कल ब्लॉगर.कॉम दिन भर खराब रहा. इस के ठीक हो जाने के बाद कल रात तक तो मुमिआ अबू-जमाल के परिचय वाली दो पोस्ट्स के अलावा दो और भी नज़र नहीं आ रही थीं. फ़िलहाल आज इन पोस्ट्स ने दिखना शुरू कर दिया है.
मैंने परसों आप से वायदा किया था कि मुमिआ अबू-जमाल का एक साक्षात्कार आपको पढ़वाऊंगा. लीजिए प्रस्तुत है -
मुमिया अबू-जमाल से एक साक्षात्कार
अगस्त २०१० में "रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स" की वॉशिंगटन डीसी की प्रतिनिधि क्लोथिल्ड ले कॉज़ की मुमिआ अबू-जमाल से बातचीत का एक अंश
एक पत्रकार की हैसियत से, जो जेल में लगातार लिख रहा है, आपकी ताज़ा रिपोर्ट किस विषय पर केन्द्रित है?
अमेरिका की जेलों में दुनिया में सब्से अधिक कैदी हैं. ३८ सालों में पहली बार इसमें कमी आई है.
कुछ राज्यों में, कैलिफ़ोर्निया और मिशीगन में भीड़ की वजह से बहुत कम लोगों को सज़ा दी जा रही है. राज्य का बजट तंग है इसलिए कईयों को रिहा भी किया जा रहा है.
अमेरिका में ढेरों जेलें हैं और अनगिनत कैदी. यह आश्चर्यजनक है कि सरकार हम पर इतना पैसा खर्च करती है और इसके बावजूद हमारे बार में एक तरह की ख़ामोशी है. कोई कुछ नहीं जानता. अधिकतर को इस बात की कोई फ़िक्र भी नहीं है. जब जेल में कुछ अप्रत्याशित घटता है तो कुछ पत्रकार ख़बर बनाते हैं और फिर सोचते हैं कि वे जेलों के बारे में बहुत जानते हैं. लेकिन यह सही नहीं है. यह तो रोमांचक रपट है. कुछ अच्छा लिखा गया है लेकिन वह झूठ है. मेरी ख़बरें वे हैं जिन्हें मैंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है या फिर वह जो लोगों ने मुझे बताया है. मेरी रिपोर्टिंग सच से ताल्लुक रखती है.
मैंने सज़ा-ए-मौत और जेल के विषय में प्रमुखता से लिखा है. मैं चाहता हूं कि जैसा मैं देखता हूं वैसा सच न हो. लेकिन यह सच है. पिछले डेढ़ साल में मौत की सज़ा पाए बहुत से कैदियों ने आत्महत्या की है. लेकिन किसी को भनक तक नहीं है. मैंने आत्महत्या की रिपोर्ट की क्योंकि मेरे ब्लॉक में हुई थी.
मेरे लिए लिखना ज़रूरी है. लाखों कहानियां हैं और अनेकों-अनेक लोग. वे कहानियां जिन्हें मैंने चुना, वे ज़रूरी, संवेदनशील और झकझोर देने वाली थीं. मैंने इन्हें लिखा लेकिन यह जानना भी ज़रूरी है कि क्या इनसे कुछ अच्छा हो रहा है. मुझे विश्वास है कि मेरे काम से लोगों के जीवन में बदलाव आएगा.
क्या आपको लगता है कि आपके पत्रकार होने ने आपके केस को प्रभावित किया है?
मेर "बेज़ुबानों की आवा़ज़" होने की अहम भूमिका रही. और यह उपनाम उस रिपोर्ट की देन है जो फ़िलाडेल्फ़िया इंक्वायरर में १९८१ में मेरी गिरफ़्तारी के बाद छपी थी. अपनी युवावस्था में मैं एक रेडिकल पत्रकार था और ब्लैक पैथर्स के राष्ट्रीय अख़बार के साथ जुड़ा हुआ था. एफ़. बी. आई. मेरे लेखों पर तब से नज़र रखे हुए थी जब मैं चौदह साल का था. मेरा सबसे पहला पेशा पत्रकार का था और लिखने की वजह से ही मैं अन्य सहबन्दियों के मुकाबले ज़्यादा जाना जाता हूं. यदि ऐसा नहीं होता तो शायद कोर्ट पर दबाव नहीं होता कि वह मुझे सज़ा देने के लिए विशेष कानून बनाए. अन्य कैदी जिन्हें मौत की सज़ा हुई है, मेरी तरह बाहर नहीं पहचाने जाते हैं. क्योंकि मैं लगातार लिख रहा हूं इस वजह से जजों की सोच प्रभावित हुई होगी और उन्होंने मुझे नए सिरे से मुकदमा दायर करने की मंजूरी भी नहीं दी. मुझे लगता है कि वे सोचते होंगे "तुम बहुत बकबक करते हो, तुम्हें नया मुकदमा दायर नहीं करने दिया जाएगा." फ़ेडरल कोर्ट को ज़्यादा ज़िम्मेदार होना चाहिए. मेरे केस के कारण दर्ज़नों दूसरे केस प्रभावित हो सकते हैं.
आपके केस को मिल रहे मीडिया कवरेज के बारे में आप क्या सोचते हैं?
पहली बार जब मुझे पता चला कि मेरी फांसी टल गई है मैं यहीं बैठा था. तब से मैं यहीं हूं.
क्योंकि मुझे फंसाया गया था इसलिए अधिकतर पत्रकार मेरे केस को कवर नहीं करना चाहते थे. उन्हें लगता था कि उन्हें भी फंसाया जा सकता है. कई बार लोग उनकी आलोचना करते कि वे पक्षपात अर रहे हैं और कई बार उनका सम्पादक उनसे कह देता कि वे मेरे केस को कवर नहीं कर सकते. शुरू से ही उन लोगों को, जो मेरे पक्ष को ठीक से रख सकते थे, केस की रिपोर्ट नहीं करने दिया गया. जिन पत्रकारों के साथ मैंने काम किया था अब वे इस पेशे को छोड़ चुके हैं. उनके सेवानिवृत्त होने के बाद किसी ने मेरे केस को समझने की कोशिश नहीं की.
लेकिन प्रेस की एक भूमिका है. करोड़ों लोगों ने देखा कि अबू-गारिब में क्या हो रहा था. उसके कर्ताधर्ता, जिनकी मुस्कराती हुई तस्वीरें अख़बारों में छपीं, अबू-ग़ारिब जाने से पहले यहीं तैनात थे.यहां वे लोग जिनके पास हाईस्कूल तक की डिग्री नहीं है यह तय करते हैं कि किसे जीना है और किसे मर जाना है. न जाने क्यों उनके पास यह अधिकार है कि वे जब चाहे किसी को भूखा रख सकते हैं. और कोई उन अधिकारों की जांच नहीं करता. यहां अनौपचारिक नियम हैं. ये लोग किसी की ज़िन्दगी पल भर में नर्क कर सकते हैं. जब मैंने सोचा कि मुझे लिखना है तब से मेरे पास विषय की कमी कभी नहीं हुई है. लिखने के लिए यहां बहुत कुछ है.
मेरी निन्दा करने वाला कुछ भी कहे लेकिन मैं एक पत्रकार हूं. पत्रकार के बिना यह देश और भी खराब स्थिति में पहुंच जाता. लेकिन फिर भी बहुतों के लिए मैं एक गुनाहगार पत्रकार हूं. कैद होने से पहले जब मैं रेडियो स्टेशनों के लिए काम करता था, मैं दुनिया भर के लोगों से मिलता-जुलता था. कुछ सम्पादकों के साथ मतभेदों के बावजूद मेरे लिए यह महानतम पेशा था.
आपको जो समर्थन यूरोप में मिला है वह अमेरिका में मिले समर्थन से बहुत अलग है. आप इस अन्तर को कैसे देखते हैं और क्या आपको लगता है कि अन्तर्राष्ट्रीय गोलबन्दी मददगार होगी?
बिल्कुल! यूरोप में मुझे मिल रहा समर्थन संयुक्त राष्ट्र अमेरिका पर मृत्युदण्ड के खिलाफ़ दबाव बनाए हुए है. बाहर के देश जैसे यूरोप के देश इतिहास में ज़बर्दस्त दमन के शिकार हुए हैं. उनकी आत्मा के अंदर गहराई तक इस बात का अहसास है कि जेल में क्या होता है. वे जेल, फांसी की सज़ा और कॉन्सन्ट्रेशन कैम्प का अर्थ अच्छी तरह समझते हैं. अमेरिका में बहुत कम लोगों को अनुभव है. इस से पता चलता है कि कैसे संस्कृतियां दुनिया के बारे में एक नज़रिया तैयार करती हैं. यूरोप में फांसी की सज़ा एक अभिशाप है.
९/११ ने अमेरिका को बदल डाला. अब उन लोगों को, जो सरकार का विरोध करते हैं, कोई समर्थन नहीं मिलता. प्रेस भी बदल गया है. वे तमाम चीज़ें जो पहले "जायज़" थीं, ९/११ के बाद नाजायज़ हो गईं. मुझे लगता है कि ९/११ ने लोगॊम के सोचने का ढंग बदल दिया और मीडिया में बर्दाश्त करने की भावना को भी. उदाहरण के लिए ९/११ मैनहटन और वॉशिंगटन डीसी में हुआ लेकिन जेल को पूरे दिन के लिए बन्द रखा गया, यहां पैन्सिल्वैनिया में और हम सब को बन्द कर दिया गया था.
((समकालीन तीसरी दुनिया के सितम्बर २०१० अंक से साभार. अनुवाद - विष्णु शर्मा. जारी -अगली पोस्ट में समाप्य)
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