हिन्दी पढ़ने लिखने वालों के बीच मशहूर कवि-पत्रकार नीलाभ एक सुपरिचित नाम हैं. वे नीलाभ का मोर्चा नाम से अपना ब्लॉग भी चलाते हैं. नीलाभ जी से मेरी पहली मुलाकात सन १९८८ में हुई थी जब मैं नैनीताल में एम ए कर रहा था. वे दस्ता नाम की नाट्य-टीम लेकर आए थे ... इस पहली - पूरी मुलाकात पर एक लम्बी पोस्ट कभी फिर. जो सबसे गहरा क्षण अब तक जेहन में बैठा हुआ है वो ये है कि हम दोनों रिक्शे में बैठकर मल्लीताल की तरफ़ जा रहे थे जहां रामलीला मैदान पर कोई आयोजन था. दस्ता की टीम ने एक शो करना था. हम नैनीताल बैंक बिल्डिंग के पास थे जब पता नहीं किस रौ में नीलाभ जी ने मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर सुनाया -
"उस बज़्म में मुझको नहीं बनती हया किये
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किए."
इत्तफ़ाकन मुझे इस ग़ज़ल का एक और शेर याद था -
"सोहबत में गैर की न पडई हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसे बिग़ैर इल्तिज़ा किये"
मेरे ख़्याल से यह एक दीर्घकालिक सम्बन्ध की बुनियाद बना पाने को काफ़ी था. अभी परसों मैंने उनके ब्लॉग से कुछ सामग्री कबाड़ख़ाने में लगाने की अनुमति चाही तो वे सहर्ष राजी हो गए.
बांग्ला के बहुत बड़े कवि सुकान्त भट्टाचार्य की चुनिन्दा कविताएं लगाने से पहले मैं नीलाभ का मोर्चा से ही इस कवि के साथ आपका परिचय करवाता हूं -
सुकान्त भट्टाचार्य ( 15 अगस्त 1926 - 13 मई 1947) की गिनती बांग्ला भाषा के अत्यन्त सम्मानित कवियों में होती है. हालांकि सुकान्त का अकाल निधन 21 वर्ष की छोटी-सी उमर में हुआ, लेकिन उनकी उर्वर रचनाशीलता और तीखे प्रगतिशील स्वर के कारण पाठक और आलोचक उन्हें बांग्ला के एक और क्रान्तिकारी कवि नज़रुल इस्लाम से जोड़ कर "किशोर विद्रोही कवि" और "युवा नज़रुल" कहने लगे थे। अंग्रेज़ी राज की निरंकुशता और पूंजीवादियों के शोषण के खिलाफ़ सुकान्त ने सदा मुखर और निर्भीक आवाज़ उठायी। यह एक विडम्बना ही है कि बंगाल के मौजूदा मुख्य मन्त्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, जिनके कार्यकाल में और जिनकी सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा नन्दीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ में जनविरोधी हिंसा देखने में आयी है, बांग्ला के इसी जनवादी कवि के भतीजे हैं।
सुकान्त का पैत्रिक निवास कोटालीपाड़ा, गोपालगंज (अब बांग्लादेश ) में उन्शिया नामक गांव में था, लेकिन उनक जन्म कलकत्ता में अपने चाचा के घर में हुआ। उनके पिता निवारण चन्द्र भट्टाचार्य पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण करने वाली संस्था -- सरस्वती लाइब्रेरी -- के मालिक थे। सुकान्त 1944 में कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये और उसी वर्ष उन्होंने एक कविता संकलन "अकाल" का सम्पादन किया। 1945 में वे बेलेघाटा देशबन्धु हाई स्कूल से प्रवेश परीक्षा के लिए बैठे लेकिन विफल रहे. पार्टी के दैनिक समाचार-पत्र "दैनिक स्वाधीनता" के शुरू होने के समय, 1946 ही से वे उसके युवा विभाग "किशोर सभा" के सम्पादक बने। 1947 में तपेदिक से जादवपुर टी.बी. हस्पताल में सुकान्त का निधन हुआ।
सुकान्त की उर्वर रचनात्मकता उनकी ज़िन्दगी ही में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामने आयी, मगर "छाड़पत्र" को छोड़ कर उनके बाक़ी सभी कविता संग्रह -- "घूम नेई," (1954) "पूर्वाभास" (1950) और "मीठे-कौड़ो" (1951) और नाटक "अभियान" (1953) -- उनके निधन के बाद ही प्रकाशित हुए.
अपनी अकाल मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक सुकान्त का यही मानना था कि "कवि से बड़ी बात है कि मैं कम्यूनिस्ट हूं।" इस निष्ठा को उन्होंने पूरी तरह अपनी कविता में ही व्यक्त किया और यों आने वाले कवियों के लिए एक आलोक स्तम्भ निर्मित कर गये जो उनका दिशानिर्देश करता रहेगा.
फ़िलहाल आज उनकी एक कविता -
इस नवान्न में
इस हेमन्त में धान की कटाई होगी
फिर ख़ाली खलिहान से फ़सल की बाढ़ आयेगी
पौष के उत्सव में प्राणों के कोलाहल से भरेगा श्मशान-सा नीरव गाँव
फिर भी इस हाथ से हंसिया उठाते रुलाई छूटती है
हलकी हवा में बीती हुई यादों को भूलना कठिन है
पिछले हेमन्त में मर गया है भाई, छोड़ गयी है बहन,
राहों-मैदानों में, मड़ई में मरे हैं इतने परिजन,
अपने हाथों से खेत में धान बोना,
व्यर्थ ही धूल में लुटाया है सोना,
किसी के भी घर धान उठाने का शुभ क्षण नहीं आया -
फ़सल के अत्यन्त घनिष्ठ हैं मेरे-तुम्हारे खेत।
इस बार तेज़ नयी हवा में
जययात्रा की ध्वनि तैरती हुई आती है,
पीछे मृत्यु की क्षति का ख़ामोश बयान -
इस हेमन्त में फ़सलें पूछती हैं : कहाँ हैं अपने जन ?
वे क्या सिर्फ़ छिपे रहेंगे,
अक्षमता की गलानि को ढँकेंगे,
प्राणों के बदले किया है जिन्होंने विरोध का उच्चारण ?
इस नवान्न में क्या वंचितों को नहीं मिलेगा निमन्त्रण?
(ये सभी अनुवाद नीलाभ ने मूल बांग्ला से किए हैं)
2 comments:
पहली बार पढ़ा है इन्हें तो मैंने ! और कवितायेँ पढ़ने जैसी लग रही हैं.
समाज का सत्य उभारना यदि विद्रोह है तो भारत विद्रोहियों से भरा पड़ा है।
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