Sunday, May 8, 2011

और ये वो जगह है मैं जहां का हूं


सुबह आपने पाब्लो नेरूदा की बड़ी मां पढ़ी. उनकी पद्य आत्मकथा ईस्ला नेग्रा के पहले हिस्से जहां जन्म लेती है बारिश का पहला अंश प्रस्तुत है जिसमें वे अपने जन्म और अपनी मां की बात करते हैं:

जन्म

एक आदमी ने जन्म लिया
कई आदमियों के मध्य
वे भी पैदा हुए थे.
वह जिया कई आदमियों के बीच
वे भी जिए -
और यह कोई बड़ा इतिहास नहीं है
जैसे कि स्वयं पृथ्वी
चीले का मध्य भाग, जहां लताएं
अपनी हरी लटें सुलझाती हैं
अंगूर रोशनी पर जीवित रहते है
और शराब जन्म लेती है आदमियों के पैरों से.

पराल -
यह है उस जगह का नाम
जहां उस का जन्म हुआ
जाड़ों में.

अब उनका कोई नाम-ओ-निशान नहीं बचा
न वह मकान, न वह गली,

पर्वतश्रृंखलाओं ने आज़ाद छोड़ दिया अपने घोड़ों को
उसकी सारी दफ़्न हो चुकी ताक़त ने
ख़ुद को इकठ्ठा किया
पहाड़ कुलांचें भरने लगे
और भूचाल में घिरकर परास्त हो गया शहर
सो कच्ची ईंटों की दीवारें,
दीवारों पर लगी तस्वीरें, अन्धेरे कमरों का
जर्जर फ़र्नीचर
मक्खियों द्वारा तोड़ी जाती खामोशी -
धूल बन गया
सारा कुछ.

हम में से केवल कुछ ही सलामत बचा पाए
अपनी आकृतियां और अपना रक्त
हम में से केवल कुछ और शराब.

शराब ही बनी रही अपने अस्तित्व के साथ
शरद के बिखराए अंगूरों तक चढ़कर
बहरी भट्टियों से
अपने नर्म ख़ून के धब्बे लगे पीपों में से उतरती -
और वहां उस डरावनी धरती से भयाक्रान्त
वह बनी रही - विवस्त्र और जीवित.

मुझे कुछ भी याद नहीं है
न प्रकृति-दृश्य, न समय
न चेहरे, न आकृतियां -
बस भरमाने वाली धूल
गर्मियों का अंत
और वह कब्रिस्तान
जहां मुझे ले जाया गया
कब्रों के बीच सोती हुई
मेरी मां की कब्र दिखाने को
और चूंकि उसका चेहरा मैंने कभी नहीं देखा था
उसे देखने को,
उन मृतकों के बीच से पुकारा मैंने
उसने न जाना, न सुना, न जवाब ही दिया.

और वह अकेली रही वहां
अपने बेटे के बग़ैर
सबसे अलग और अनिश्चित
प्रेतों के बीच.
और ये वो जगह है
मैं जहां का हूं
कांपती धरती वाला यह पराल
अंगूरों से लदी वह धरती
जिसने मेरी मृत मां के भीतर से
जीवन प्राप्त किया.

2 comments:

बाबुषा said...

"जिसने मेरी मृत मां के भीतर से
जीवन प्राप्त किया. "

आखिर का पेंच ..सीने में उतरता है . एकदम से !

प्रवीण पाण्डेय said...

हृदय भेदती कविता।