Monday, April 18, 2011

दो कौड़ी का हमारा मीडिया

मुझे उम्मीद थी डॉक्टर सेन की रिहाई के वक्त मीडिया उनके प्रति अपेक्षित सम्मान दिखाएगा. मगर जिस तरह उनकी बूढ़ी माँ को धकियाते हुए पत्रकार न उनकी सुन रहे थे न उनकी पुत्रियों की न उनकी पत्नी की उस से मुझे घिन जैसी आयी. एक चैनल पर एक तोतला चश्मुद्दीन पत्रकार आपसे बने रहने को कह रहा है क्योंकि उसके तथाकथित बुद्धिजीवी चैनल की एक पत्रकार वहां लगातार बनी हुई है और इस बेशर्मी को लाइव दिखाने का प्रयास करने की सारी जुगत करेंगी.

दो कौड़ी का यह इलैक्ट्रोनिक मीडिया अपने को समझता क्या है?

क्या डॉक्टर सेन को उसी तराजू में तौलोगे यार जिस में हसन अली, अमर सिंह, धौनी को तौलते आये हो?

नौकरी करो. मौज काटो.

कबाडखाना इन महानुभावों के सम्मान में हबीब जालिब की नज़्म पेश करता है. जानकारी के लिए बता दूं इजारबंद का अर्थ हुआ नाड़ा और सहाफी का पत्रकार:


सहाफी से

कौम की बेहतरी का छोड़ ख़्याल
फिक्र-ए-तामीर-ए-मुल्क दिल से निकाल
तेरा परचम है तेरा दस्त-ए-सवाल
बेजमीरी का और क्या हो मआल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

तंग कर दे गरीब पे ये ज़मीन
ख़म ही रख आस्तान-ए-ज़र पे ज़बीं
ऐब का दौर है हुनर का नहीं
आज हुस्न-ए-कमाल को है जवाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

क्यों यहाँ सुब्ह-ए-नौ की बात बात चले
क्यों सितम की सियाह रात ढले
सब बराबर हैं आसमान के तले
सबको रज़ाअत पसंद कह के टाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

नाम से पेश्तर लगाके अमीर
हर मुसलमान को बना के फकीर
कस्र-ओ-दीवान हो कयाम कयाम पजीर
और खुत्बों में दे उमर की मिसाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

आमीयत की हम नवाई में
तेरा हम्सर नहीं खुदाई में
बादशाहों की रहनुमाई में
रोज़ इस्लाम का जुलूस निकाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

लाख होंठों पे दम हमारा हो
और दिल सुबह का सितारा हो
सामने मौत का नज़ारा हो
लिख यही ठीक है मरीज़ का हाल

अब कलम से इजारबंद ही डाल

2 comments:

बाबुषा said...

चलो साथ में मिल के चीखें और मीडिया की ऐसी की तैसी कर दें !

मैं भी बहुत गुस्सा हूँ इस बात पे !

प्रवीण पाण्डेय said...

चटपटे तक ही सीमित रहता है मीडिया का स्वाद।