? इसके लिए हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं और विकास का मॉडल ज़िम्मेदार नहीं तो और कौन ज़िम्मेदार है ? यहीं से अतियों के अपने तर्क और कुतर्क आकार ग्रहण करते हैं.

2 comments:

iqbal abhimanyu said...

माओवादियों का विरोध करने वाला हर आदमी उदारवादी या पूंजीपति बुद्धिजीवी नहीं है, और फिर सवाल ये भी है कि वे किस तरह की व्यवस्था लाना चाहते हैं, चैरमैन माओ को मैंने बहुत पढ़ा नहीं है, लेकिन तिब्बत, इनर मंगोलिया और उइगुर लोगों के साथ जो सलूक चीन ने किया, जो क्षेत्रीय साम्राज्यवाद और दादागिरी वाली नीति अपनाई गयी और अंततः आज खुद वह किस तरह एक बड़ा पूंजीवादी देश बन गया है, उससे हमें इस माडल पर घोर आपत्ति है. जब सत्ता का ऐसा भयानक केन्द्रीकरण होता है, तो उस पर आपत्ति करना मैं जायज मानता हूँ, आज हिन्दुस्तान के हालात से हम सभी परिचित हैं, लेकिन दो ही रास्ते-पूंजीपति या माओवादी, यह कहना कहाँ तक सही है? देश के कई हिस्सों में कई तरह के संघर्ष चले हैं और चल रहे हैं. माओवाद अपने प्रति क्रिटिसिस्म की कोई जगह नहीं देता, मैं सोचता हूँ कि मुझ जैसों को तो सवाल उठाने पर ही वर्ग-शत्रु घोषित किया जा सकता

Neeraj said...

Tyler Durden: Only after disaster can we be resurrected.